भाषा की सामाजिक निर्मिति

  • प्रकाश चंद्र

भाषा सिर्फ वही नहीं है जो लिखी व बोली जाती है बल्कि वह भी है जो आपकी सोच, व्यवहार, रुचि और मानसिकता को बनाती है। आज लिखित भाषा से ज्यादा इस मानसिक भाषा का विश्लेषण किया जाना जरूरी है। भाषा का दायरा बहुत बड़ा है इसे सिर्फ एक शब्द या फिर सैद्धांतिक व व्याकरणिक कोटि में बद्ध करके ही व्याख्यायित व विश्लेषित नहीं किया जा सकता है। भाषा की संरचना में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, और आर्थिक पहलुओं का अहम् योगदान होता है। इसलिए अब भाषा पर चिंतन सिर्फ कुछ जुमलों को लेकर ही नहीं किया जा सकता है बल्कि उन सभी आयामों, संदर्भों पर बात करनी होगी जिनसे ‘भाषा’ का निर्माण होता है या फिर जिनसे भाषिक मानसिकता बनती है। भाषिक मानसिकता ही भाषा के निर्माण में अहम होती है। भाषा पर हिंदी में आज भी कुछ परंपरागत जुमलों के साथ ही बात होती है। जिनमें- भाषा बहता नीर है, भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है आदि। किसकी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है? उसकी भी क्या जिसकी आवाज कभी सुनी ही नहीं गई? कैसी अभियक्ति का माध्यम है जिसमें सिर्फ खास लोगों की ही अभिव्यक्ति होती है। आज तक वही इस माध्यम का इस्तेमाल करते रहे हैं जिनका वर्चस्व रहा या फिर जिनके हाथ में सत्ता रही है, वह सत्ता देश, परिवार या फिर समाज की ही क्यों न हो। भाषा की निर्मिति में सामाजिक संरचना के साथ–साथ वर्ग, जेंडर और जाति की भी अहम् भूमिका होती है। ‘गौरतलब है कि भाषा विशेष का वर्चस्व और किसी खास भाषा से वर्ग विशेष का लगाव कोई नई बात नहीं है। यह भी सही है कि हमेशा से ज़्यादातर भाषाएँ अपनी निर्मिति में कुछ पूर्वाग्रहों (लिंग, जाति, धर्म, क्षेत्र आदि की) से ग्रस्त रही हैं। तमाम भाषाओं में ऐसे संकेत देखे जा सकते हैं। अपने भारत में कुछ भाषाओं के नाम (अपभ्रंश, पैशाची) ही वर्चस्व की सूचना देते हैं’। इस पूरे आलेख में भाषा की सैद्धांतिकी के बरक्स उसके व्यावहारिक संदर्भों को समझने की कोशिश की गई है और कुछ सूत्र व संकेत देने की कोशिश की है जिनके जरिए भाषा के इन पहलुओं पर विचार विमर्श हो। भाषा अकादमिक दुनिया से बाहर विमर्श में आए।

भाषा में जब गुलामी व दासत्व का भाव हो तो ऐसे में संस्कृति के साथ उसका कैसा संबंध होता है देखने वाली बात है। अंग्रेजों ने हमारे देश के साथ-साथ भाषा को भी गुलाम बनाया। भाषा की उस गुलामी को हम आज भी ढो रहे हैं।

भाषा का अपना एक वर्ग होता है। भाषा का वर्गीय आधार समाज में कई स्तरों पर देखा जा सकता है। स्त्री-पुरुष के संबंध में वर्गीय चेतना का पूरा ढांचा स्पष्ट हो जाता है। पितृसत्तात्मक समाज में वर्चस्व पुरूष का रहा, उसने अपने अनुसार भाषा गढ़ी व नियम बनाए। स्त्रियां दासी की भांति इस भाषा का अनुसरण करती रहीं। वर्चस्व व शक्ति भाषा पर किस प्रकार नियंत्रण करती है इसका एक उदाहरण- ‘नाक ना होत त मेहरारू मइला खइती सन’ (अगर नाक न होती तो महिलाएं टट्टी भी खा लेती) (एक बहुप्रचलित भोजपुरी मुहावरा)। स्त्री के लिए जो यह भाषा गढ़ी गई है वह पुरुष ने गढ़ी है। पुरुष की वर्चस्ववादी शक्ति का परिणाम है यह। यह वर्चस्व हर क्षेत्र में दिखाई देता है। औपनिवेशिक शक्ति जब किसी देश को गुलाम बनाती है तो वह उसकी भाषा पर भी अपना वर्चस्व स्थापित करती है। ‘मैकाले’ ने भारतीय भाषाओं के बारे में कहा कि- ‘यहाँ (भारत) के देशी लोग जो बोलियां आमतौर से बोलते हैं, वे बहुत गई बीती और कर्कश हैं’। भाषा के संबंध में औपनिवेशिक शक्तियों का यही रवैया हर गुलाम देश के प्रति रहा है। आज भी पश्चिमी के देशों की धारणा एशिया और अफ्रीका के देशों में बोली जाने वाली भाषा के प्रति ऐसी ही है। ‘एडवर्ड सईद’ अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं कि- ‘आप उन लोगों की भाषा और इतिहास सीखते हैं जो आपके स्वामी हैं लेकिन साथ ही आपको यह मानने के लिए भी बाध्य किया जाता है कि आप उनके जैसा कभी नहीं हो सकते।’ सत्ता व शक्ति अपनी बातें कमजोर व गरीब देशों तथा लोगों पर थोपती है। पश्चिमी के देशों की यही नीति एशिया और अफ्रीका के देशों के प्रति रही है। भाषा के माध्यम से वे अपनी शक्ति को इन देशों पर कायम करना चाहते हैं।

