पर्यावरण संरक्षिका मां दुनागिरि

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मां दूनागिरी मंदिर

डॉ. मोहन चंद तिवारी

द्रोणाचल पर बास तिहारा,
उत्तराखण्ड तुझको अति प्यारा.
देवि पूजि पद कमल तुम्हारे!

पर्यावरण दिवस

भारत में वैष्णव शक्तिपीठ के नाम से दो शक्तिपीठ हैं एक जम्मू कश्मीर स्थित वैष्णो देवी और दूसरा उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में रानीखेत से 37 किमी की दूरी पर द्वाराहाट स्थित ‘द्रोणगिरि’ because शक्तिपीठ, जिसे स्थानीय भाषा में ‘दुनागिरि’ के नाम से भी जाना जाता है. स्कन्दपुराण के ‘मानसखण्ड’ में वर्णित ‘द्रोणगिरि’ पर्वत के भौगोलिक विवरण से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि रामायण के काल में हनुमान संजीवनी बुटी लेने के लिए हिमालय में जिस ‘ओषधिपर्वत’ पर गए थे वह पर्वत कहीं और नहीं बल्कि वर्तमान में उत्तराखंड के अल्मोड़े जिले में स्थित यही ‘द्रोणगिरि’ पर्वत था.

पर्यावरण दिवस

‘दुनागिरी’ शक्तिपीठ द्वाराहाट से 14 किमी की दूरी पर हिमालय की गोद मे बसा अत्यंत सुन्दर,शान्त और दिव्य ऊर्जाओं से स्पंदित एक रहस्यमय पीठ है. जम्मू की वैष्णो देवी की तरह because यह कुमाऊं उत्तराखंड का आदिकालीन सिद्ध वैष्णवी शक्ति पीठ है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘दुनागिरी’ के नाम से जाना जाता हैं. आश्विन नवरात्र में यहां दुर्गाष्टमी का विशाल मेला लगता है. यहां कोई मूर्ति नहीं है प्राकृतिक रूप से स्वयं उत्पन्न दो पिंडियों की ही माता भगवती के रूप में पूजा अर्चना की जाती है.जो भी भक्त सच्चे मन से यहां आता है,उसकी समस्त मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण हो जाती हैं.इसका प्रमाण यहां पर सैकड़ों- हजारों की संख्या में चढ़ाई गई घण्टियां हैं.

पर्यावरण दिवस

द्रोणगिरि के इतिहास और संस्कृति के बारे में पंद्रह वर्ष तक निरंतर रूप से शोध करने और इस क्षेत्र का भ्रमण करने के बाद मैंने because महत्त्वपूर्ण जानकारी अपनी निम्नलिखित दो पुस्तकों में दी है और सदियों से उपेक्षित इस तीर्थस्थान के अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व को उजागर करने का भी विनम्र प्रयास किया है –
1.‘द्रोणगिरि : इतिहास और संस्कृति’,
उत्तरायण प्रकाशन‚ दिल्ली, 2001
2. ‘दुनागिरि माहात्म्य’,
उत्तरायण प्रकाशन‚ दिल्ली, 2002

पर्यावरण दिवस

आज  जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से पूरा विश्व उत्पीड़ित है. हिमालय पर्वत के ग्लेशियरों  के पिघलने के कारण उत्तराखंड में जिस प्रकार से  जलसैलाब  और प्राकृतिक आपदाएं because बढ़ती जा रही हैं,वह  उत्तराखंड वासियों के लिए चिंता का विषय है. इस पोस्ट में लोककवियों के द्वारा पर्यावरण संरक्षिका देवी के रूप में मां दुनागिरि की जो आराधना की गई है वह वर्त्तमान सन्दर्भ में भी बहुत प्रासंगिक है.उत्तराखंड के लोककवि एवं रचनाकार मां दुनागिरि शक्तिपीठ के गुरुत्वाकर्षण से बहुत प्रभावित रहे थे.

