
(गुरु पद्मसंभव की तिब्बत यात्रा से पूर्ण मध्य एशियाई बौद्ध समाज में कई मत-मतांतरों का जन्म हो चुका था. ह्वेनसांग मूलत: चीन के तांग राजवंश का बौद्ध धर्म गुरु था. चीन में तब महायान और हीनयान दो मुख्य बौद्ध धाराएं थीं. जीवन शाश्वत है या नहीं, इस विषय पर इन दोनों में गहरा मतभेद था. पुनर्जन्म तथा ऐसे अनेकानेक पक्षों पर गहराते मतभेदों को स्पष्ट करने की मंशा लेकर ह्वेनसांग बौद्ध की जन्मस्थली भारत की यात्रा पर निकला. ह्वेनसांग नंगा पर्वत की कोख में बसे चित्राल-उदयन से लेकर बल्तिस्तान, तक्षशिला, पुंछ, राजौरी, जम्मू, कुल्लू तक और वर्तमान उत्तराखंड के पाद प्रदेश से लेकर उत्तर पूर्व हिमालय में बसे कामरूप शासक भाष्करबर्मन के दरबार तक पहुंचा. उत्तर भारत में तब हर्षवर्धन का साम्राज्य था. हर्षवर्धन की राजधानी में उसे पूर्ण राजकीय सम्मान मिला. भारत में रहकर उसने बौद्ध धर्म कें सभी मत्वपूर्ण ग्रंथ पढ़े एवं उनका विशाल संग्रह वह अपने साथ चीन ले गया. सिंधु पर करते समय कई महत्वपूर्ण पुस्तकें बह भी गई थीं. ह्वेनसांग की भारत यात्रा एक धार्मिक यात्रा थी. वह बौद्ध धर्म की मूल जानकारी प्राप्त कर चीन में फैले धार्मिक संशयों का निकारण करना चाहता था. उसकी यात्रा के समय उत्तरी भारत में बौद्ध धर्म का पर्याप्त सम्मान था. पूरे यात्रा पथ में उसे धर्मसंघ, चौर्टन, स्तूप आदि मिलते गये और मठों में ध्यान मग्न बौद्ध भिक्षु भी. गौतम बुद्ध अपने कई जन्मों में जहां भी पहुंचे, उन सभी स्थानों तक पहुंचने की कोशिश ह्वेनसांग ने की. जलवायु व धरी की बात भी करना वह नहीं भूला. यहां तक कि ह्वेनसांग के मार्ग में आने वाली नदियों, पर्वतों एवं स्थानों के नाम भी उसने चीनी भाषा में दे डाले. यहां हमने ह्वेनसांग की उस महान यात्रा में से केवल पश्चिमी हिमालय को पकड़ने की कोशिश की है. दूरी के लिए ह्वेनसांग ने ली का प्रयोग किया है, जिसे हमने मील में बदला है. 30 ली बराबर 5 मील होता है.)
उचांगना (उदयन )
उदयन पांच हजार ली (1000 मील) के गोलाकार घेरे में फैला पर्वतों-पठारों एवं दल-दल घामिटयों का क्षेत्र है. यह मुख्यत: सेब की खेती का क्षेत्र है, जहां घने जंगल हैं, फूल-फलों से लदे वृक्ष हैं, सोने व लोहे की खदानें हैं, जहां कठोर शीत व गर्मी दोनों ऋतु असहनीय हैं. यही धरती गुरु पद्मसंभव की जन्म स्थली रही है. यहां के निवासी मृदुभाषी, ज्ञान पिपासु एवं बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं. स्वात नदी के दोनों तटों पर लगभग 14 सौ मठ हैं, जहां कभी 18 हजार बौद्ध भिक्षु रहते थे. परंतु अब अधिकांश वीरान हैं. ये बौद्ध भिक्षु मंत्रोचरण में लीन पुरानी विनय विचारधार के पांच विचार स्तम्भों- सर्वस्ती यादिन, धर्मगुप्ता, महिससका, कस्यपिया व महासंघी- का अनुकरण करते हैं. स्वात के किनारे लगभग 10 मंदिर भी स्थित हैं. इस तट पर बसे 4-5 बड़े शहर हैं. बायें तट पर स्थित मंगलापुरा अधिकांश राजाओं की राजधानी रही है. यहां से 1 मील की दूरी पर एक बड़ा स्तूप है. बोधिसत्व की मान्यताओं में बुद्ध जब यहां शांति ऋषि के रूप में रहे थे तो कलि राजा ने उनके हाथ यहीं पर काट डाले.
बुद्ध ने अपने शरीर की एक हड्डी को काटकर निकाले गये रस से सत्य धर्म का नियम लिखा था. यहीं वह सानीलोसी घाटी स्थित है, जिसमें समूा नाग बनकर बिछ गये बुद्ध तथागत के ही एक रूप सकरा राजा ने अपना शरीर काट-काटकर बीमार व भूख से मरते लोगों को बचाया था.
मंगलापुरा से उत्तर पूर्व की ओर 50-52 मील की दूरी पर नागा अपलाला नाम का एक पर्वत है (जो संभवत: वर्तमान नंगा पर्वत होगा). स्वात नदी यहीं से निकलती है. यह मान्यता है कि कश्यप बौद्ध के समय यह नाग किंगकी या गंगी नाम से मानव रूप में जन्मा था. उसे जहरीले ड्रैगन (परदार नाग) के प्रभाव को समाप्त करने की अद्भुत दैवीय शक्ति प्राप्त थी. स्थानीय जनता उसे वर्ष भर के लिए अनाज भेंट करती थी. कुछ वर्षों बाद जब लोग अनाज देना भूल गये, यही किंगकी मनुष्य एक ड्रैगन में बदल गया. जिसके मुंह से उगलती आग ने सारी फसल समाप्त कर दी. तब भगवान बुद्ध ने शक्य तथागत रूप में अवतरित होकर इन्द्र के वज्र की सहायता से इस ड्रैगन राजा को वस में किया. अभी भी जब हर बारहवें वर्ष सफेद फेन उगलती यह स्वात नदी कहर बरपाती है तो इसे ड्रैगन राजा का कोप माना जाता है. नंगा पर्वत में स्थित बुद्ध के पद चिह्नों को देखने दूर-दूर से लोग आते हैं.
