बुरांश को बनाया रोजगार का जरिया
- प्रेम पंचोली
उत्तराखंड की यमुना घाटी का हरेक किसान अपनी खेती-किसानी के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है. इस घाटी में लोग खेती-किसानी को ही महत्व देते हैं. उन्हें सरकार इसके लिए प्रोत्साहन करे
या न करे उन्हें इसका कोई मलाल नहीं है. यही वजह है कि आज राज्य की एक मात्र यमुनाघाटी है जहां से पलायन का दूर-दूर तलक कोई वास्ता नहीं है.नेता जी
यहां हम ऐसे ही एक शख्स से परिचय कराना चाहते हैं जिन्होंने बिना सरकारी सहायता के वह चमत्कार करके दिखाया जिसके लिए सरकारें व कम्पनियां बड़ी-बड़ी डीपीआर (डिटियेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट) बनाती हैं. हो-हल्ला होता है. विज्ञापन ईजाद किये जाते हैं. सपने दिखाये जाते हैं. रोजगार का डंका पीटा जाता है. इसके अलावा प्रचार-प्रसार के
सभी हथकण्डे ये सरकारी-गैर सरकारी लोग अपनाते हैं. मगर इसके इतर जो उत्तरकाशी जनपद के दूरस्थ गांव हिमरोल में भरत सिंह राणा ने करके दिखाया वह काबिले तारिफ इसलिए है कि जहां यातायात के नाम मात्र साधन हों और विधुत व दूरसंचार की सुविधा सरकारी विभाग के रहमोकरम पर हो तथा पानी की आपूर्ती भी सीमित हो व सरकारी रहनुमा क्षेत्र में रहने के लिए खानापूर्ती करता हो, इन परस्थितियों में भरत सिंह राणा ने स्थानीय फलोत्पादन और प्राकृतिक संसाधनों को बाजार और नगदी फसल के रूप में प्रस्तुत किया और इस क्षेत्र के लिए मिशाल कायम कर दी.नेता जी
अपनी दिनचर्या में पहाड़ी महिलाऐं जंगल में घास-पात के लिए जाती हैं तो उन्होंने कभी नहीं सोचा कि वापस घर जाकर उन्हें घास-पात के भी पैंसे मिलेंगे. हिमरोल गांव के आस-पास के
दो दर्जन से भी अधिक गांव की महिलायें जब मार्च-अप्रैल के माह में जंगल को चारा-पत्ती, जलाऊन लकड़ी के लिए जाती हैं तो साथ में कुछ बुरांश के फूल तोड़कर भी लाती हैं. जिसे वे भरत सिंह राणा को 20रू॰ किलो के हिसाब से बेचती हैं. अर्थात एक तरफ घर व पशु के लिए व्यवस्था तो दूसरी तरफ बुरांश का फूल उनके लिए आर्थिकी का जरिया बन चुका है. ऐसा इस क्षेत्र में पहली बार हुआ है.नेता जी
इस क्षेत्र में बुरांश प्रजाति के पेड़ों का भारी जंगल है. जिसे स्थानीय लोग यदा-कदा यूं कहते थे कि इतना सुन्दर फूल किसी काम का नहीं. इसको रोजगार से जोड़ने का काम भरत सिंह राणा ने करके दिखाया. यही नहीं इस क्षेत्र में अन्य फल जैसे चूलू, सेब, माल्टा, आड़ू, खुबानी फलों का भी भरत सिंह राणा जूस, चटनी, जैम
बनाकर बाजार में उतार रहा है. बुरांश के फूल का जूस तो वे भारी मात्रा में बना रहे हैं. वह बताते हैं कि इस यूनिट को विकसित करने में उसे लगभग 10 वर्ष का समय लग गया. क्योंकि उन्हें फलों द्वारा तैयार इस सामग्री के लिए बाजार ही उपलब्ध नहीं हुआ था. बताया है कि वे सेन्टर फॉर टेक्नोलॉजी एण्ड डेवलपमेन्ट सहसंपुर के आभारी हैं जिन्होंने उन्हें एक रास्ता दिखाया.नेता जी
भले ही आज उनके पास स्थानीय प्रशासन से लेकर राज्य स्तर तक का प्रशासन उनके काम की वाह-वाही क्यों न करे. मगर प्रारम्भ में इस काम को विकसित करने में बहुत ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ा. अब तो भरत सिंह राणा अपनी ही जमीन पर क्षेत्र के तमाम फलों व फूलों का पल्प भारी मात्रा में निकाल रहे हैं और बाजार में उतार रहे हैं.
उनके पास इस लघु उद्योग के लिए पर्याप्त जमीन नहीं है फिर भी वह अपने अड़ोस-पड़ोस की जमीन को भी इस काम के लिए इस्तेमाल कर रहा है. जिसके एवज में अमुक काश्तकार को भी नगदी लाभ हो जाता है.नेता जी
इतना ही नहीं वह तो फलोत्पादन के लिए अब नर्सरी भी तैयार कर रहे हैं. जो उनकी नर्सरी में नया पौधा तैयार होता है उसे वह डेमोस्टेशन के लिए अपने गांव के लोगों को मुफ्त में
उपलब्ध करवाते हैं. ताकि इस नगदी फसल से सभी को लाभ हो सके और लोग स्वावलम्बी बनें. ऐसा भरत सिंह राणा बात-बात में कह देते हैं. लगभग दो हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित हिमरोल गांव जहां प्राकृतिक सौन्दर्य समेटे है वहीं आज बागवानी में भी यह क्षेत्र अग्रणी हो रहा है. इसका श्रेय लोग भरत सिंह राणा को देते हैं.नेता जी
राणा का ही कमाल है कि कभी हाई एल्टीट्यूट के सेब के पेड़ यहां लोगों ने विकसित किये थे. जो पांच वर्ष बाद ही फल देते थे. लेकिन श्री राणा ने इसी जगह पर लो-हाईट के सेब की नर्सरी ‘स्पर’ जैसी नस्ल विकसित की है जिसका लाभ लोग पिछले पांच वर्षों में
खूब ले रहे हैं. यह ‘स्पर नस्ल’ की सेब की प्रजाती तीन वर्ष में ही फल उत्पादन कर देती है. भरत सिंह राणा की सोच इतनी तक सीमित नहीं है वह जिस पानी को अपनी नर्सरी, जूस के पल्प बनाने के लिए प्रयोग करता है उस पानी को भी श्री राणा ने बहुपयोगी बनाया है. अब तो उनके पानी के तालाब में मछली पालन भी हो रहा है. यूं कहें कि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग यदि सीखना है तो भरत सिंह राणा के पास जाना ही पड़ेगा.नेता जी
राणा को स्थानीय प्रशासन से लेकर राज्य स्तर तक इस उम्दा कार्य के लिए कई बार सम्मान मिल चुका है. लेकिन बात तब और आगे बढती है जब बाहर के प्रदेश राणा को सम्मानित करते हैं. उनकी काम की गूंज नरेन्द्र मोदी के कान तक गयी तो उन्होंने अपने गुजरात के मुख्यमंत्रीत्वकाल में श्री राणा को गुजरात में हुए
राष्ट्रीय किसान सम्मेलन के दौरान ‘विशेष किसान’ सम्मान से सम्मानित किया था. वर्तमान में राणा की नर्सरी, फल बागान, जूस विकसित केन्द्र, मछली पालन का तालाब सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर शोध का केन्द्र बना हुआ है. आस-पास के नव-युवक श्री राणा के कार्य का अनुसरण करते दिखाई दे रहे हैं.(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)