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कुमाऊं के अनेक कवियों ने मां दुनागिरि पर अनेक खंडकाव्य और लघु रचनाएं लिखीं जिनमें विशनदत्त जोशी ‘शैलज’ द्वारा खंडकाव्य के रूप में रचित ‘श्रीसिद्धिदात्री मां दूनागिरी’, because चिन्तामणि पालीवाल रचित ‘दूनागिरिचालिसा’, केशरसिंह डंगसेरा बिष्ट रचित ‘दुनागिरि महिमा’ आदि रचनाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं.इनमें से कुमाउंनी रामायण के रचयिता श्री विशनदत्त जोशी जी  ने अपने ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति हेतु दुनागिरी देवी की स्तुति से ही अपनी कृति का  मंगलाचरण करते हुए कहा है-

पर्यावरण दिवस

“जय जय जय हे दुणगिरि माई.
बैठि हिरद मेरि करिये सहाई..
करिये कुशल भलि सबनैकि माई.
जै कि कृपा करनै न अघाई..
तीन काल है कुशव कुशौवा.
सुख दुख हो कि अमंगव मंगवा..
सदा एक रस सबुं हणि माई.
हमार विशेष बिघन दिये टाई.”

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कुमाऊं के जानेमाने लोककवि स्व. चिन्तामणि पालीवाल ने सन् 1973 में भक्तिभावना से ओतप्रोत होकर दुनागिरि देवी की स्तुति के रूप में ‘दुनागिरी चालिसा’ की रचना की है. because इस स्तुति काव्य में महाशक्ति के रूप में देवी का स्तवन किया गया है. कवि के अनुसार दुनागिरि देवी उत्तराखण्ड की वैष्णवी शक्ति है और वह अन्य शक्तियों की सहायता से इस क्षेत्र की रक्षा करती है. चौसठ योगनियां और काली, कराली आदि शक्तियां उसके साथ-साथ चलती हैं. नौ दुर्गाओं में दुनागिरि देवी सबसे सयानी देवी है और बड़ी बहिन होने के कारण अन्य देवियां उसके अनुशासन का पालन करती हैं-

पर्यावरण दिवस

द्रोणाचल पर बास तिहारा,
उत्तराखण्ड तुझको अति प्यारा.
तू है माता देवी वैष्णवी,
तेरे संग में भैरव भैरवी..
चौसठ योगिनी साथ में चलती
काली कराली हात मसलती..
नौ दुर्गे में तु ही सयानी और
चले अनुशासन मानी.
दुनागिरि में बसी वैष्णवी,
वैष्णव जनों की माता देवी..

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कवि चिन्तामणि पालीवाल का कहना है कि दुनागिरि देवी को सिहवाहिनी दुर्गा माना जाए या विष्णु के अंश से अवतरित वैष्णवी शक्ति इस रहस्य का तो वेद शास्त्र भी पार नहीं पा सके. because वास्तविकता यह है कि एक ही ‘महाशक्ति’ को लोग नाना नाम-रूपों से जानते हैं. उसी महाशक्ति ने विष्णु अंश से अवतार लेकर ‘सीता के रूप में रावण को मारा, ‘पार्वती’ का रूप धारण करके भस्मासुर को भस्म किया, ‘दुर्गा बन कर महिषासुर का संहार किया, ‘सत्यभामा’ के रूप में भौमासुर का वध किया और ‘चण्डी’बन कर शुम्भ-निशुम्भ को मारा. यही है चिन्तामणि द्वारा वर्णित ‘शक्ति शिरोमणि’ देवी दुनागिरि का वीरगाथा पूर्ण स्तवन

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विष्णु अंश से है अवतारा,
सीता होकर रावण मारा.
भस्मासुर को भस्म करा जब,
पार्वती जी का रूप धरा तब..
महिसासुर मारा तूने जब,
दुर्गा रूप धरा तूने तब.
भौमासुर वध तूने कराया,
सत्यभामा का रूप धराया..
शुम्भ-निशुम्भ मारा तुमने तब,
चन्डी बन कर आई तू तब.
तेरी महिमा अपरम पारा,
वेदशास्त्र नहीं पावे पारा..
रूप अनेक हैं नाम अनेका,
शक्ति शिरोमणि तू ही एका..

