मालिनी का आंचल…

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  • नीलम पांडेय नील

डा. डी. एन. भटकोटी जी के प्रबंध काव्य संग्रह मालिनी (भरत-भारत) पूर्व लिखित गघ एवं काव्य संग्रह से काफी भिन्न और नवीन है. पूर्व में लिखित अधिकतर काव्य संग्रह में जिस प्रकार दुष्यन्त केन्द्र बिन्दु थे, उसी प्रकार मालिनी (भरत-भारत) काव्य संग्रह में शकुन्तला प्रधान नायिका है. डा. भटकोटी जी ने शकुन्तला को प्रधानता देते हुऐ, because एक पहाड़ की स्त्री के रूप में उसकी मनःस्थिति का अवलोकन किया है. समस्त काव्यखंड की अन्र्तवस्तु, अभिव्यक्ति, शिल्प तथा भाव स्तर बेहद अलग है, या यूँ कहें कि यह अपनी परम्परागत शैली को बनाऐ रख कर की गयी नवीनतम विधा है.

भटकोटी

उक्त संग्रह में रचनाकार का लम्बा रचनात्मक संर्घष नजर आता है, यहां पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि आदरणीय डी. एन. भटकोटी जी लिखते हुऐ अपने मन की सतह पर उग आयी विचारों की तहों को खोलने के प्रयास में रहते हैं, जिनमें उनका खुद का गावं, उसी जीवन में रचे बसे, सुने हुऐ समय की परछाई दिखायी देती है. so रचनाकार, दुष्यन्त और शकुन्तला की प्रेम कविता को लिखते हुए उस एक समय को संर्घष की जमीन पर तैयार करने लगते हैं. अपनी स्वयं की इच्छा शक्ति से जीने की शर्त पर  इतिहास और वर्तमान समय, समाज को अपनी गम्भीर पारखी नजर के मौन आवरण में अवलोकन करने लगते हैं. उनके लिऐ लिखना खुद के साथ जीने की कला है.

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ऐतिहासिक पात्रों को नये संदर्भो में अपने विचारों के साथ गढ़ना अपने आप में चुनौतिपूर्ण है उस पर किसी ऐतिहासिक स्थल पर उनकी बारीक नजर उस पक्ष पर केन्द्रित करती है, जिस पर मुख्य पात्रों के इतर सामान्यतः  हम देख नही पाते हैं. किसी भी पात्र की स्थिति को रचने के लिऐ समय, स्थान, परिस्थितियाँ तथा उस एक स्थिति के साक्ष्य एवं उसी जन्मभुमि पर गुजारा हुआ एक समय, जिए हुए, महसूसे हुऐ, वो पल होते है, जिसके साथ रचनाकार सहजता महसूस कर पाता है. but साथ ही  अपने स्वाभिमान को नयी परिस्थितियों के साथ कोई समझौता भी नही करवाते हैं यानि की रचनाकार ने शकुन्तला की मनःस्थिति तथा भावों के सापेक्ष स्त्री को भावनाओं के वशीभूत कमजोर न बनाते हुऐ उसे अपने सहज स्वाभिमान के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश की है जिसमें वे काफी हद तक न्याय करने में सफल हुऐ हैं.

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सच कहूँ तो, हे मानव! तुम धन्य हो कि तुमने भावों से पूर्ण अपनी अंजूरी में सदियों से अतृप्त तथा रीत आयी आत्मा में पुनः बिसराये हुऐ प्रेम अनुभूति की ललक फिर से because उसके मन में जगा दी है. नदी तो जानती है कि समय के साथ उसका सुखना, उसका ही प्रारब्ध है और भला प्रारब्ध की रीत को कौन बदल पाया है, जो होना है, वही होता आया है. और एक समय के बाद वापस लौटना या ना लौटना भी प्रारब्ध ही होगा.

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उक्त काव्य संग्रह की कथा के प्रारम्भ में शुरुआत मालिनी नदी से हुयी है. कविवर! आप तो जानते हो कि सदियों से विरह से भरी इस नदी की यह देह लगभग सुख आयी  है, जिसे इतिहास में लोग मालिनी कहते आऐ हैं और कवि ने उसी मालिनी में खुद अपनी मेहनत से, अपने सृजन से, अंचुल भर-भर कर, वह जल भरने का because प्रयास किया  जिस जल की उसे वर्षों से प्यास थी. ये भी नही सोचा भला नदी को कैसी प्यास होगी? लेकिन आप तो जान गये कि एक ऐसी प्यास भी होती है जहां खुद की सम्पन्नता पर भी खिन्नता आने लगती है और किसी के साथ के बंधन की चाहत एकाएक मन की गिरह को खोलने के लिऐ अपनी पुरजोर कोशिश करने लगती है. जब एक रचनाकार जाने अनजाने अपनी कोशिश में प्रकृति के साथ ही खड़ा हो जाता है.

