हैदराबाद निजाम की सेना से कुमाऊँ रेजिमेंट तक, कुमाउँनियों की सैनिक जीवन यात्रा

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Kumaon Regiment
  • प्रकाश चन्द्र पुनेठा, सिलपाटा, पिथौरागढ़

विश्व के इतिहास का अध्यन करने से ज्ञात होता है कि इतिहास में उस जाति का नाम विशेषतया स्वर्ण अक्षरों से उल्लेखित किया गया है, जिस जाति ने वीरता पूर्ण कार्य किए हैं. विश्व के इतिहास में अनेक प्रकार की युद्ध की घटनाओं का विस्तृत वर्णन मिलता हैं. इन युद्ध की घटनाओं में वीरतापूर्ण संधर्ष करने वाले वीर व्यक्तियों की गाथा का वर्णन अधिक किया गया है. शक्तिशाली, साहसी तथा वीर व्यक्तियों ने अपने स्वयं के जीवन का बलिदान देकर अपने कुल, परिवार व जाति का नाम वीर जाति में सम्मिलित किया गया हैं. हमारे देश में भी अनेक वीर जातियों का नाम उनके वीरतापूर्ण कार्यो से, व आत्मबलिदान से, हमारे देश के इतिहास में दर्ज हैं. इन बहादुर जातियों ने रणक्षेत्र हो या खेल का क्षेत्र दोनो जगह अपनी श्रेष्ठता का झंडा बुलंद किया हैं.

किसी शक्तिशाली राष्ट्र की शक्ति का आभास उस राष्ट्र की सेना के अनुशासन, परिश्रम तथा साहसिक क्रिया-कलापों से होता है. जिस राष्ट्र की सेना में पराक्रमी, साहसी और परिश्रमी जाति के व्यक्ति होंगे तो उस राष्ट्र की सेना के सैनिक अनुशासित, आज्ञाकारी एवम् राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत होगें. हमारे देश की सेना का इतिहास भी अनेक सर्वश्रेष्ठ बहादुर जातियों के पराक्रम से भरा हुवा हैं. भारत में ब्रिटिश शासन के समय सेना में बहादुर, पराक्रमी और आज्ञाकारी जातियों के नाम से अनेक रेजिमेन्टों का गठन किया गया था. उनमें से एक है शौर्यशाली व पराक्रमी कुमाऊँ की भूमी में जन्म लेने वाले जांबाज कुमाउँनी बहादुरों की कुमाउ रेजिमेन्ट.

कुमाऊँ के पराक्रमी वीर लोग पर्वतवासी होने के कारण जुंझारु, परिश्रमी तथा ईमानदार व आज्ञाकारी होने के साथ ही जीवट के धनी होते हैं. ब्रिटिश शासन जब पूरे भारत में अपने पैर पसार रहा था, साथ ही ब्रिटिश शासन के अंग्रेज अधिकारी भारत में रहने वाली जातियों का गहनता के साथ अध्यन कर रहे थे, कि कौन सी भारत वासियों की जाति स्वाभिमानी होने के साथ देश के प्रति निष्ठावान हैं! स्वाभिमानी और देश के प्रति निष्ठावान जाति को अंग्रेज अपने शासन के लिए खतरनाक मानते थे, क्योकि इन जातियों के स्वाभिमान को ठेस लगने पर विद्रोह का झंडा बुलंद कर देती थी. अतः मक्कार तथा चालाक अंग्रेज शासक इस प्रकार की जातियों को दबाकर रखते थे.

