आपका बंटी: एक समझ

पुस्तक समीक्षा

  •  डॉ पूरन जोशी

 आपका बंटी उपन्यास प्रसिद्ध उपन्यासकार कहानीकार मनु भंडारी द्वारा रचित है. मनु भंडारी, उनीस सौ पचास के बाद जो नई कहानी का आंदोलन हमारे देश में शुरू हुआ उसकी एक सशक्त अग्रगामियों में से हैं. कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, भीष्म साहनी के साथ उनका नाम एक प्रमुख स्तंभ के रूप में लिया जा सकता है. जिस दौर में मनु भंडारी ने लिखना शुरू किया वह भारत के लिए एक नितांत नया समय था, देश औद्योगिकरण नगरीकरण और आधुनिकता की नई इबारतें लिख रहा था. ऐसे समय में देश में सभी वर्गों को लेकर के एक नई बहस की आवश्यकता थी. पुरुष-स्त्री अन्य सभी वंचित वर्ग मिलकर के एक नए भारत की नई तस्वीर बनाने में लगे हुए थे. ऐसे समय में साहित्य में महिला विमर्श के स्वर बुलंद करने वाली मनु भंडारी प्रथम पंक्ति की साहित्यकारों में आती हैं. जब महिलाएं बड़ी संख्या में अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने निकल रही थी तो उनके सामने आने वाली रोजमर्रा की दिक्कतें परिवार और बाहर का कार्यक्षेत्र इन दोनों के बीच कैसे संतुलन  बिठाया जाए?  क्या बच्चे पालने की जिम्मेदारी सिर्फ औरतों की है? स्त्री और पुरुष के संबंधों को देखने के कई और नजरिए भी हो सकते हैं. अगर यह संबंध बिगड़ते हैं, उसका बच्चों पर क्या असर होता है, इस तरह की बहस को मनु भंडारी ने अपने साहित्य में जगह दी. प्रस्तुत उपन्यास आपका  बंटी स्त्री विमर्श को देखने की  एक अलग दृष्टि देता है, जहां कहानी का मूल सूत्रधार एक 9 साल का बच्चा है जिसके सामने उसके माता पिता अलग हो रहे हैं. बंटी अपनी मां के साथ रहता है और मां नौकरी करती है. उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ और इस पर आधारित, हिन्दी में एक फ़िल्म ‘समय की धारा’, नाम से बनी. फ़िल्म में शबाना आज़मी और शत्रुघ्न सिन्हा ने मुख्य भूमिकाएं निभाई.

सांकेतिक फोटो

उपन्यास  जैसे ही शुरू होता है शकुन अपने कॉलेज के लिए तैयार हो रही है बंटी उसे देखता रहता है, सोचता है कॉलेज जाते वक्त  की ड्रेसिंग टेबल की उन शीशियों में  कौन सा जादू है जो उसकी मम्मी को बिल्कुल बदल देता है. उसके बाद वह कुछ और ही हो जाती है. जैसे ही कॉलेज के प्रिंसिपल की कुर्सी पर बैठती हैं उनके चेहरे के भाव बदल जाते हैं. चेहरा बहुत कठिन हो जाता है और जब शाम को घर लौटती हैं फिर से वह पहले वाली बंटी की मम्मी बन जाती है.  बंटी की इस बात से मनु भंडारी मानो पूरे स्त्री समाज के बारे में यह बात कह रही हों  क्योंकि वर्तमान कामकाजी औरत को जो दोहरी भूमिकाएं समाज में निभानी पड़ती हैं वह किसी से छुपी नहीं हैं,  लेकिन उन पर उस तरह विमर्श भी नहीं होता जैसे होना चाहिए. कामकाजी महिला की उहापोह क्या करें? कैसे करें? किसको कितना वक्त दे?  बच्चों की जिम्मेदारी और परिवार की जिम्मेदारी सभी जैसे उसी का काम है और आठ-नौ  घंटे ऑफिस को तो देने ही हैं.

उपन्यास के कथानक पर गौर करें तो यह कहानी शकुन और अजय की है जो पति-पत्नी हैं. शकुन कॉलेज में प्रिंसिपल है जो पति से अलग अपने 9 साल के बच्चे बंटी के साथ रहती है. पति-पत्नी के रूप में उनके सम्बन्धों को सुखी नहीं कहा जा सकता है. अजय कभी-कभी बंटी से मिलने आता भी है तो गेस्ट हाउस में ठहरता है. तभी शकुन का परिचय एक दूसरे पुरुष से होता है और वे शादी कर लेते हैं. इधर अजय के भी दूसरी पत्नी और बच्चे हैं. बंटी न अपने को माँ के साथ सहज महसूस कर पाटा है न पिता के साथ. बंटी को कोई चीज़ अपनी नहीं लगती. खाने की मेज़ पर बैठते वक्त भी वह झिझकता है. अंत में उसको होस्टल भेज दिया जाता है.