पर्यावरण दिवस

कुमाउंनी लोककवियों के लिए because ‘दुनागिरि’ धार्मिक आस्था से अतिरंजित एक पवित्र और कल्याणकारी तीर्थ का नाम है. जब भी उत्तराखण्ड के महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थानों का आह्वान किया जाता है तो उसमें ‘दुनागिरि’का नाम अवश्य होता है-

“जागेश्वर-बागेश्वर में तुमारो नाम छ..
सिताबनी दुनागिरि में तुमारो नाम छ..”

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लक्ष्मी, काली और सरस्वती ये तीन देवियां मिलकर जैसे जम्मू-कश्मीर स्थित माँ वैष्णो देवी में महाशक्ति का रूप धारण करती हैं. उसी प्रकार कुमाऊं उत्तराखंड में दुनागिरि देवी, नैथणा देवी because और मानिला देवी इन तीन शक्तियों को महाशक्ति माना गया है. भवानी दत्त चबडाल की ‘उत्तराखण्ड जागृति’ नामक रचना में इन तीन शक्तियों स्तुति करते हुए कहा गया है-

“मानिल मानिला देवी नैथाणा वैश्नवी.
दूनामाई दुनागिरि करियै सहाई..”

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उपभोक्तावादी मूल्यों से ग्रस्त आधुनिक पर्यावरण विज्ञान प्रकृति को जड़ और उपभोग की वस्तु मानता है. परन्तु भारत के प्राचीन प्रकृति वैज्ञानिक प्रकृति को जड़ नहीं बल्कि संसार की because अधिष्ठात्री देवी-शक्ति के रूप में मातृ तुल्य पूजनीय मानते हैं. इसी सोच से अनुप्राणित होकर मार्कण्डेय ऋषि ने दुर्गा देवी के जिन नौ रूपों की गणना की है वास्तव में वे नौ रूप मूलप्रकृति के ही विविध रूप हैं जो पूरे विश्व के पर्यावरण को सन्तुलित रखते हैं और उसकी रक्षा भी करते है. पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से पर्वतराज हिमालय की प्रधान भूमिका है.

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यह पर्वत मौसम नियंता होने के साथ-साथ विश्व पर्यावरण को नियंत्रित करने का भी केन्द्रीय संस्थान है. हिमालय क्षेत्र के इसी राष्ट्रीय महत्त्व को उजागर करने के लिए देवी के नौ रूपों में हिमालय प्रकृति को ‘शैलपुत्री’ के रूप में सर्वप्रथम स्थान दिया गया है. हिमालय क्षेत्र शैलपुत्री की क्रीड़ाभूमि और तपोभूमि दोनों है. because किंतु विकासवाद के नाम पर प्रकृति के साथ जो छेड़छाड़ की जा रही है और हिमालय प्रकृति के जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग आदि तरह तरह की पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं से हमारे पर्यावरणविद चिन्तित हैं उससे ज्यादा चिंता मां दुनागिरि पर साहित्य लिखने वाले हमारे लोककवि को सता रही है.हिमालय के प्रति इसी पर्यावरण वैज्ञानिक चिंता के साथ संवाद करते हुए केशरसिंह डंगसेरा बिष्ट अपनी ‘दुनागिरि महिमा’ में कहते हैं

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“दूनागिरि से ऐसा हिम‚भण्डार दृष्टि में आवै.
जैसे भारतमाता अगणित‚बर्फकलश लेजावै.
फिर कोई बर्फीला शिल्पी‚हिम दीवार बनावै
लेकिन प्रदूषण से शिल्पी‚पूरण काज न पावै.
जितनी जाड़ों में बनजावै‚गर्मी सब पिघलावै.
इस शिल्पी से अरज हमारी‚काम न रुकने पावै.
पूरब से उत्तर हो करके‚पश्चिम तक ले जावै.
जिससे भारत माँ की पूरी‚रक्षा भी होजावै..
चालू रखना युगों युगों तक‚नदियाँ नीर बहावै.
गंगा यमुना सतलज जल को‚ इसीलिए ले जावै.
भारत माँ का कोई प्राणी‚प्यासा नहिं रह पावै
यह हिम पर्वत ना होता तो‚जाने क्या हो जावै .
हिन्द देश का बच्चा-बच्चा‚हिमगिरि के गुण गावै .
हिम पर्वत तो सदियों से ही हिम से ढका रहावै..”