क्षेत्रफल व जनसंख्या कम होने पर भी कुमाऊँ के निवासी भी स्वतंत्रता के आंदोलनों में बड़-चड़कर भाग लेते थे. इसलिए अंग्रेजों की ईष्ट इडिया कम्पनी कुमाऊँ वासियों से सतर्क रहते हुए शासन करती थी. तदपि सैनिक दृष्टी से देखा जाय तो कुमाउनी श्रेष्ठ सैनिक प्रमाणित होते है, इसलिए अंग्रजों ने आरंभ में कुमाउँनी पुरुषों को सन् 1788 में हैदराबाद के नबाब सलावत खाँ की रेजिमेन्ट में भर्ति किया. सन् 1794 में इस रेजिमेन्ट का नाम रेमंट कोर रखा गया, इसके बाद इस रेजिमेन्ट को निजाम कांटीजैंट का नाम दिया गया. तत्पश्चात सन् 1853 को निजाम की सेना, रसेल ब्रिगेड और बेरार इन्फैंट्री को सम्मिलित करने के पश्चात इस का नाम हैदराबाद कांटीजैंट नाम दिया गया. रसेल ब्रिगेड और बेरार इन्फैंट्री ब्रिटिश सेना का अंग थी, लेकिन इनका भुगतान निजाम हैदराबाद द्वारा किया जाता था.

सन् 1853 और सन् 1917 के मध्य हैदराबाद कांटिजैंट में कुमाउँनी युवकों को ओर अधिक संख्या में भर्ति किया गया. सन् 1903 को हैदराबाद कांटीजैंट को पूर्णरुप से भारत में शासित अंग्रेजों ने अपने अधिन ब्रिटिश भारतीय सेना में विलय कर दिया. 23 अक्टूबर सन् 1917 को, प्रथम विश्व युद्ध के समय रानीखेत में प्रथम अखिल कुमाऊँ बटालियन बनाई गई थी. इसे 4/39वीं कुमाऊँ राईफल्स के नाम से भी जाना जाता था. सन् 1918 में इसे पुनः प्रथम बटलियन, 50वीं कुमाऊँ राईफल्स के नाम से जाना गया. विश्व युद्ध के पश्चात कुमाऊँ राईफल्स को पुनः हैदराबाद कांटीजैंट का अंग बना दिया गया. सन् 1922 में हैदराबाद कांटीजैंट को नया नाम देकर हैदराबाद रेजिमेंट कर दिया गया, इस कड़ी को आगे करते हुए सन् 1923 में इसे 19वें हैदराबाद रेजिमेंट नाम में परिवर्तित कर दिया गया.

अंग्रेज सैन्य अधिकारी कुमाउँनी युवकों को अपने अधिनस्थ सेना के किसी भी बल में भर्ति कर देते थे, क्योकि उस समय कुमाऊँ रेजिमेंट नही बनी थी. पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों को साहस के साथ झेलते हुए और मन लगाकर परिश्रम करते हुए सुडौल शरीर के कुमाउँनी युवक सेना में श्रेष्ठ सैनिक साबित होते थे.

27 अक्टूबर 1945 को 19वें हैदराबाद रेजिमेंट का नाम बदलकर 19वीं कुमाऊँ रेजिमेंट कर दिया गया. हमारे देश के स्वतंत्र होने के पश्चात उपसर्ग 19वीं को हटाकर मात्र कुमाऊँ रेजिमेंट कर दिया गया. 27 अक्टूबर 1945 के दिन कुमाऊँ के लोगों के शौर्य, पराक्रम, अनुशासन तथा आज्ञाकारिता को देखकर हैदराबाद रेजिमेंट के नाम को परिवर्तित कर कुमाऊँ रेजिमेंट का नाम दे दिया गया. यह कुमाऊँ के लोगों के लिए अपनी जाति के नाम से सेना की रेजिमेंट होना अति गर्व की बात थी. रानीखेत में कुमाऊँ रेजिमेंट सेन्टर की स्थापना की गई.