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सच कहूँ तो, हे मानव! तुम धन्य हो कि तुमने भावों से पूर्ण अपनी अंजूरी में सदियों से अतृप्त तथा रीत आयी आत्मा में पुनः बिसराये हुऐ प्रेम अनुभूति की ललक फिर से उसके मन में जगा दी है. नदी तो जानती है कि समय के साथ उसका सुखना, उसका ही प्रारब्ध है और भला because प्रारब्ध की रीत को कौन बदल पाया है, जो होना है, वही होता आया है. और एक समय के बाद वापस लौटना या ना लौटना भी प्रारब्ध ही होगा. फिर से शकुन्तला और दुष्यन्त जैसी कोई कहानी इस नदी के किनारों से संसार की आवाजाही में कहीं खो जाऐगी. किन्तु विचारों के खुले दरवाजे एक रचनाकार को चैन से रहने नही देते हैं, जब तक कि वह अपनी सृजनशीलता को उस मुकाम तक न ले आऐ जहाँ भावों से भरा अथाह मन, मनभर लेखनी से वह कोरे कागजों का अकेलापन अपने ही रंग में न रंग दे.

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मैं क्या कहूँ? जब कोई निष्णात कला पारखी किसी कविता में सूरज, चाँद और सितारों से सजावट नही करता, अपितु अपनी अभिव्यक्तियों की कूची से सूख आयी मालिनी नदी के रौखड़ पर उसको ललकारते हुऐ कविताओं के गठबंघन से अपनी तमाम स्मृतियों के रंग सजाने लगे तो वही रंग भुले – बिसरे इतिहास को स्मरण करने का समय so लेकर एक महाकाव्य का सृजन करने लगता है. जिसमें नायिका शकुंतला की सवेंदनाओं को अपनी कल्पनाओं का जामा पहनाकर उसके मनोभावों पर आत्मिक विर्मश के अवसर तैयार होने लगते है. एक नदी अपने उदगम से छलछलाकर पहाड़ों से उतरते हुऐ, फिर समय की उपेक्षा के साथ धीरे धीरे सिकुड़ते हुऐ देखना और अपनी पीढ़ी के पलायन की मार से दुखी होकर पुनः कहानी की पुरानी स्मृतियों को नये विचारों के कलेवर के साथ प्रस्तुत करने का कौशल अपने आप में पलायन से लौटने का समय है.

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यहां पर रचनाकार अपने गावँ, मिट्टी, धरातल,  मालिनी के रेतीले तट, पर्वत और शहर की आबोहवा को अपनी स्मृतियों में बनाऐ रखना चाहते हैं. कभी सुबह के नांरगी उजाले और कभी शाम की नीरव दहलीज पर अपनी जड़ों के छुट जाने या फिर उनके बदल जाने से आहत जरुर है, पर सुबह और शाम के रंगे हुऐ गगन पर because अपनी चुप्पियों को छोड़  कर आश्वस्त भी नही होना चाहते हैं बल्कि अपनी रचना यात्रा के महाकाव्‍य में वे पत्थरों से ठोकर खाते, टकराते हुऐ अपनी मंजिल को पा तो लेते हैं पर जिनसे ठोकर खायी उन्हें याद रखना चाहते हैं और समय की आवाजाही को लिख रहे हैं. बेहद सरल जीवन की छाप छोड़ती हुयी आदरणीय भटकोटी जी की रचनाऐं ग्रामीण जन जीवन तथा जल, जंगल जमीन के लिऐ पहाढ़ वासियों की श्रद्धा और प्रेम के दर्शन भी करवाती है. जहां पहाड़ के प्राकृतिक स्वाद और संर्घषमय जीवन के विवरण के साथ ही प्रकृति के साथ मानव जीवन के अबाध रिश्ते भी है.