मंगलापुरा से 80 मील दक्षिण में पहुंचने पर हिला (हिलो) पर्वत पड़ता है. इसी बीच बोधिसत्व जीवन लीलाओं में प्रख्यात वह महा वन क्षेत्र पड़ता है, जहां बुद्ध सर्वदत्त राजा के रूप में कभी रहते थे. उन्होंने स्वयं को अंधा कर एक ब्राह्मण के सुपुर्द किया था. यहीं उन्होंने देवों व मानवों को अपने पूर्व जन्म का इतिहास सुनाया था. यहीं बुद्ध ने अपने शरीर की एक हड्डी को काटकर निकाले गये रस से सत्य धर्म का नियम लिखा था. यहीं वह सानीलोसी घाटी स्थित है, जिसमें समूा नाग बनकर बिछ गये बुद्ध तथागत के ही एक रूप सकरा राजा ने अपना शरीर काट-काटकर बीमार व भूख से मरते लोगों को बचाया था. समूास्तूप इस घाटी में मुख्य बौद्ध तीर्थ है. अशोक द्वारा निर्मित अन्य कई स्तूप भी यहां हैं. तब इस उदयन राज्य का राजा उत्तरसेन था. बुद्ध तथागत के निर्वाण के समय उनके शरीर को इस क्षेत्र के कई राजाओं ने धर्म प्रतीक मान कर आपस में बांट लिया था. कुछ अन्य प्रसंगों में बताया गया है कि बुद्ध ने अपना शरीर 5 यक्षों को सुपुर्द कर दिया था. इसी क्षेत्र में बुद्ध कभी मोरों के राजा बनकर भी रहे थे. इतिहासकार मौर्य वंश का जन्म यहीं से मानते हैं. मंगलापुरा से 10 मील पश्चिम में रोहितिक स्तूप अशोक द्वारा बनाया गया था. इस पूरी धरी का चित्रण भगवान बुद्ध की जातक कथाओं के अनुरूप ही लगता है. इसमें लानपोलू पहाड़ एवं उसमें स्थित ड्रैगन झील से जुड़ी नाग कन्याओं की कहानियां एवं विरुधक राजा द्वारा शाक्य जनजाति को भगाये जाने व एक शक्य युवा के नागकन्या से प्रेम सम्पर्क में आने के विवरण भी हैं. यह नागकन्या शाक्य युवक के प्रभाव से मानव रूप को प्राप्त हुई. उसकी मदद से ही शाक्य युवक ने उदयन के नाग राजा का वध कर उदयन पर अधिकार किया. नागकन्या के मानव रूप प्राप्त कर लेने पर भी जब वह सोती तो उसका सिर पंचमुखी नाग में बदल जाता था. एक दिन उस शाक्य युवक ने नागकन्या के सिर को ही काट दिया. इस कारणवश शक राजवशं के हर सदस्य के सिर में दर्द रहता है. इस शक युवक की मृत्यु के बाद इसके पुत्र ने उत्तरसेन के नाम से उदयन पर राज्य किया.
बोधिसत्व में यह विश्वास किया जाता है कि नाग अपाला का वध करके जब तथागत बुद्ध लौट रहे थे तो वे उत्तरसेन के महल में पहुंचे. राजमाता नागकन्या को उनके प्रवचन सुनकर अपने खोई हुई दृष्टि प्राप्त हुई एवं तथागत ने उन्हें बताया कि तुम्हारा पुत्र उत्तरसेन मेरा ही पुत्र है. उससे कहो कि मैं निर्वाण के लिए अब कुशीनगर जा रहा हूं, जहां शाल वृक्षों की छाया में प्राण त्याग दूंगा. तुम्हारा पुत्र भी शेष राजाओं की तरह मेरे शरीर के अवशेष एकत्र कर यहां लाये. उत्तरसेन ने यही किया.
मुंगकियाली के उत्तर पश्चिम में सिंधु की संकरी अंधकारमय घाटी है. रास्ता चट्टानी एवं तीखा है, जिसे मैंने कई बार रस्यिों की मदद से पार किया तो कई बार लोहे की चेन से बने झूला पुलों से. कई जगह वहा में झूलते हुए ढके पावं पुल थे, जिसके नीचे गहरे में नदी बहती थी. लगभग 200 मील चलकर मैं तालीलो की घाटी में पहुंचा. यह दरद जाति का मूल क्षेत्र है, जहां दारिल नदी बहती है. फाहियान ने इस घाटी को तोली के नाम से पुकारा है. यहां 100 फुट लंबी लकड़ी की बन मैत्रेय बोधित्सव की मूर्ति देखी, जिसे अरहतमध्यान्तिक नाम के एक मूर्तिकार साधु ने बनाया था. विश्वास किया जाता है कि यह मूर्ति तीन बार स्वर्ग की यात्रा कर चुकी है. तालिलो घाटी के पूर्व में कई नदी घाटियों को पार करते सिन्धु नदी के सहारे चलकर मैं पोलुलो अर्था बेलोर (बल्तिस्तान) पहुंचा.
पोलुलो (बल्तिस्तान)
बलित्स्तान की परिधि 1000 मील है. चारों ओर से बर्फीले पहाड़ों से घिरी, पूर्व-पश्चिम में फैली एवं उत्तर-दक्षिण से संकरी है बल्सितान घाटी. यहां गेहूं तथा दालें पैदा होती है. सोने तथा चांदी की खानें भी यहां हैं. यहां से सोने की आपूर्ति अन्य क्षेत्रों को होती रही है. जलवायु बहुत सर्द है. लोग उग्र स्वभाव के हैं. सहिष्णुता का इनके स्वभाव में सर्वथा अभाव है. ये सख्त एवं तुच्छ मानसिकता वाले हैं. अपने हाथ के बुने ऊनी कपड़े पहनते हैं. इनकी भाषा भारत से भिन्न किन्तु लिपि मिलती-जुलती है. बल्तिस्तान में तब एक सौ संघ थे, जिसमें लगभग एक हजार बौद्ध भिक्षु रहते होंगे. ज्ञान एवं धर्म के प्रति इनका कोई झुकाव नहीं था. आचरण में सर्वथा कच्चे थे. बल्तिस्तान छोड़कर मैं गांधार की राजधानी उदाखण्ड भी गया परन्तु फिर सिन्धु पार कर तक्षशिला आ पहुंचा. सिन्धु की चौड़ाई आधा मील थी. कोई भी यात्री नदी पार करते समय अपनी महत्वपूर्ण सामग्री सिन्धु की लहरों को समर्पित कर देता था. सिन्धु के हिचकोले किसी भी नाव को डुबो देते थे (स्मरण रहे कि ह्वेनसांग ने भी अपने साथ भारत से एकत्रित किए महत्वपूर्ण ग्रन्थ वापसी में सिन्धु में खो दिए थे.)