कुमाऊँ रेजिमेंट के जनक – सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा

भारतीय सेना के इतिहास में अपनी जाति कुमाउँनी के नाम से, कुमाउँ रेजिमेंट का निर्माण चाहने वाले एक बहादुर, पराक्रमी व साहसी योद्धा चन्द्र सिंह बसेड़ा का नाम बहुत आदर तथा सम्मान के साथ लिया जाता है. चन्द्र सिंह बसेड़ा का जन्म सन् 1870 के आस-पास जिला पिथौरागढ़ के देवलथल के निकट भण्डारी गाँव में हुवा था. अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात वह अपनी यौवन अवस्था में अंग्रेज शासन के अधीन सेना में भर्ति हो गए थे. अंग्रेज सैन्य अधिकारी कुमाउँनी युवकों को अपने अधिनस्थ सेना के किसी भी बल में भर्ति कर देते थे, क्योकि उस समय कुमाऊँ रेजिमेंट नही बनी थी. पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों को साहस के साथ झेलते हुए और मन लगाकर परिश्रम करते हुए सुडौल शरीर के कुमाउँनी युवक सेना में श्रेष्ठ सैनिक साबित होते थे.

22 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918, लगभग 52 माह तक, भीषण रक्तपात और भारी विध्वंस के साथ प्रथम विश्व युद्ध चलता रहा. ब्रिटेन मित्र राष्ट्रों का साथ देता हुवा युद्ध में अपनी भूमिका निभा रहा था. अंग्रेजों के पराधीन होने के कारण आम भारतीय जनमानस अंग्रेजों को ही अपना सर्वसर्वा समझता था. अतः उस समय भारत के लोग अंग्रेजों का साथ दे रहे थे. भारतीय सैनिक अंग्रेजों का साथ देते हुए प्रथम विश्वयुद्ध युद्धरत थे. ब्रिटिश सेनायें अन्त समय तक लड़ते हुए जर्मन और तुर्क सेनाओं को खदेड़ने का प्रयास कर रही थी. अंग्रेज अधिकारी इराक के मेसापोटामिया मैंदान में तैनात तुर्क सेनाओं के मोर्चे को विफल करने के उद्देश्य से भारतीय सैनिकों की टुकड़ियों को एकत्र कर रहे थे.

दिसंबर सन् 1916 में अंग्रेज अधिकारियों ने बर्मा मिलट्री पुलिस से 200 कुमाउँनी सैनिकों को 37 डोगरा रेजिमेंट में सम्मिलित कर टिगरिस नदी के कुट सैक्टर के समीप बने एम 20 पोस्ट पर भेजा गया. विपरित दिशा में तुर्क सेनायें डटी हुई थी. 12 फरवरी सन् 1917 को 102 ग्रिनेडिस के कप्तान क्रिस्टी के नेतृत्व में कुट क्षेत्र में आक्रमण हुवा, जिसमें ग्रिनेडिस को बहुत भारी नुकसान हुवा. दूसरी बार फिर से कुट क्षेत्र के उपर आक्रमण किया गया. जिसमें 20 पोस्ट को सफलता मिल गई. 37 डोगरा रेजिमेंट की दो कम्पनियों को तुरंत सहायता देने के लिए जाना पढ़ा. इन में से एक कम्पनी में सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा तैनात थे. दजला नदी के सपाट तट पर आगे बढ़ रहे भारतीय सिपाहियों को तुर्क सेना की भारी मशीन गन की फायरिंग का सामना करना पढ़ा. जिस वजह से भारी जानमाल का नुकसान हुवा.

सेना की टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे दोनों अंग्रेज अधिकारी शहीद हो चुके थे. युद्ध के समय इस प्रकार की नाजुक घड़ी में सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा ने अपने विवेक व साहस का परिचय देते हुए सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया. शत्रु की बमबारी के मध्य अपने विजय ध्वज को हाथ में लेकर चन्द्र सिंह बसेड़ा ने आगे बढ़ते हुए, तुर्क सेना के हौसले को पस्त करते हुए, उनके मनोबल को तोढ़ते हुए विजय प्राप्त करी. तुर्क सेना को पराजित कर ब्रिटिश सेना अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हुई. शौर्य और विरता से परिपूर्ण अंतिम समय में विजय प्राप्त करने वाले सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा को युद्ध क्षेत्र में ही ‘इण्डियन आर्डर ऑफ मैरिट’ से सम्मानित किया गया. यह भारतीय सैनिकों को दिया जाने वाला उस समय का सर्वोच्च सम्मान था. उस समय विक्टोरिया क्रास मात्र अंग्रेज सैनिकों को ही दिया जाता था.