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प्रथम खण्ड में मालिनी के साथ लोक जीवन में स्वयं की अभिव्यक्तियों को प्रस्तुत करने के साथ श्रीमान डी. एन भटकोटी जी ने दुष्यन्त और शकुन्तला के काब्य प्रसंग के अन्य भाग को  मुख्य तीन खंडो में बांटा है. प्रथम  खण्ड में गढ़वाल के लोक जीवन में नारी जीवन so और उसकी जटिल भगौलिक परिस्थितियों में जीने की कला और उसके सहज, निर्मल  सौन्दर्य का विवरण है, जिसके वशी भूत राजा दुष्यन्त स्वयं को ठगा सा महसूस करने लगते हैं. इस प्रथम खंड में कवि ने लोकजीवन में शकुन्तला के जीवन को समझने का प्रयास किया है, जिसमें सुख, आनन्द तथा प्रेम और आसक्ति को दर्शाते हुऐ वे साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं और सौन्दर्य उपमान के साथ उन स्थितियों का विवरण प्रस्तुत करते हैं जिसमें राजा दुष्यन्त के अनन्त तक डुबने की चाहत केे बिम्ब को  प्रकृति के अतुलित अबाध सौन्दर्य के साथ समेट लिया गया  है.

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काव्य संग्रह के दूसरे खण्ड में वियोग का अदभुत वृतांत है. राजा दुष्यन्त के वापस लौटने पर होने वाला संवाद और वियोग से दग्ध शकुन्तला की आशा और विश्वास के साथ भविष्य की because अनिश्चिताओं में डुबता उतरता मन के साथ राजा के कर्तव्य चुनौतियों के लिऐ सर्हष सहमति भी.

“मनन चिन्तन यह गहन है,
अभिव्यक्ति है अपरिमित मेरे शब्द सीमित
प्रेमरथ पर बैठकर दुष्यन्त आया
शक्ति रथ पर बैठकर अब जाऐगा
चुम्बनों से आज तरकश भरा है
आलिगंनो का धनुष काँधे सजा है”

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इसी दूसरे खण्ड में प्रणय आसक्ति और मिलन के चिर आनन्द की अनुभूति के बाद वियोग का दंश तिरस्कार, विस्मृतियों , स्मृतियों के साथ एक अतृप्त सी सबसे छुपायी हुयी प्यास तथा गहन से भी गहन तम एक कसक है.  एक समय था, जब शकुन्तला से राजा दुश्यन्त के अपने विवाह तथा स्वयं की स्मृति को भुलने की दशा में because दरबार में पूछा गया प्रश्न कि उनके गंधर्व विवाह का साक्षी कौन है? उस समय एकमात्र निशानी अं्रगुठी खोने की दशा में और सबूत के अभाव में शकुन्तला निरूत्तर होकर, अपमानित लौट आयी जब उसके विवाह के साक्षी वृक्ष और प्रकृति के अलावा और कोई नही था. यह शकुन्तला के लिए बहुत अपमान का समय था सिर्फ इसलिऐ नही कि राजा दुष्यन्त ने उनका साथ नही दिया तथा अपने पुत्र को अपनाने के निवेदन को नकारते हुऐ मुहं मोड़ लिया था बल्कि इसलिऐ कि इतने समय वह जिस विश्वास को अपने मन में सजाऐ थी वह चरमराकर टुट गया था.

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भरत उन राजाओं में because शामिल था जिसमें सुर्यवंशी और चन्द्रवंशी दोनो का ही रक्त था उसके वंशजो ने समस्त जम्बूदीप पर राज किया, इसलिऐ जम्बूदीप का नाम भी भारतवर्ष अथवा उसके नाम पर पड़ा.

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तीसरा तथा अन्तिम खंड है पुर्नमिलन, स्वीकार्यता तथा अस्वीकार्यता में उलझी मनस्थिति के साथ भरत की ओजस्वी भूमिका और देशकाल. समय के साथ शकुन्तला वह सब अपमान भुल कर अपने पुत्र के साथ कण्व श्रषि के आश्रम में जीवन यापन करने लगी थी. भरत उन राजाओं में शामिल था जिसमें सुर्यवंशी और चन्द्रवंशी because दोनो का ही रक्त था उसके वंशजो ने समस्त जम्बूदीप पर राज किया, इसलिऐ जम्बूदीप का नाम भी भारतवर्ष अथवा उसके नाम पर पड़ा. श्रीमान डी एन भटकोटी जी ने स्थानिय कलेवर में इतिहास में लोक जीवन की कहानियों के सन्दर्भो को बांधने का प्रयास किया है. सभ्यता के मूल में, मूल संस्कृति उस समाज की पहचान है जिसे हूबहू तो नही पर अपनी एकत्रित की हुयी लोक कथाओं में शकुन्तला और दुष्यन्त के जीवन वृतांत को एक नये कलेवर में प्रस्तुत किया है.