तचासिलो (तक्षशिला)
तक्षशिला राज्य 40 मील तथा राजधानी क्षेत्र 2 मील की परिधि में फैला है. राजपरिवार लगभग समाप्त हो गया है. अत: राजकीय अधिकारी सत्ता के लिए लड़ते रहते हैं. तक्षशिला कभी कपिसा राज्य के अधीन था. अब कश्मीर के अधीन है. तक्षशिला की धरती नदियों से पूर्ण सिंचित, फल-फूलों से लदी तथा उपजाऊ है. जलवायु भी शीतोष्ण है. निवासी जीवन्त, साहसी तथा बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख प्रतीकों को मानते हैं. यद्यपि अब बौद्ध विहार वीरान हैं तथा बौद्ध भिक्षु बहुत कम. यहां महायानी बौद्ध रहते हैं. तक्षशिला के 14 मील उत्तर में नागराजा इलापत्र का तालाब है. 100 कदम गोलाकार आकृति लिए कमल के फूलों से भरे साफ पवित्र जल के इस तालाब का जिक्र चीनी बौद्ध साहित्य में बहुत मिलता है. यह वही नाग है, जो तक्षशिला से बनारस तक फैला, महाभारत व विष्णु पुराण की कथाओं में वर्णित है. यह नाग कश्यप का पुत्र था. बौद्ध साहित्य में कश्यप बौद्ध के समय यह भिक्षु नाग के रूप में आता है. इस ताबाल से 6 मील दक्षिण पूर्व में अशोक का बनाया एक स्तूप भी है, जहां शाक्य तथागत बुद्ध ने यह भविष्यवाणी की थी कि यहां उन चार बहुमूल्य खजानों में से एक प्राप्त होगा जो इस पृथ्वी के सम्राट मैत्रिय ने भेंट किए हैं. तक्षशिला शहर से दो-ढाई मील की दूरी पर अशोक द्वारा बनाया दूसरा स्तूप है. यहीं तथागत बुद्ध ने बोधिसत्व प्राप्त किया था. तब वह यहां चन्द्रप्रभा राजा के रूप में राज्य करते थे. उन्होंने बोधिसत्व प्राप्त करने के लिए अपना सिर काट डाला था. माना जाता है कि 1000 जन्मों तक वह अपना सिर यहीं पर काटकर अर्पित करते रहे. इस स्तूप को कटे सिर वाले स्तूप (अथवा तक्षशिरा) के नाम से जाना जाता है. तक्षशिरा से नाम बदलकर तक्षशिला हो गया. यही वेद सूत्रों के संस्थापक कुमार लब्ध की जन्मस्थली भी रही है. शहर से दक्षिण-पूर्व में एक ऊंचा स्तूप है, जहां तक्षशिला के राजकुमार कुणाल की आंखें निकाल दी गयी थीं. कुणाल अपनी सौतेली मां के षड्यंत्र का शिकार हुआ था. तक्षशिला का राजवशं जब समाप्त हो गया तो उसे अशोक के आक्रमण के लगभग 50 वर्ष बाद मगध के राजा बिन्दुसार ने भी तक्षशिला पर आक्रणम किया था परन्तु वह सफल नहीं हो सका. अशोक सम्राट बनने से पूर्व पंजाब के प्रशासक के रूप में तक्षशिला में रहा था. कुणाल अशोक का ही पुत्र माना जाता है. कुणाल की सौतेली मां ने राजा द्वारा कुणाल की आंखें निकलवा देने का शाही आदेश राजा की अनुपस्थिति में निकाला था. इसका पालन करने स्वयं कुणाल ने एक चाण्डाल बुलाकर अपनी आंखें निकलवा दी थीं. तक्षशिला के उस स्तूप के पास के गांववासी कुणाल के पितृधर्म एवं सत्य वचन की मिसाल अभी भी कायम रखे हुए हैं. यह भी विश्वास किया जाता है कि उस स्तूप के पास जाकर अंधे को आंखें मिल जाती हैं. पूर्णिमा की रात्रि यह स्तूप स्वर्णिम आभा से दैदीप्यमान हो जाता है. स्वर्ग से संगीत एवं परियां उतरकर उस स्तूप को स्वर्ग-सा संवार देती हैं.
राजा अशोक को अपने पुत्र के अंधे हो जाने की जानकारी तब मिली जब कुणा भटकते-भटकते अपने पिता की राजधानी पहुंचा. रात्रि के अंधेरे में वह महल के नजदीक जाकर दर्दभरे स्वर में रोने लगा. राजा को जब उसका करुण रुदन सुनाई पड़ा तो उसने अपने सेवकों को उसे बुलाने भेजा. कुणाल को जब राजा के सम्मुख प्रस्तुत किया गया तो राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. कुणाल से उस झूठे आदेश को सुनकर राजा ने तुरन्त रानी व उन मंत्रियों को मौत की सजा सुनाई, जो इस षड्यंत्र में सम्मिलित थे. कुणाल की आंखें भी गया को बौधवृक्ष की छाया में स्थित एक महान संघधर्मी की दया से वापस मिल गई. कहा जाता है कि घोष नामक उस महान संघधर्मी ने दूर-दूर से जनता को बुलाकर एक बड़ी धार्मिक सभा का आयोजन किया. उसमें उसने बोधिसत्व के मूल धर्म का पाठ किया. जिसे सुनकर सभी श्रद्धालुओं की आंखों से अश्रुधारा बल निकली. एक बड़े बर्तन में उन आंसुओं को जमा कर कुणाल की आंखें उस अश्रुजल से धोई गई. इस तरह कुणाल की दृष्टि वापस लौट आई.