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केशरसिंह की ‘दुनागिरि महिमा’ में हमारी इस सांस्कृतिक सोच की अनभिज्ञता के प्रति भी चिंता प्रकट की गई है कि आज हम यह भूल चुके हैं कि वास्तविक ‘औषधि पर्वत’ ‘द्रोणगिरि’ कहां है? because और इस पर्वत पर उगने वाली दुर्लभ औषधियों के सम्बंध में तो हम बिल्कुल लापरवाह और अज्ञानी बने हुए हैं. हमारी इसी अज्ञानता पर दूनागिरि क्षेत्र की वनौषधियां भी हम पर तरस खा रही हैं और साथ ही अपनी उपेक्षा और निर्ममतापूर्ण व्यापारिक संदोहन से बहुत दुःखी भी हैं. वर्षा के अभाव से इन्हें कभी मुरझाना पड़ता हैं तो कभी वनों की आग में झुलसना पड़ता है और कभी इन्हें कुल्हाड़ी से काटकर जला दिया जाता है. इस निर्ममतापूर्ण अत्याचार के कारण भी वनौषधियां बिलख बिलख कर,रुदन करते हुए मां दुनागिरि से अपनी फरियाद सुना रही हैं

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“आस-पास के वन क्षेत्र की औषधि सब उपजावै.
दूनागिरि ‘औषधि पर्वत’ भी, इसी क्षेत्र में आवै..
औषधि आपस में बतियावैं, देखो यह नर जावै.
हमको नहिं जाने बेचारा, मन ही मन दुख पावै..
औषधि ज्ञान रहित ये मानव,कैसे रोग भगावै .
आबादी की वृद्धि निरन्तर, हमको रास न आवै ..
कल मानव के प्रदूषण से, दम हमरी घुट जावै.
निज स्वारथ में हमको कोई नोच-नोच बिकवावै..

पर्यावरण दिवस

वर्षा भी नहि because मिले समय पर,बिन पानी मुरझावै.
हमको काट कुल्हाड़ी से कोई ईंधन खूब जलावै..
दुष्ट नराधम छूवे तो भी, गुण हमरा घटि जावै .
है कोई रक्षक वैद आज, जो पर्यावरण बचावै ..

पर्यावरण दिवस

द्रोणगिरि की औषधि सारी बिलखत रुदन मचावै.इस कलयुग में जड़चेतन की भाषा समझि न पावै.”

देवी अवतार का because इतिहास बताता है कि पर्यावरण विरोधी असुरों ने जब प्रकृति के मूल तत्त्व हवा, पानी, धरती आकाश, सूर्य, चन्द्रमा आदि को अपने नियंत्रण में करके पूरे ब्रह्माण्ड की पर्यावरण व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करना चाहा तो ऐसे संकटकाल में देवताओं और ऋषियों ने हिमालय में जाकर जगदम्बा से विश्व कल्याण हेतु प्रार्थना की-

“नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः.
नमःप्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता स्म ताम्..”

हम लोकसाहित्य के माध्यम से प्रकृति परमेश्वरी मां दूनागिरि देवी से प्रार्थना करते हैं कि वह उत्तराखण्ड सहित समूचे हिमालय के प्राकृतिक प्रकोपों को शांत करें और ग्लोबलवार्मिंग केbecause कारण उत्पन्न होने वाले जलवायु परिवर्तन एवं प्राकृतिक आपदाओं से हम सब देशवासियों की रक्षा करें.  श्रीदुनागिरि देव्यै: नमः

पर्यावरण दिवस

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मानऔर 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मानसे अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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