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जाने क्यों लगता है जैसे रचनाकार ने शकुन्तला को पहाड़ की स्त्री के सापेक्ष, या यूँ कहें कि पहाड़ की स्त्री के जीवन को अपने काव्य में बिल्कुल उसकी उसी सादगी के साथ उतार दिया है, जैसा कि अमूमन पहाड़ में होता आया है. भले ही दुष्यन्त अपने राज काज तथा अन्य राजसी जीवन को जीते हुऐ शकुन्तला को लंबे अर्से तक because भुला बैठा हो पर बिल्कुल ऐसा ही कुछ इतिहास में भी होता ही आया है. जीविको पार्जन के लिऐ गावं से बाहर गये पति को लंबे अर्से बाद याद आता है कि गावं में उसकी पत्नी उसके इन्तजार में बुढ़ी हो चुकी है.

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अपने जीवन के अनेकों आनन्द के पड़ावों से गुजरते हुऐ या संघषों की जद्दोजहद से पार लगकर जीवन के अवसान पर या जीवन की अर्द्धशताब्दी में जब वह उन विस्मृतियों से वापस because लौटता है, तो लौट आता है अपने उसी नीड़ में जहां से उसने प्रेम को सही मायने में समझने का प्रयास किया था. किन्तु जब  लाख चाहने के बावजूद वह अपनी प्रेमिका अथवा पत्नी से पुनः उस आकंठ प्रेम को आसानी से लेने में सफल नही हो पाता है या पत्नी संतान प्रेम में स्वयं को बिसराई हुयी अनायास कठोर होकर प्रेमाअभिव्यक्ति पर तिरस्कार कर देती है.

पढ़ें- मैं उस पहाड़ी मुस्लिम स्त्री की हवा से मुखातिब हो रही हूं…

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चू‍कि रचनाकार का एक लंबा समय मालिनी नदी के तट पर कई अपनों से मिली कथा कुंजियों से दुष्यन्त और शकुन्तला को अपनी तरह से समझने में सहायता मिली तो जाहिर सी बात है कि उन्होने केवल पौराणिक शकुन्तला के राजश्री जीवन तथा आश्रम के जीवन को ही लेने के बजाय उसे नितान्त पहाड़ की विडम्बनाओं के साथ जोड़ने because की भी कोशिश की है. अकसर पलायन करने वाले लोग जल्दी से वापस नही आते हैं. वह एक ऐसा समय था जब पलायन करने वाले पुरुष जल्दी से गावं की ओर मुड़ कर नही देख पाऐ और  उनके पीछे उनकी नवयौवना, पति अथवा प्रेमी की इस विस्मृति का दंश सालो- साल सिर्फ कुछ मधुर स्मृतियों के सहारे काट लेती थी किन्तु अपनी अतृप्त जीवन की कठिनाइयों की उस गहनतम पीढ़ा को वह अकसर पहाड़ से कह जाती, नदी से कहती या फिर जंगलों को सुना देती थी.

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शकुन्तला जैसी कई प्रेम because कहानियों तथा उनकी गुपचुप कही बातों को सुनते हुऐ स्वयं वेदना में डुबती चली गयी. निःसदेह यह because एक उत्तम कोटि काव्‍य संग्रह है तथा यह एक चुनैाती भी है कि पारम्परिक एवं ऐतिहासिक स्तर पर रचे गये साहित्य को युवाओं के लिए किस प्रकार रुचिकर रूप में प्रस्तुत किया जाए.

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वह अकसर प्रकृति से शिकायत करती थी इसीलिऐ मालिनी आज भी गवाह है कि शकुन्तला जैसी कई प्रेम कहानियों तथा उनकी गुपचुप कही बातों को सुनते हुऐ स्वयं वेदना में डुबती because चली गयी. निःसदेह यह एक उत्तम कोटि काव्‍य संग्रह है तथा यह एक चुनैाती भी है कि पारम्परिक एवं ऐतिहासिक स्तर पर रचे गये साहित्य को युवाओं के लिए किस प्रकार रुचिकर रूप में प्रस्तुत किया जाए. अन्त में यही कहूंगी कि उक्त काव्य संग्रह हिन्दी साहित्य में एक उपलब्धि हैं अतः इसके प्रकाशन के लिऐ श्रीमान डी. एन. भटकोटी जी को असीम शुभकामनाऐं तथा बधाई.

(लेखिका कविसाहित्यकार एवं पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहती हैं)

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