संघ होपुलो (सिम्हापुर)
मेरा अगला पड़ाव तक्षशिला से लगभग 140 मील दक्षिण-पूर्व में स्थित सिम्हापुर राज्य था. सिन्धु नदी इस राज्य की पश्चिमी सीमा बनाती है. इस राज्य का कोई निश्चित राजा नहीं है. यह राज्य कश्मीर का ही एक हिस्सा है. निवासी बहुत साहसी एवं हिंसक प्रवृति के हैं. सिम्हापुर शहर से 9 मील दक्षिण में अशोक का बनाया हुआ एक स्तूप है. उसके आस-पास 10 तालाब हैं, जिसमें नाग एवं मछलियां रहती हैं. एक संघ भी हे जो अब वीरान पड़ा है. यही पर दिगम्बर जैन का मन्दिर है्. निकट में एक हिन्दू मन्दिर भी है. इस स्थान से 40 मील दक्षिण-पूर्व पहुंचने पर मनिक्याला बौद्ध स्तूप पड़ता है, जहां बुद्ध ने महासत्व कुमार बनकर एक भूखे चीते को अपना शरीर खिला दिया था. इस स्थान पर उगने वाले सारे पेड़-पौधे लाल रंग के होते हैं तथा जमीन के भीतर से लाल रंग की धातु निकलती है. यहां लगभग 100 महायान संघधर्मी रहते हैं. अशोक के बनाए हुए स्तूप स्थान-स्थान पर हैं. दस मील पूर्व में सुनसान जंगल के बीच एक संघ बना है. उसमें 200 भिक्षु रहते हैं. माना जाता है कि बुद्ध ने यहां एक यक्ष को मांस खाने से रोका था. यहां से 100 मील दक्षिण-पूर्व चलकर उरसा राज्य पड़ता है. यह क्षेत्र भी कश्मीर राज्य के अधीन है. भूमि यद्यपि कृषि के अनुकूल लगती है, बर्फ भी कम है परंतु फलदार वृक्ष कम ही दिखाई दिए. निवासी स्वभाव से सख्त एवं ठग हैं. ये बौद्ध धर्म में भी विश्वास नहीं करते. यद्यपि अशोक द्वारा बनाया एक स्तूप यहां पर भी है. कुछ संघधर्मी भी इसमें रहते हैं. यहां से लगभग 200 मील दक्षिण-पूर्व चलकर मैं कश्मीर पहुंचा.
कियासिमिलो (कश्मीर)
कश्मीर राज्य की परिधि 1400 मील है. चारों ओर से ऊंचे बर्फीले पर्वतों से घिरा होने के कारण यह राज्य बाह्य आक्रमण से सदैव सुरक्षित रहा. महाभारत काल से पूर्व इसे कश्यप पुरा के नाम से जाना जाता था. राजधानी उत्तर-दक्षिण दिशा में बहने वाली नदी के पश्चिमी तट पर है (उत्तर-दक्षिण दिशा में बहने वाली नदी जोजिला से आने वाली स्थानीय सिन्धु हो सकती है और प्राचीन राजधानी बांदीपुर). धान की खेती, फलों से लदे बगान, नाग तथा अश्व जैसे जीवन और औषधीय पौधों से लदी कश्मीर की धारती बहुत रिझाती है. लोग कहते हैं कि कश्मीर घाटी की रक्षा नाग करता है. अत: यहां के निवासी अन्य क्षेत्रों से श्रेष्ठ, सुंदर, ज्ञान पिपासु परंतु लालची होते हैं. कठोर शीत से बचने को ये चमड़े के वस्त्र पहनते हैं तथा पतले सार्फ से सिर ढकते हैं. पूरी घाटी में बौद्ध धर्म मानने वाले रहते हैं. यहां 100 संघ मठ हैं, जिसमें 5000 भिक्षु रहते हें. घाटी में अशोक द्वाना बनाए 4 स्तूप हैं. यहां की झीलें प्राचीन नाग झील का हिस्सा हैं. गौतम बुद्ध जब उदयन से लौट रहे थे तो उनहोंने अपने शिष्य आनन्द से कहा कि मेरे निर्वाण के बाद मध्यान्तिक इस घाटी में शासन करेगा और यहां बौद्ध धर्म का प्रचार कर इन निवासियों को दीक्षा देगा.
गौतमबुद्ध के निर्वाण के 50 वर्षों बाद आनंद का ही शिष्य मध्यान्तिक बुद्ध की आज्ञानुसार इस घाटी में आया. सारी घाटी में तब नाग झील थी. पर्वत शिखर पर एक शुष्क वृक्ष की ठूंठ में बैठे मध्यान्तिक ने नाग से इस घाटी में केवल अपने घुटने टेकने लायक स्थान मांगा. नाग ने झील के बीच में जमीन को सुखाकर मध्यान्तिक को बैठने की अनुमति दी. अपनी दैवीय शक्ति से मध्यान्तिक ने अपने शरीर का आकार बढ़ाते-बढ़ाते पूरी झील को घेर लिया तथा नाग को उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित एक अन्य झील में शरण लेने को बाध्य किया. घाटी में 500 मठ स्थापित किए एवं बौद्ध भिक्षुओं की सेवा के लिए पड़ोसी राज्यों से सर्वथा जंगली जीवन जीने वाले पिछड़े लोगों को खरीदकर लाया गया. जिन्हें कृतिया कहा जाने लगा. मध्यान्तिक के 50 वर्ष बाद कश्मीर अशोक के अधिकार में आया. अशोक ने सभी मठों एवं बौद्ध भिक्षुओं को राजकीय संरक्षण प्रदान किया. अशोक के समय ही कश्मीर में महादेव नाम का एक विद्वान भिक्षु आया. माना जाता है कि अशोक द्वारा 500 मठ स्थापित कर कश्मीर बौद्ध भिक्षुओं को भेंट स्वरूप दिया गया था.
