कोरोना और हमारा दायित्व 

  • प्रो. गिरीश्वर मिश्र

आजकल नए-नए अकल्पनीय दृश्यों  के साथ हर दिन का पटाक्षेप हो रहा है.  कोरोना पीड़ितों की बेशुमार होती संख्या के साथ मृत्यु का अनियंत्रित तांडव खौफनाक होता जा रहा है. इसका व्यापक अस्तित्व किसी के बस में नहीं है पर इसके समाधान के लिए जो करणीय है उसको देख सुन कर यही लगता है कि हम वह सब ठीक ढंग से नहीं कर पा रहे हैं जो इस दौरान जरूरी था.  इस बीच हमने बहुतों को खो दिया. यह सब तब हुआ जब स्पेन, इटली, ब्राजील because और अमेरिका जैसे देशों के खौफनाक मंजर सारी दुनिया के सामने थे, चिकित्सा विज्ञान के शोध अनुसंधान के परिणाम भी थे और भारत की तैयारी की जानकारी क्या है यह भी मालूम थी. यह जरूर है कि स्थिति की भयानकता का शायद अच्छी तरह पूर्वानुमान नहीं लगाया गया था.

आज बढ़ते तनाव और दबाव के माहौल  में जब आर्थिक संसाधन भी सिमटते जा रहे हैं, बेरोजगारी और मंहगाई बढ़ती जा रही है आम आदमी के लिए स्वास्थ्य  और जीवन की रक्षा पहेली because बनती जा रही है. पर हमारे निर्णय, नीति और उसके अनुपालन का तंत्र किस तरह और किस हद तक ढीला, सुस्त, अनुत्तरदायी और असंवेदनशील है इसे ले कर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की तल्ख़ टिप्पणियों पर नजर डालने की जरूरत है.

ब्राजील

देश की औरअधिकांश  प्रदेशों की सरकारें विजयी मुद्रा में आ रही थीं और कई जगह चुनाव का अश्वमेध यज्ञ छिड़ा हुआ था. जिस गहनता  और गंभीरता से  चुनाव को लिया गया वह मीडिया की बदौलत सार्वजनिक होता रहा है और सभी ने उसका जायजा लिया है . इस दौरान समाज के स्वास्थ्य के लिए आसन्न संकट को ध्यान में रख कर because जो तैयारी और निगरानी होनी चाहिए थी वह नहीं हो सकी.  जन- स्वास्थ्य को ले कर आने वाले सरकारी बयान अक्सर सबको आश्वस्त करने वाले लगते थे और धीमे धीमे ही सही टीकाकरण की और हम आगे बढ़ने की कोशिश में लगे दिख रहे थे.

सभी फोटो pixabay.com से साभार

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विदेशों को उपहार में टीकों की खेप पहुंचाते हुए यही लग रहा था कि घर में तो टीकों की व्यवस्था होगी ही. पर जब कोविड की आक्रामक भयावहता सामने आई तो दवा की उपलब्धता, अस्पताल की पर्याप्तता और टीके की व्यवस्था सभी को ले कर हमारी तैयारियां अधूरी और नाकाफी साबित हुईं. पर इनसे भी कठिन और बर्दाश्त के बाहर की स्थिति आक्सीजन की आपूर्ति को ले कर पैदा हुई जब अस्पतालों में आईसीयू में इलाज के लिए भर्ती  मरीज मरने लगे और यह सिलसिला अभी because भी जारी है. चिकित्सकीय आक्सीजन का उत्पादन और आपूर्ति की व्यवस्था पर पहले इतना दबाव नहीं था और गाड़ी चल रही थी पर अब स्थिति नाजुक हो गई है. जगह-जगह आक्सीजन प्लांट लगाने की कवायद शुरू की जा रही है जो बहुत दिनों से लंबित पड़ी थी. (अ)व्यवस्था की जिम्मेदारी लेने को कोई भी तैयार नहीं है और व्याख्याएं हाजिर हैं.

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आज के कठिन दौर में  स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के चलते आम आदमी के लिए सस्ती और सुविधाजनक  स्वास्थ्य की व्यवस्था नसीब नहीं है. आज बढ़ते तनाव और दबाव के माहौल  में जब आर्थिक संसाधन भी सिमटते जा रहे हैं, बेरोजगारी और मंहगाई बढ़ती जा रही है आम आदमी के लिए स्वास्थ्य  और जीवन की रक्षा पहेली because बनती जा रही है. पर हमारे निर्णय, नीति और उसके अनुपालन का तंत्र किस तरह और किस हद तक ढीला, सुस्त, अनुत्तरदायी और असंवेदनशील है इसे ले कर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की तल्ख़ टिप्पणियों पर नजर डालने की जरूरत है.

साँसों की यह मुश्किल होती जंग दिन पर दिन डरावनी हो रही है. किसी भी तरह से संसर्ग में आने से अपने आगोश में लेने वाला यह संक्रामक रोग बड़ी एहतियात और संजीदगी के because साथ जीने के लिए कहता है. डाक्टर और नर्स जान जोखिम में डाल  कर दिन रात सेवा करते हुए जीवन की रक्षा में लगे हुए हैं फिर भी गैर जिम्मेदाराना हरकत से नेता  और  जनता कोई बाज नहीं आता.