कुमाऊँ क्षेत्र का इतिहास कुमाउँनी लोगों की युद्ध भूमी में शौर्य तथा पराक्रम के उदाहरणों से भरा हुवा हैं. सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा ने कुमाउँनी लोगों की बहादुरी, शौर्य तथा पराक्रम की परंमपरा में चार चाँद लगा दिये.

सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा को उनके शौर्य पर्दशन के लिए विक्टोरिया क्रास न दिए जाने की ग्लानी अंग्रेज अधिकारियों में भी थी. इसलिए अंग्रेज अधिकारियों ने सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा से उनकी किसी अन्य अभिलाषा के बारे में पूछा गया. बसेड़ा जी ने कहा उनके पास सब है, लेकिन उनकी ईच्छ्या है कि उनके कुमाउँनी कौम के नाम की सेना में ’कुमाऊँ रेजिमेंट’ हो. उस समय कुमाउँनी युवक सेना में सैनिक बहुत अधिक संख्या में होते थे, परन्तु उनके जाति के नाम की कोई रेजिमेंट नही थी. इसका कारण यह था कि कुमाऊँ के लोग देश की स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहते थे, इसलिए अंग्रेज शासक कुमाऊँ के लोगों को अपने प्रति वफादार नही मानते थे. कुमाउँनी लोग उस समय अपनी जाति को छुपाकर सेना में भर्ति होते थे. चन्द्र सिंह बसेड़ा भी उस समय चन्दरी चन्द के नाम से सेना में भर्ति हुए थे. चन्दरी चंद ने ही अंग्रेज अधिकारियों को अहसास कराया कि कुमाउँनी पराक्रमी और शौर्यशाली होने के साथ वफादार भी होते हैं.

मानव युद्ध के इतिहास में सबसे बड़ा ‘लास्ट स्टैंड वारफेयर’ कुमाऊँ रेजिमेंट ने लड़ा. 13 कुमाऊँ रेजिमेंट ने लद्दाख के रेंजांग-ला क्षेत्र में मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में चीन की सेना के विरुद्ध ‘लास्ट स्टैंड वारफेयर’ लड़ा था. इस लड़ाई में हमारे देश की सेना के मात्र 120 सैंनिकों ने चीन के 1300 सैंनिकों को मृत्युलोक पहुँचा दिया था और हमारी सेना के 114 सैंनिक मात्भूमी की रक्षा करते हुए शहीद हुए थे.

सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा की वीरता तथा वफादारी को देखते हुए प्रेरित होकर युद्धकाल में ही 23 अक्टूबर, सन् 1917 में कुमाऊँ रेजिमेंट की नींव पढ़ी, और कुमाऊँ रेजिमेंट अस्तित्व में आई. हमारे देश भारत की सेना में कुमाऊँ रेजिमेंट को अस्तित्व में लाने का श्रेय सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा को जाता है.

कुमाऊँ रेजिमेंट को अब तक वीरता के सर्वोच्च सम्मान 2 परमवीर चक्र मिल चुके है. मेजर सोमनाथ शर्मा को पहला परमवीर चक्र असन् 1947 में कश्मीर में पाकिस्तान के कबायलियों के आक्रमण का सामना करते हुए, कबायलियों को वापस पिछे खदेड़ते हुए उनके शौर्य और पराक्रम को देखते हुए मिला. हमारे देश की स्वतंत्रता के पश्चात कुमाऊँ रेजिमेंट ने पहला युद्ध सन् 1947 में पाकिस्तान के विरुद्ध लड़ा.