बंटी पूछता है तलाक क्या होता है? टीटू जवाब देता है मम्मी पापा की जो लड़ाई हो जाती है उसे तलाक कहते हैं.  बंटी के पूछने पर वह बताता है कि उसके  मम्मी पापा आपस में बात कर रहे  तब उसने सुना. बंटी को अपमानित महसूस होता है. यह महत्वपूर्ण है कि बच्चों के सामने कौन सी बात की जानी चाहिए और कौन सी बात नहीं की जानी चाहिए. 

उपन्यास में शकुन है, अजय है और बंटी है.  बंटी का एक दोस्त है टीटू जिसके साथ उसकी सारी बातें होती हैं. शकुन और अजय एक साथ नहीं रहते हैं. बंटी अपनी मां के साथ रहता है. अजय उससे कभी कभी मिलने आता है. बंटी का वह दोस्त टीटू जब उससे पूछता है कि तेरे पापा तुम्हारे साथ ही क्यों नहीं रहते तो बंटी का मन बड़ा दुखता है.  टीटू तो उससे यह भी कहता है कि तेरी मम्मी पापा अब कभी साथ साथ नहीं रह सकते उनका तलाक जो हो गया है.  बंटी पूछता है तलाक क्या होता है? टीटू जवाब देता है मम्मी पापा की जो लड़ाई हो जाती है उसे तलाक कहते हैं.  बंटी के पूछने पर वह बताता है कि उसके  मम्मी पापा आपस में बात कर रहे  तब उसने सुना. बंटी को अपमानित महसूस होता है. यह महत्वपूर्ण है कि बच्चों के सामने कौन सी बात की जानी चाहिए और कौन सी बात नहीं की जानी चाहिए.

इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत है बड़ों की दुनियां को एक बच्चे की दृष्टि से देखना कैसा होता है. उपन्यास कई सारे आयाम खोलता है. सबसे पहले स्त्री विमर्श, पति-पत्नी के बनते-बिगड़ते रिश्ते और बाल मनोविज्ञान. बाल मनोविज्ञान का ऐसा चित्रण भारतीय साहित्य में कम ही देखने को मिलता है. एक बारगी देखने पर लगता है कि यह उपन्यास स्त्री विमर्श को दर्शाता है लेकिन जब गहरे में उतरते हैं तो ये बताना कठिन हो जाता है कि कहानी माँ की है, माँ-बाप की है या सिर्फ बंटी की अपनी.

यहाँ छोटा बंटी लेकिन बेहद संवेदनशील और जो संवाद उसके और उसके दोस्त टीटू के बीच होता है, वह हमें बच्चों की एक अलग ही दुनिया में ले जाता है. हम कभी-कभी भूलवश ये सोच बैठते हैं घर में बड़ों के बीच जो घटित होता है उसका बच्चों पर असर नहीं होता, लेकिन बच्चों पर इसका गहरा असर होता है. वो असर ताउम्र उनके दिलो दिमाग़ पर रहता है. मनोवैज्ञानिकों की मानें तो बच्चे अपने उस बचपन से गवर्न होते हैं.

औरत अगर काम नहीं करती है, घर से कदम नहीं उठाती है तो उसका खुद का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है और अगर गृहस्थी छोड़ कर काम करने निकलती है फिर पारिवारिक जीवन को खतरे में डालती है, वहीं से शुरू होता संघर्ष दो-दो ज़िंदगियाँ जीने का. औरत को भी महत्वकांक्षी होने का अधिकार है.

यहाँ बंटी एक मात्र बंटी नहीं है. ऐसे कई बंटी समाज में हैं जो अपने वजूद के लिए जूझ रहे हैं. मन्नू भंडारी ने यह उपन्यास लगभग पचास वर्ष पूर्व लिखा था लेकिन आज भी यह उपन्यास अपने आस-पास घटती घटनाओं के साथ महसूस किया जा सकता है, चाहे वह स्त्री विमर्श हो या फिर बाल मनोविज्ञान. उपन्यास में वर्णित अकेलापन मात्र एक बंटी का नहीं ऐसे हज़ारों बंटी हमारे इर्द-गिर्द हैं.

शकुन मात्र शकुन नहीं है, वो वर्तमान मध्य और निम्न मध्य वर्ग की उस औरत का प्रतिनिधित्व कर रही है, जो निरंतर प्रगति और उन्नति की नयीं-नयीं इबारतें लिख रही है. अगर काम नहीं करती है, घर से कदम नहीं उठाती है तो उसका खुद का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है और अगर गृहस्थी छोड़ कर काम करने निकलती है फिर पारिवारिक जीवन को खतरे में डालती है, वहीं से शुरू होता संघर्ष दो-दो  ज़िंदगियाँ जीने का. औरत को भी महत्वकांक्षी होने का अधिकार है. पुरुष के बरअक्स वो क्यों दबी-सहमी रहे या उस पर निर्भर रहे? यह सवाल मुंह बाये खड़ा ही रहता है!

(लेखक कवि, पहाड़ प्रेमी एवं अज़ीमप्रेमजी फाउंडेशन में बतौर सामजिक विज्ञान रिसोर्स परसन कार्यरत हैं)

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