अशोक के 400 साल बाद गान्धार नरेश कनिष्क का अधिकार कश्मीर पर हो गया. इस बीच बौद्धधर्म में मत-मतांतरों का जन्म हो चुका था. जितने भिक्षु उतने विचार. कनिष्क ने झेलम के तट पर एक धर्म सभा आयोजित की. यह समा सप्तपर्ण गुफा के राजगृह में सम्पन्न हुई. 6 मुख्य आध्यात्मिक शक्तियों और 3 निर्माण रूपों को प्राप्त हो चुके भिक्षुओं को कश्मीर घाटी में रहने की आज्ञा जारी कर कनिष्क स्वयं यहां की गर्मी से पीडि़त हो अपनी राजधानी गंधार लौट गया. जहां धर्म सभा आयोजित हुई. वसुमित्र ने इसी मठ में अभिधर्मा विभाशा शास्त्र की रचना की. उपदेशशास्त्र एवं सुत्तपिटक की रचना हुई. कनिष्क की मृत्यु के बाद कृतिया जाति ने एक बार फिर कश्मीर पर अधिकार कर बौद्ध धर्म को नष्ट कर दिया. कश्मीर में बौद्ध धर्म का विनाश हुआ देख इसके एक पड़ोसी राज्य हिमताल के शाक्य राजा ने 3000 सैनिकों के साथ कश्मीर पर आक्रमण किया एवं कृतिया राजा तथा उसके मंत्रियों का वध कर फिर से बौद्धधर्म की स्थापना की. बौद्ध भिक्षुओं को कश्मीर घाटी भेंट कर पश्चिमी दर्रे से होते हुए शाक्य राजा अपने देश वापस चला गया.
यह माना जाता है कि कृतिया, जो मूलत: यक्ष जाति का राजा था, ने फिर से कश्मीर में अधिकार किया. अभी कश्मीर के मठ वीरान हैं. श्रीनगर शहर शहर राजा प्रवरसेन द्वारा स्थापित किया गया था. 2 मील दक्षिण-पूर्व में यक्षों की पुरानी राजधानी थी जिसे पुराना अधिष्ठान कहा जाता है. यहां एक स्तूप है, जिसमें गौतम बुद्ध का डेढ़ इंच लम्बा दांत सुरक्षित रखा हुआ है. कृतिया राजा के समय, जब बौद्धमठ ध्वस्त किए जा रहे थे, यह दांत हाथियों द्वारा एक जंगल में छुपा दिया गया. बौद्ध धर्म के पुन: स्थापित होने पर हाथियों ने यह दांत बौद्ध भिक्षुओं के पुन: सुपुर्द कर दिया. कश्मीर के बौद्धमठों में कई महत्वपूर्ण क्रन्थ लिखे गए, जिसमें न्यायानुसारशास्त्र एक महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थ है. बड़े बौद्ध भिक्षुओं, अरहतों के शरीरावशेष जिन स्तूपों में सुरक्षित थे उनकी पूजा जंगली जानवर एवं वन निवासी भी करते थे (लगता है कि हिम मानव या उससे मिलती-जुलती कोई जाति ह्वेनसांग को कश्मीर में मिलने का विश्वास था). यहां एक ऐसा भीमकाय बौद्धभिक्षु भी है, जो हाथियों के बराबर भोजन करता है. यह अरहत भिक्षु पूर्व जन्म में एक हाथी ही था जो आशोक की राजधानी मगध से धर्मग्रन्थों का बड़ा बोझ कश्मीर घाटी तक ले आया था. उसके इस सुकृत्य के कारण इस जन्म में वह मानव रूप में जन्मा. विश्वास है कि इस भिक्षु ने हवा में उड़ते हुए अपने शरीर को त्यागा था. जिस स्थान पर उसके अवशेष गिरे वहां स्तूप बना हुआ है. श्रीनगर से 40 मील उत्तर पश्चिम में मेलिन नाम का एक बौद्धविहार था, जहां विभाषा शास्त्र पर नई टिप्पणी लिखी गई. श्रीनगर से 30 मील पश्चिम में एक बड़ी नदी है. इसकी दक्षिणमुखी पर्वत ढलान पर बौद्ध धर्म की एक प्रमुख विचाराधारा महासंघिका का मठन था, जहां 100 बौद्धभिक्षु रहते थे. यहीं पर फोतिला या बोधिला नाम के भिक्षु ने महासंघिका के सिद्धांतों पर आधारित तत्वसंचयशास्त्र की रचना की, जिसे चीनी में सिचिनलुंग कहा जाता है (श्रीनगर-लेह मार्ग में सर्वाधिक ऊंचा फोतिला नाम का एक दर्रा भी है).
पुंछ (पुन पुछो) तथा राजौरी (होलोसिपुलो)
कश्मीर से 140 मील दक्षिण-पश्चिम चलकर मैं पुंछ पहुंचा. पश्चिम में झेलम, उत्तर में पीर पंजाल एवं पूर्व में राजौरी राज्य से घिरा लगभग 400 मील की परिधि में फैले पुंछ को तब कश्मीर पुंत कहते थे. कई नदियों से लाई गई मिट्टी की उपजाऊ धरती, यहां पर मौसम में फसलें उगायी जाती हैं, यहां गन्ने की प्रचुर खेती होती है. सेब यहां नहीं होता. जलवायु गर्म एवं आर्द्र है. निवासी बहादुर, सच बोलने वाले एवं बौद्धधर्म के अनुयायी हैं. सूती वस्त्र उनका पहनावा है. यहां 5 बौद्ध बिहार थे परंतु अब वीरान हैं. एक चमत्कारिक स्तूप है. स्थानीय शासक कोई नहीं. यह क्षेत्र कश्मीर के अधीन है.
राजौरी या राजापुरी 800 मील की परिधि में फैला चारों ओर से पहाड़ों, नदियों से घिरा हुआ है. जलवायु तथा उपज पुंछ की तरह ही है. निवासी बहुत फुर्तीले एवं जल्दबाज हैं. यह राजय भी कश्मीर के अधीन है. यहां 10 बौद्धविहार हैं, जिनमें इक्के–दुक्के भिक्षु रहते हैं. यहां हिन्दू मंदिर भी है. मेरे संपर्क में पेशावर के सुदूर उत्तर-पश्चिम प्रांत उदयना से तक्षशिला, मंगलापुरा से कश्मीर तथा पुंछ व राजौरी तक की यात्रा में जितने भी निवासी आए उन सबके विषय में आम धारणा था कि ये डरावने, गुस्सेबाज, अप्रियभाषी, व्यवहार में कटु एवं कच्चे हैं.