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हमारा व्यवस्था-तंत्र कुशल कर्म के साथ दक्षता और उत्कृष्टता की जगह भेद-भाव, भाई भतीजावाद, चापलूसी, घूस, राजनैतिक हस्तक्षेप आदि के भ्रष्ट तरीकों से ग्रस्त होता जा रहा है. धन लोलुप कालाबाजारी और दलाल आक्सीजन और जीवन रक्षक बनी दवाओं, टीकों और स्वास्थ्य सेवाओं और नागरिक सुविधाओं ( जैसे- टैक्सी, श्मशान, because अस्पताल में प्रवेश ) आदि को व्यापार के तर्ज पर ले रहे हैं. हर जगह लूटने का अवसर खोजते नव धनाढ्य चारों और फ़ैल गए हैं और जीने का अवसर आम आदमी के हाथ से निकलता जा रहा है. व्यवस्था की प्रणाली तो कायदे  से काम करती है जो निष्क्रियता और हिल्ला हवाली के कारण अक्सर गतिहीन और परिणामहीन साबित होती है.

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देश की कार्य-संस्कृति में घुन लगा हुआ है और ज्यादातर संस्थानों में उत्पादकता, गुणवत्ता, कार्य संलग्नता, देशहित और मानवता जैसे मूल्यों को भुला कर पैसा कमाने because और आराम करने की तरफ ही लोग अधिक ध्यान देते हैं. इस तरह की दूषित मानसिकता और कदाचार ने कार्यकुशलता को क्षीण किया है. इसका खामियाजा सबको भुगतना पड़ रहा  है और देश के विकास पर बुरा असर पड़ रहा है. स्वास्थ्य की व्यवस्था और उससे जुड़ी प्रक्रियाओं में इसके दुष्परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं यह आज सभी अनुभव कर रहे हैं पर व्यवस्था में जरूरी  सक्रियता नहीं आ रही है.

ब्राजील

साँसों की यह मुश्किल होती जंग दिन पर दिन डरावनी हो रही है. किसी भी तरह से संसर्ग में आने से अपने आगोश में लेने वाला यह संक्रामक रोग बड़ी एहतियात और संजीदगी के because साथ जीने के लिए कहता है. डाक्टर और नर्स जान जोखिम में डाल  कर दिन रात सेवा करते हुए जीवन की रक्षा में लगे हुए हैं फिर भी गैर जिम्मेदाराना हरकत से नेता  और  जनता कोई बाज नहीं आता. ऊपर से दवा दारू को ले कर सोशल मीडिया में इतने तरह के निराधार और कल्पित सन्देश और सुझाव  दिए जाने की  भरमार  इतनी है कि आसानी से कोई भी आदमी दिग्भ्रमित हो कर नई मुश्किल में फंस सकता है.

आज व्यापक टीकाकरण, रोग के उचित निदान और उपचार की व्यवस्था के साथ नागरिक जीवन को सहज बनाने की मुहिम के साथ संक्रमण को रोकने के प्रभावी उपाय भी तत्काल करने होंगे. because संक्रमण से दुष्प्रभावित लोगों विशेषत: स्त्रियों और बच्चों के पुनर्वास की व्यवस्था भी जरूरी होगी.

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दूसरी तरफ इस राष्ट्रीय संकट की घड़ी में भी विभिन्न राजनैतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए  हैं. यह कहने  की आवश्यकता नहीं कि  समाज का कल्याण ही सर्वोपरि है. because आज सर्व दलीय चर्चा और एकमत से राष्ट्रीय स्तर पर कार्य योजना बनाने की जरूरत है. हमें यह याद रखना होगा कि यह  जिम्मेदारी किसी एक दल की न हो कर सबकी है और सबके लिए है. चाहे अनचाहे अभी तक का सन्देश यही है कि प्रधान मंत्री ही यह लड़ाई लड़ रहे हैं. बिना किसी विलम्ब के इस  मानवीय विपदा में सब को एक जुट हो कर कार्य करना होगा.

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आज व्यापक टीकाकरण, रोग के उचित निदान और उपचार की व्यवस्था के साथ नागरिक जीवन को सहज बनाने की मुहिम के साथ संक्रमण को रोकने के प्रभावी उपाय भी तत्काल करने होंगे. because संक्रमण से दुष्प्रभावित लोगों विशेषत: स्त्रियों और बच्चों के पुनर्वास की व्यवस्था भी जरूरी होगी. इन सब के बीच सकारात्मक बने रहने, व्यायाम करने और संयमित रूप से जीने की शैली अपनाने पर भी जोर देना होगा. इस हेतु मीडिया का प्रभावी उपयोग जरूरी है. यह हमारी इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है कि हम क्या कुछ कर पाते हैं. जीवन सम्भावनाओं का ही नाम है और यह त्रासदी हमारे साहस  और धैर्य के आगे नहीं ठहरेगी.

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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