भाषा के संदर्भ में जेंडर का प्रश्न हाल के दिनों का सबसे ज्वलंत प्रश्न है। भाषा की अपनी लैंगिक राजनीति होती है। एक ही शब्द पुरुष और स्त्री के लिए अलग मायने रखते हैं। हमारी भाषाएँ पुरुष-लिंग केंद्रित हैं जिसका सीधा संबंध सत्ता से है। भारतीय समाज पुरुष प्रधान समाज ही रहा उसने अपने अनुसार नियम, कानून और भाषा का गठन किया।

भाषा आज केवल संप्रेषण का माध्यम ही नहीं है बल्कि भाषा के साथ सत्ता शक्ति वर्ग जैसी कई अवधारणाएं जुड़ी हैं। भाषा की राजनीति काफी पुरानी है। इसी भाषा की राजनीति के कारण ही एक वर्ग हमेशा से इसका लाभ लेता रहा। हिंदी के कवि धूमिल ने इसीलिए भाषा के संदर्भ में लिखा कि- भाषा उस तिकड़मी/दरिन्दे का कौर है/जो सड़क पर और है/संसद में और है। खास वर्ग और आम वर्ग की अपनी-अपनी भाषा होती है। जो भाषा अभिजात्य वर्ग या फिर शासक वर्ग की होती है वही साधारण जन व शोषित समुदाय की नहीं होती। साधारण आदमी की भाषा को गंवारू व असभ्य कहकर आज उसकी भाषा को नष्ट किया जा रहा है। इसलिए भाषा विमर्श का यह वर्गीय स्वरूप आधुनिक युग में और ज्यादा जटिल व भयानक हो गया है।

भाषा का मानसिक व्यवहार उसकी सामाजिक संरचना से तय होता है। भाषा के संदर्भ में जेंडर का प्रश्न हाल के दिनों का सबसे ज्वलंत प्रश्न है। भाषा की अपनी लैंगिक राजनीति होती है। एक ही शब्द पुरुष और स्त्री के लिए अलग मायने रखते हैं। हमारी भाषाएँ पुरुष-लिंग केंद्रित हैं जिसका सीधा संबंध सत्ता से है। भारतीय समाज पुरुष प्रधान समाज ही रहा उसने अपने अनुसार नियम, कानून और भाषा का गठन किया। भवदेव पाण्डेय ने स्त्री और दलित-अस्मिता-विमर्श के तर्कों के आधार पर हिन्दी भाषा और उसके लेखकों के सवर्णवादी और पुरूषवादी चरित्र को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘इतिहास साक्षी है कि संस्कृत और हिन्दी के कोशकारों ने दलित और स्त्री-वाचक शब्दों के साथ भारी छल किया है। एक तो ये सभी कोशकार पुरूष-दंभ से आक्रांत थे, दूसरे सवर्णवादी संकीर्ण मानसिकता के भी शिकार थे। यह इनका दोष नहीं था क्योंकि दूसरे शास्त्रवादियों की तरह ये रूढ़िगत और अलगाववादी सामाजिक संरचना के ही उत्पाद थे। इन लोगों ने साहित्य, धर्म, दर्शन और अध्यात्म पर तो हजार-हजार वितंडाएं खड़ी कीं, लेकिन दलितों और स्त्रियों से सम्बद्ध शब्दार्थों में न कोई मौलिक कल्पना की, न ही समाज के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन को दृष्टि में रखकर नव अर्थांतरण ही किया। सवर्णवादियों के लिए शूद्र केवल शूद्र थे और पुरुषों के लिए और औरत महज औरत थी। शूद्रों को अपमान और स्त्रियों को संभोग के खूंटे से बांधकर रखने के सांस्कृतिक अधिकार इनके पास सुरक्षित थे।’

‘भाषा की सत्ता और उसकी राजनीति का खेल वास्तव में रोजी-रोटी और सुविधा पर अधिकार का खेल है जिसमें कुछ वर्ग अपनी भाषा के बल पर हमेशा लाभ उठाना चाहता है और उसी के दम पर विशिष्ट बना रहना चाहता है। इसके लिये वह हर तरह के हथकंडे अपनाता है।’