गुर्जरों का शिसकिया या टक्का देश
पूर्व में व्यास या विपाशा से पश्चिम में राजौरी के बीच दो हजार मील की परिधि में फैला टक्का देश गुर्जर साम्राज्य एक हिस्सा था. यह चिनाव के तट पर रहने वाली टक्का जनजाति का देश है. इसका प्रभाव कभी पूरे पंजाब में था. राजौरी से दो दिन चलकर चिनाव पर करता हुआ मैं तीसरे दिन जम्मू (जम्बू या जयपुरा) पहुंचा. चौथे दिन सकल पहुंचा. यहां की धरती खूब उपजाऊ है. चावल की सम्पन्न खेती के रूप में ही यह क्षेत्र प्रख्यात नहीं था बल्कि सोने, चांदी, तांबे, लोहे एवं अभ्रक की मिश्रित धातु ‘तिवोई’ के लिए भी विख्यात है. यह ऊष्ण जलवायु का क्षेत्र है. जहां चक्रवात आते हैं. (संभवत: ह्वेनसांग भूमध्य सागर से आने वाली पछुआ हवाओं को चक्रवात समझ बैठा था). निवासी स्फूर्त एवं हिंसक प्रवृति के तथा कटु भाषा का प्रयोग करते हैं. ये सफेद सूती वस्त्र पहनते हैं. बौद्धधर्म के अनुयायी यहां कम है. केवल पांच संघ हैं जबकि कई सौ मंदिर एवं पुण्यशालाएं (धर्मशाला) है. इन पुण्यशालाओं में यात्रियों को भोजन, दवा तथा अन्य आवश्यक चीजें मिलती हैं.
मार्ग में सकल नाम का एक स्थान भी मिला (संभवत: यह कनिघंम द्वारा बताया गया सांगलावाल टिब्बा हो-सं.). इस शहर की बाहरी दीवारें टूट चुकी थीं परंतु बीच में मील भर के विस्तार वाला शहर मौजूद था. कुछ शताब्दियों पूर्व यहां मिहिरकुल नामक राजा था. यह उत्तर भारत में शासन करता था. उसने अपने राज्य से बौद्धधर्म समाप्त करवा दिया था. मगध के राजा बालादित्य ने इसका विरोध किया एवं मिहिरकुल परास्त हुआ. सकल में एक संघ तथा सौ बौद्धभिक्षु मिले, जो हीनयान के अनुयायी थे. यहां कभी परमार्थ सत्य शास्त्र की रचना हुई थी. यहां अशोक का बनाया एक स्तूप भी है, जहां बुद्ध ने अपने चार जन्मों में दीक्षा दी थी.
चीनापोती या चीनापति से चिलानतोली या जालंधर तक
सकल (सांकला) से मैं लाहौर भी गया था. वह राज्य रावी और सतलज के बीच फैला था (कनिंघम ने भी अमृतसर से 11 मील उत्तर में चीनागढ़ी नाम के राज्य का उल्लेख किया है). यह सम्पन्न खेतीहर क्षेत्र है. संसाधनों से भरा हुआ. जलवायु ऊष्ण एवं आर्द्र हैं. निवासी शर्मीले, उत्साहहीन, आत्मसंतुष्ट एवं शान्तप्रिय हैं. चीनापति में दस संघ एवं आठ हिन्दू मंदिर हैं. यह माना जाता है जब इस क्षेत्र में कनिष्क का राज्य था तो उसके दरबार में चीन की पीली ह्वांगहो नदी के समीप स्थित फान जनजाति के राजकुमार द्वारा भेजे गए सैनिक रहते थे. ये फान सैनिक शीत ऋतु में यहां प्रवास पर रहते थे. तभी से यह चीनापति के रूप में जाना जाता है (कनिष्क स्वयं चीन की सीमा पर स्थित यूची क्षेत्र की कुषाण जनजाति का था). चीनापति से 100 मील दक्षिण पूर्व में सर्वस्तिवद विचारधारा मानने वाले लगभग 300 हीनयान बौद्धभिक्षु रहते हैं. गौतम बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के 300 वर्षों बाद कात्यायन नाम के बौद्ध भिक्षु ने इसी स्थान पर अभिधम्मग्निना प्रस्थानशास्त्र की रचना की थी. यह स्थान घने वृक्षों के कुंज से घिरा है. यहां बुद्ध ने अपने चार जन्मों में आकर ध्यान किया था. बुद्ध के शरीरावशेष यहां बने विशाल स्तूपों में सुरक्षित हैं.
यहां से जलंधर भी गया. जलंधर राज्य का विस्तार उत्तर-दक्षिण दिशा में 160 मील तथा पूर्व-पश्चिम दिशा में 200 मील की लम्बाई में है. राजधानी क्षेत्र दो से ढाई मील में विस्तृत है. जलवायु ऊष्ण, जंगल घने एवं अभेद्य हैं. निवासी बहादुर, स्फूर्तिवान एवं धनी हैं. यहां 50 मठ हैं, जिनमें 2000 भिक्षु रहते हैं. तीन मंदिर एवं लगभग 500 साधु हैं. जलंधर से उत्तर-पूर्वी दिशा लेते हुए गहरी नदी-घाटियों एवं ऊंचे दर्रे को पार करता लगभग 140 मील चलकर मैं क्युलुतो अथवा कुल्लू घाटी पहुंचा.
