- सुमन जोशी
बरसात का मौसम है. खिड़कियों के शीशों पर पड़ी बूंदों को देखते हुए अदरक-इलायची वाली चाय की चुस्कियों के बीच अपनी पसंदीदा किताब पढ़ने के दिन.
और उसी के साथ म्यूजिक स्टोर से,
“रिम-झिम गिरे सावन,
सुलग-सुलग जाए मन,
भीगे आज इस मौसम में,
लगी कैसी ये अगन”.
गीत सुनते-सुनते कहीं पहाड़ों व बचपन की यादों में खो जाने के दिन.
तेल की कढ़ाई में प्याज़ और आलू का बेसन में लिपटकर गोते खाने के दिन.
हम इस बरसात में जहाँ जाने का मन बनाते हैं. जिस जगह की छवि हम मन में उकेरते हैं असल में वहां के लोग पल-पल डरों के अंधेरों में जीते हैं. जो लोग इस मंजर का आँखों देखा हाल देख रहे है और त्रादसी से जूझ रहे हैं उनके लिए बरसात एक डरावने सपने की तरह हैं.
और इसी बीच शहर में बैठे अपने 12×14 फ़ीट के कमरे में बैठे फेसबुक,इंस्टाग्राम पर बरसात की चुनिंदा तस्वीरों पर लाइक करते हुए हम सोचते हैं कि काश हम वहाँ जा सकते. जहाँ बादल धरती को स्पर्श करते हो, जहाँ बरसात से भीगकर पहाड़ों पर चलते जाना कभी ओझिल नहीं लगता, जहाँ झरनों के बीच आके सिर्फ उसे छूने का मन करे, जहाँ की हरियाली को खुद ही आँखों के कैनवास में खींच लाये.
पर वस्तुतः हकीकत कुछ और है. हम इस बरसात में जहाँ जाने का मन बनाते हैं. जिस जगह की छवि हम मन में उकेरते हैं असल में वहां के लोग पल-पल डरों के अंधेरों में जीते हैं. जो लोग इस मंजर का आँखों देखा हाल देख रहे है और त्रादसी से जूझ रहे हैं उनके लिए बरसात एक डरावने सपने की तरह हैं.
उत्तराखंड के पहाड़ी सीमांत इलाकों में इन दिनों बरसात और उसके साथ बहता मलवा, दरकते पहाड़, फटते बादल, गिरती बिजली, टूटते बहते पुल, भूस्खलन, टूटते मकान और रोते बिलखते चेहरों से हम सब परिचित हैं.
पिथौरागढ़ की बात करे तो सीमांत के आपदाग्रस्त क्षेत्र तहसील बंगापानी के लुमती, मौरी, जाराजिबली में कई लोग अपने घरों को छोड़ के जाने के लिए मजबूर हैं.
जनपद में आपदा ने जो ज़ख्म दिए हैं उसकी चसक हमारे टीवी के पर्दे और मोबाइल पर साफ़ दिखाई दे रही है. जिले में हिमालय से लगे हुए बरम, मेलती, धारचूला और कुछ अन्य गाँवों में तेज बरसात व बादल फटने से होती तबाही ने कहर ढा रखा है. नालों ने रौद्र रूप लिया है जो घरों तक प्रवेश कर रहा है. लगातार होती बरसात से कई गाँव भूस्खलन की चपेट में आ रहे हैं.
बंगापानी तहसील के टांगा गाँव का लगभग क्षेत्र में धरती फटने से पूरा गाँव मोतीगाड़ नदी में समाहित हो गया. 11 लोगों की जान और कई मकान जमीन में धस गए. गाँव की पूरी खेतीहर जमीन चंद मिनटों में रोखड़ में बदल गयी और इसी के चलते वहां के लोगों की आँखों में खौफ़ व अपने बच्चों के भविष्य की चिंता साफ नजर आ रही है.
रोज की लगातार होती बरसात से सीमान्त में कई सड़के टूट गई. पुल बह गए. मकान जमींदोज हो गए. कृषि योग्य भूमि रोखड़ हो गयी. गाँवों में मातम छा गया. ऐसा नहीं है कि ये आपदाएँ पहली बार आई हैं. कई साल पहले भी आई और हर साल आती रही हैं. और आने वाले सालों में भी यही स्थिति देखने को मिलेगी. जैसे-जैसे ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ते जा रही है ये आपदाएँ बिना सचेत किये आ जाएंगी और मिनटों में ही घरों, गाँवों, खेतों, पशु मवेशियों को बहा सकती हैं. ग्लोबल वॉर्मिंग, क्लाइमेट चेंज और डिजास्टर मैनेजमेंट को लेकर न जाने कितनी ही किताबें और रिसर्च पेपर लिखे व पढ़े गए. लेकिन सीमान्त का संकट अभी भी सोचनीय और सिर्फ स्थानीय लोगों तक ही सीमित है.
मार्क लॉयन्स ने अपनी किताब, Six degree: Our future on a hotter planet में जलवायु परिवर्तन, कार्बन चक्र फीडबैक, अमेज़न वन का विनाश और मरुस्थलीकरण का वर्णन किया है. लॉयन्स के अनुसार, “पांच या छः डिग्री वॉर्मिंग संभावित रूप से उष्णकटिबंधीय और सूक्ष्मजीवों को पूरी तरह से निर्जनता की ओर ले जा सकती है. जिससे अत्यधिक पानी व भोजन की कमी होने की आशंका हो सकती है.संभवतः इससे अरबों लोग सामूहिक प्रवास के लिए अग्रसर होंगे.”
इस वक़्त हम सभी कोरोना संक्रमित के बढ़ते मामले और मौत के आंकड़े, राजनितिक-सियासी उठापटक, रफाल विमान, भारत-चीन विवाद, अयोध्या मंदिर निर्माण, सुशांत सिंह राजपूत की मौत के खुलासे, देश भर में बाढ़ का मंजर, अमिताभ बच्चन और कोरोना, नई शिक्षा नीति आदि ख़बरों से रूबरू हो रहे हैं. परंतु उत्तराखंड के आपदाओं का ज़िक्र शायद ही कोई न्यूज़ चैनल कर रहा हो, शायद ही पूरे देश में इन मौतों के लिए शौक मनाया गया हो, शायद ही ये मंजर देख के अपनी पलकें नम की हो. पर इससे ज्यादा सोचनीय स्थिति क्या होगी कि एक तरफ देश भर में लोग कोरोना से बचने के लिए अपने घरों में वापस आ रहे हैं वहीं दूसरी ओर ये लोग जो आपदा की चपेट में हैं, मजबूर हैं अपना घर-बार, जमीन, जायदाद छोड़कर किसी और सुरक्षित स्थान पर प्रवास करने के लिए.
(लेखिका कुमाऊँ विश्वविद्यालय, पिथौरागढ़ में शोध छात्रा हैं)