भाषा को संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। लेकिन भाषा में जब गुलामी व दासत्व का भाव हो तो ऐसे में संस्कृति के साथ उसका कैसा संबंध होता है देखने वाली बात है। अंग्रेजों ने हमारे देश के साथ-साथ भाषा को भी गुलाम बनाया। भाषा की उस गुलामी को हम आज भी ढो रहे हैं। सत्ता कभी नहीं चाहती की साधारण व्यक्ति उसकी बराबरी करे या उसके नियमों की अवहेलना करे। इसलिए सत्ता हमेशा भाषा के ऐसे नियम लागू करती है जिन्हेंं चाहे अनचाहे हम ढोते हैं। भाषा का वर्गीय चरित्र भी काफी कुछ सत्ता के भाषिक व्यवहार से स्पष्ट होता है। एक मजदूर की वही भाषा नहीं होती जो उसके मालिक की होती है। सुधा सिंह ‘अन्सर्ट फिशर’ को रेखांकित करके लिखती हैं कि- ‘भाषा का जन्म श्रम की सामूहिक प्रक्रिया में हुआ है।’ अजीब विरोधाभास है। आज भाषा का श्रम से वैसा कोई रिश्ता नहीं है। भाषा का आज एक वर्ग है। यह वर्ग आधुनिक युग में संचार क्रांति व वैश्वीकरण के बाद और अधिक विस्तृत रूप में उभरा है। जिस श्रम से जिस भाषा का जन्म हुआ था आज वो लुप्त हो चुकी है। आज सारा खेल सत्ता व शक्ति का है- ‘भाषा की सत्ता और उसकी राजनीति का खेल वास्तव में रोजी-रोटी और सुविधा पर अधिकार का खेल है जिसमें कुछ वर्ग अपनी भाषा के बल पर हमेशा लाभ उठाना चाहता है और उसी के दम पर विशिष्ट बना रहना चाहता है। इसके लिये वह हर तरह के हथकंडे अपनाता है।’ भाषा के इस वर्गीय चरित्र पर रामविलास शर्मा भी लिखते हैं। वह प्राचीन से लेकर आधुनिक भारत में इस वर्गीय भाषा चरित्र का अवलोकन करते हैं- ‘भाषा समूचे समाज की संपत्ति है। स्तालिन ने भाषा का आधार मानने वालों का सही खंडन किया है। इसका यह अर्थ है कि भाषा के विकास में वर्गों की महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती। सामंतों, व्यापारियों, विद्वानों की सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं के कारण ही संस्कृत और लैटिन का परिनिष्ठित रूप संभव हुआ है और इन भाषाओं का अखिल भारतीय और अखिल यूरोपीय व्यवहार होता था। सामंती व्यवस्था के ह्रास और व्यापारियों द्वारा नए पूंजीवादी संबंधों के प्रसार के साथ मास्को, लंदन, पैरिस और दिल्ली की बोलियों के आधार पर रूसी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी और हिन्दी भाषाओं का जातीय भाषाओं के रूप में गठन हुआ था। इस प्रक्रिया में पूंजीपति वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। साथ ही मजदूर वर्ग, मध्य वर्ग और शहरों के संपर्क में आने वाले किसान भी इस जातीय भाषा को अपनी बोलियों के साथ काम में लाकर उसके प्रसार में सहायता करते हैं और बहुधा अपनी बोलियों के तत्व मिलाकर उसे समृद्ध करते हैं।’ दरअसल भाषा के जिस वर्ग को शर्माजी नकारते हैं आधुनिक युग में खासकर नवउदारवादी युग में भाषा का वही वर्गीय चरित्र महत्वपूर्ण हो गया। आज हमारे देश में ऐसे ही प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं जो हमारी भाषा का परिष्कार कर रहे हैं। परर्सनॉल्टी डेवलपमेंट के नाम पर हमे ‘यस बॉस’ Yes Boss की भाषा सीखा रहे हैं। यह यस बॉस वाली भाषा खास एक वर्ग की भाषा है। इसलिए आधुनिक समाज में भाषा के वर्गीय चरित्र को नकारा नहीं जा सकता है। आज सभ्य व संभ्रान्त वर्ग की अपनी भाषा है, तो मजदूर किसान व गांवों के लोगों की भी एक अपनी भाषा है जिसे तथाकथित सभ्य लोग हेय दृष्टि से देखते हैं।

इसलिए भाषा का अध्ययन अब शब्द और अर्थ से आगे किया जाना चाहिए। विनोद शाही ने भाषा संबंधी एक लेख की शुरुआत इन पंक्तियों से की है जिनसे में इस लेख का अंत कर रहा हूँ। भाषा की तिकड़मी चाल और राजनीति को ये पंक्तियाँ बहुत सरलता से व्यक्त करती हैं– हमारे बोल सकने से/सभी डरते हैं/इसलिए वे हमें भाषा देते हैं/ ताकि हम वही बोलें/ जो उनकी भाषा में मुमकिन हो।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।) 

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