क्युलुतो (कुल्लू)
कुल्लु प्रांत 600 मील की परिधि में चारों ओर पर्वतों से घिरा है. मुख्य शहर तीन मील की परिधि में फैला (कनिंघम ने कुल्लू की पुरानी राजधानी नगरकोट तथा वर्तमान राजधानी को सुल्तानपुर के नाम से पुकारा है-सं.). कुल्लू घाटी उर्वर एवं सम्पन्न है. वनस्पति घनी, पहाड़ बर्फीले एवं औषधीय पादपों से भरे हैं. फल-फूल प्रचुर मात्रा में हैं. सोना, चांदी, तांब एवं स्फटिक का दोहन होता है. जलवायु बहुत ठंडी है. ओलावृष्टि एवं बर्फ खूब गिरती है. निवासी सामान्यतया घैंघा एवं गोले की बीमारी से ग्रस्त है परंतु न्यायप्रिय व बहादुर हैं. देखने में कठोर एवं डरावने लगते हैं. कुल्लू में 20 संघ हैं, जिनमें एक हजार भिक्षु रहते हैं, जो हीनयान एवं महायान दोनों विचारधाराओं को मानने वाले हैं. कुल्लू में देवताओं के 15 मंदिर हैं. यहां पहाड़ों की कन्दराओं एवं गुफाओं में भी ऋषि एवं भिक्षु रहते हैं. तथागत बुद्ध ने कुल्लू आकर घाटी में एक स्तूप बनाया हुआ है. कुल्लू से लाहुल लगभग 360 मील है परंतु रास्ता बहुत विकट तथा खतरों से भरा है. कई नदी घाटियों एवं पर्वतों को पार कर लाहुल पहुंचा जा सकता है. लाहुल से 400 मील चलकर लद्दाख है.
मेरा अगला पड़ाव यहां से लगभग 200 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित पारैत्र अथवा वैराट था, जिसका विस्तार लगभग 600 मील में था. यहां का राजा वैश्य है, जो शूरवीर व पराक्रमी है. लोग भी दृढ़ प्रतिज्ञ एवं देखने में डरावने लगते हैं. सभी हिन्दू हैं. दस मंदिर हैं. जलवायु ऊष्ण तथा खेती के सर्वथा अनुकूल है. यहां 60 दिन पैदा होने वाली चावल की एक विशिष्ट प्रजाति मिलती है. बैल एवं भेड़ मुख्य पशु हैं. बैराट से मैं मथुरा चला गया था (जिसका विस्तृत वर्णन उसने किया है. मथुरा से उसी मार्ग में पुन: वापस चलकर वह पांडवों की स्थली थानेश्वर पहुंचा. वहां से कुरुक्षेत्र होता हुआ अस्थिपुर, गोकंठ मठ के रास्ते वह जौनसार आया).
स्रुघ्न या जौनसार?
उत्तर में पर्वतों से घिरा, पूर्व में गंगा एवं पश्चिम में यमुना के बीच स्थित स्रुघ्न क्षेत्र सिरमौर से 100 किमी. पूर्व में पड़ता है. मैं इसी रास्ते चलकर कालसी पहुचा. यमुना के पश्चिमी में स्थित वीरान पड़े एक श्हार से भी मैं गुजरा. यहां निवासी सच्चे एवं ईमानदार हैं. मूलत: हिन्दू धर्म में विश्वास करते हैं. यहां 100 हिन्दू मंदिर हैं. हीनयान बौद्धधर्म के भी 5 संघ हैं, जिनमें 1000 बौद्ध भिक्षु रहते हैं. यहां तथागत बुद्ध के पवित्र केश एवं नाखून एक बड़े स्तूप के भीतर सुरक्षित रखे गए हैं. तथागत बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के बाद इस क्षेत्र में फिर हिन्दू धर्म का बोलबाला हो गया था.
कालसी से पूर्व चलकर मैं गंगाद्वार (हरिद्वार) पहुंचा. यहां मैंने मीठे गंगाजल का स्वाद लिया. हिन्दूजन इस पवित्र नदी में नहाकर सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं (ह्वेनसांग ने इसके धार्मिक महत्व को समझकर गंगा का चीनी नामकरण फोसुई किया-सं.). देवा बोधिसत्व नाम का एक भिक्षु श्रीलंका से गंगाद्वार आया था. कुछ विद्वानों ने इसे गुरु नागार्जुन का शिष्य बताया. उसने गंगाजल को अंजलि में भकर श्रीलंका में रह रहे अपने भूखे-प्यासे माता-पिता के कल्याण की कामना की.
मतिपुलो या मतिपुरा
गंगा पार कर मैं मंदौर पहुंचा. चार मील की परिधि में मंदौर नगर तथा 1200 मील की परिधि में फैला था मंदौर साम्रज्य. जलवायु एवं मिट्टी कृषि के उपयुक्त तथा निवासी सच्चे एवं ईमानदार हैं. ये बौद्ध एवं हिन्दू धर्म को मानने वाले हैंऋ यहां शुद्र राजा का राजय है, जो हिन्दू धर्म में आस्था रखता है. लगभग 20 संघ हैं, जिसमें 800 बौद्ध भिक्षु रहते हैं. ये महायान तथा सर्वास्तिवद विचारधारा के मानने वाले हैं. यहां लगभग 50 हिन्दू मंदिर हैं. मंदौर से एक मील नीचे एक छोटा संघ है, जिसमें 50 बौद्ध भिक्षु रहते हैं. यहीं कभी पूर्व में गुणप्रभ नामक विद्वान भिक्षु ने तत्वविभंजनशास्त्र की रचना की थी. इस स्थान से थोड़ी ही दूरी पर एक दूसरा संघ है, जिसमें 200 हीनयान भिक्षु रहते हैं. यहां संघभद्र की मृत्यु हुई थी, जिन्होंने विभाषिकाविचार का विरोध कर अभिधर्मकोष शास्त्र की रचना की थी. संघभद्र के विषय में कई मिथक हैं, जिसमें बौद्धिसत्व से इनका मिलना व भिन्न-भिन्न मत-मतांतरों के संशयों को दूर करना प्रमुख है. संघभ्रद्र की अस्थियां यहीं पर स्तूप बनाकर सुरक्षित रखी गई हैं. इसी मठ के पास विमलमित्र नामक दूसरे बौद्ध विद्वान की भी समाधि है. विमलमित्र कश्मीर का रहने वाला था, जिसने पूरे भारत (ह्वेनसांग इसे पांच भारत कहता है संभवतया भारत तब पांच बड़े साम्राज्यों में बंटा हो) का भ्रमण कर बौद्धधर्म की प्रमुख विचारधाराओं व ग्रन्थों का अध्ययन किया था. उसकी ज्ञान महिमा यह थी कि उसकी मृत्यु के समय धरती ने स्वयं फटकर उसे समाधिस्त कर लिया था.