मानव युद्ध के इतिहास में सबसे बड़ा ‘लास्ट स्टैंड वारफेयर’ कुमाऊँ रेजिमेंट ने लड़ा. 13 कुमाऊँ रेजिमेंट ने लद्दाख के रेंजांग-ला क्षेत्र में मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में चीन की सेना के विरुद्ध ‘लास्ट स्टैंड वारफेयर’ लड़ा था. इस लड़ाई में हमारे देश की सेना के मात्र 120 सैंनिकों ने चीन के 1300 सैंनिकों को मृत्युलोक पहुँचा दिया था और हमारी सेना के 114 सैंनिक मात्भूमी की रक्षा करते हुए शहीद हुए थे. मेजर शैतान सिंह को रेंजाग-ला के युद्ध में उनके अदम्य साहस को देखते हुए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. 17000 फुट की उँचाई में शत्रु सेना की भारी तोपखाने और मशीन गन की फायरिंग के बीच मेजर शैतान सिंह अपने जवानों के बंकरों में जाकर उनका उत्साह बढ़ाते रहे. इस तरह यह युद्ध इतिहास में एक उदाहरण बन गया.

सन् 1984 में लद्दाख स्काउट्स और कुमाऊँ रेजिमेंट ने आपरेशन मेघदूत के तहत विश्व की बर्फिली छत सियाचिन ग्लेशियर को अपने अधिकार में ले लिया था और सियाचिन ग्लेशियर भारत का अंग बन गया.

मेजर शैतान सिंह का शव तीन महिने बाद बर्फ पिघलने पर सर्च ऑपरेशन में पाया गया. उस समय भी मेजर शैतान सिंह के हाथों में बंदूक थी और बंदूक में हाथों की पकड़ बहुत मजबूत थी.

कुमाऊँ रेजिमेंट को दो परमवीर चक्र के अतिरिक्त 13 महावीर चक्र, 82 वीर चक्र, 4 अशोक चक्र, 10 कीर्ति चक्र, 43 शांर्य चक्र, 6 युद्ध सेवा मेडल, 14 से अधिक परम विशिष्ट सेवा मेडल, 69 से अधिक विशिष्ट सेवा मेडल, 1 अर्जुन पुरुस्कार मिल चुके हैं.

220 से अधिक मेंशन-इन-डिस्पेचेस तथा 734 से अधिक अन्य सम्मान कुमाऊँ रेजिमेंट को मिल चुके है, जिनमें दो पदमविभूषण भी सम्मिलित हैं. रेजिमेंट की बटालियनों ने 17 से अधिक यूनिट साईटेशन भी प्राप्त कर लिए हैं.

सियाचिन को भारत का अंग बनाने का श्रेय – कुमाऊँ रेजिमेंट को 

सन् 1984 में लद्दाख स्काउट्स और कुमाऊँ रेजिमेंट ने आपरेशन मेघदूत के तहत विश्व की बर्फिली छत सियाचिन ग्लेशियर को अपने अधिकार में ले लिया था और सियाचिन ग्लेशियर भारत का अंग बन गया.

अरुणाचंल प्रदेश में, वालॉग सैक्टर की लड़ाई में 6 कुमाऊँ रेजिमेंट ने चीन की सेना के उपर आक्रमण किया और उस क्षेत्र में अधिकार किया. पूरे युद्ध में हमारी सेना ने रक्षात्मक होने के बजाय आक्रमण का रुख किया, यह पहला और एकमात्र उदाहरण हैं.

कुमाऊँ रेजिमेंट ने सेना को तीन सेनाअध्यक्ष दिए

1- जरनल एस एम श्रीनगेश
2- जरनल के एस थिमय्या
3-जरनल टी एन रैना

“पराक्रमो विजयते” कुमाऊँ रेजिमेंट का आदर्श वाक्य है.

कुमाऊँ रेजिमेंट का युद्धघोष – कालिका माता की जय, बजरंग बली की जय और दादा किशन की जय.

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