मतिपुरा से मैं मोयुलो अथवा मूयरा पहुंचा. यह पांच मील में फैला शहर है, जिसके चारों ओर गंगा बहती है. यहां तांबे तथा शीरे की खदानें भी हैं. गंगा के किनारे बहुत बड़ा मंदिर है, जिसके बीच में एक तालाब है, जहां तक कृत्रिम नहर बनाकर गंगा की धारा पहुंचाई गई है. पांचों भारत के लोग इसे ही गंगा का द्वार कहते हैं. यहां प्रतिदिन सैकड़ों-हजारों लोग स्नान करने आते हैं. यहां राजाओं द्वारा बनाई गई पुण्यशालाएं भी हैं, जहां नि:शुल्क भोजन एवं दवा वितरित होती है तथा विधवाओं एवं निराश्रितों को शरण दी जाती है.
पोलो हिमो पुलो या ब्रह्मपुरा
मैं गंगाद्वार से 600 मील की दूरी पर उत्तर दिशा में चलकर ब्रह्मपुर राजय में पहुंचा. इस राज्य का विस्तार 800 मील में है तथा इसका प्रमुख शहर चार मील में फैला है (कनिंघम ने ब्रह्मपुर को ब्रिटिश गढ़वाल तथा कुमाऊं में स्थित माना है परंतु इसकी ठीक-ठीक स्थिति नहीं बताई है. ह्वेनसांग के दिशा एवं दूरी ज्ञान से यह गढ़वाल में रहा होगा-सं.). यहां की मिट्टी उपजाऊ है. फसलें अलग-अलग मौसम में काटी जाती हैं. तांबा एवं स्फटिक खूब मिलता है. जलवायु ठंडी है. निवासी परिश्रमी परंतु असभ्य हैं. कुछ गिने-चुने व्यक्तियों को छोड़कर अधिकांश व्यक्ति व्यवसायी हैं. समाज लगभग जंगली अवस्था में है. मुख्यत: हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं. ब्रह्मपुर में भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं के 10 हिन्दू मंदिर हैं. कुछ लोग बौद्ध धर्म को भी मानते हैं. यहां पांच संघ हैं जिनमें कुछ बौद्ध भिक्षु भी रहते हैं.
ब्रह्मपुर राज्य के उत्तर में बर्फीले पहाड़ों के मध्य में सुवर्ण गोत्र (भोटांतिक) नाम का राज्य है. यहां से उत्तम प्रकार का सोना आता है. पश्चिम से पूर्व दिशा में फैले इस राज्य की शासक महिला है परंतु शासक महिला के पति को भी राजा कहकर पुकारा जाता है. शासन महिला के ही हाथा में होता है. पुरुष युद्ध करते हैं. यह राजय पूर्वी एवं पश्चिमी दो भागों में बंटा है. शीतकालीन गेहूं की एक फसल यहां बोयी जाती है. यहां खूब भेड़ें पाली जाती हैं. घोड़े भी पर्याप्त मात्रा में है. जलवायु अत्यंत ठंडी है. निवासी फुर्तीले एवं स्फूर्तिवान हैं. इस राज्य के पूर्व में तिब्बत तथा उत्तर में खुतान पड़ता है. इस राज्य के पश्चिम में सम्पहा, मलासा (वर्तमान हिमाचल प्रदेश) की सीमा पड़ती है.
कियु-पी-सौंग-ना अथवा गोविषाण
ब्रह्मपुर से 80 मील दक्षिण-पूर्व में आकार लगभग 400 मील में फैला गोविषाण राजय प्रारंभ हो जाता है. राजधानी (वर्तमान काशीपुर) लगभग 3 मील के घेरे में फैली हुई है. यह राज्य प्राकृतिक तौर पर तीव्र ढाल वाले बड़े वर्तत से सुरक्षित है. हमें चारों ओर बराबर अंतर पर झीलों का क्रम मिला. जलवायु मन्दौर की तहर ही है. निवासी शुद्ध विचारों वाले, अध्ययनशील, महेनती तथा ईमानदार हैं. वे सभी हिन्दू हैं. यहां पर दो संघ तथा सौ भिक्षु रहते हैं, जो हीनयान अनुयायी हैं. गोविषाण में लगभग तीस मंदिरों का एक झुण्ड है. मुख्य शहर के पास ही अशोक द्वारा बनाया गया एक संघ व एक स्तूप है. यह माना जाता है कि यहां गौतम बुद्ध ने एक माह तक रहकर सारगर्भित प्रवचन दिया था. इसी स्तूप के पास बुद्ध ने अपने पांव पूर्व जन्मों में आकर भी रुके थे. अत: पंच बुद्धो के बैठने की जगह भी बनी है. यह भी माना जाता है कि यहां तथागत बुद्ध के केश तथा नाखून स्तूप बनाकर सुरक्षित रखे गये हैं.
गंगा के मैदान की ओर
गोविषाण से 80 मील दक्षिण-पूर्व जाने पर अहिक राज्य पड़ता है. महाभारत में इसे अहिछत्र कहा गया है, जो उत्तर पांचाल राज्य (वर्तमान रुहेलखण्ड) की राजधानी थी. अहिक राजधानी क्षेत्र (वर्तमान बरेली) तीन से चार मील में फैला है. जलवायु मृदुल तथा गेहूं की खेती के योग्य है. निवासी सच्चे, ईमानदार परंतु चालाक हैं. यहां 300 भिन्न-भिन्न मूर्तियों वाले 9 मंदिर हैं. 10 संघ भी हैं, जिनमें 1000 भिक्षु रहते हैं. अहिक से अतरंजीखेड़ा होते हुए 50-60 मील चलकर सहावर के पास मैंने गंगा पार की तथा महान खगोलविद बराह मिहिर के शहर कथिपा की ओर चला गया.
(बीत तथा वाटर्स की ह्वेनसांग संबंधी अंग्रेजी पुस्तकों से भावानुवाद : रघुबीर चन्द)
सभार : पहाड़