पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति: सामुदायिक पुस्तकालय

  • कमलेश चंद्र जोशी

कोरोना महामारी के इस कठिन दौर में कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो प्रभावित न हुआ हो लेकिन उन तमाम क्षेत्रों में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला एक क्षेत्र है शिक्षा. पिछले 8-9 महीनों से because शिक्षण संस्थान बंद हैं और ऑनलाइन माध्यम से बच्चों को पढ़ाने की कोशिशें की जा रही हैं जो नाकाफी प्रतीत हो रही हैं. बच्चे, अध्यापक और अभिभावक इस सच्चाई को महसूस कर चुके हैं कि ऑनलाइन शिक्षा कभी भी क्लास रूम का विकल्प so नहीं हो सकती. उत्तराखंड राज्य के दूर दराज के गांवों की स्थिति बेहद चिंताजनक है जहां  बच्चों के पास न तो स्मार्ट फोन हैं, न इंटरनेट की उपलब्धता और न ही इंटरनेट की स्पीड. अभिभावक इतने पढ़े-लिखे भी नहीं हैं कि वो स्वयं स्कूल का विकल्प बन सकें.

आदत

कोरोना से उत्पन्न इन विपरीत परिस्थितियों के बीच उम्मीद की एक किरण जगाई है उत्तराखंड के पिथौरागढ़, रामनगर व नानकमत्ता के उन तमाम छात्रों ने जो अपने गुरूजनों के सानिध्य because में दूर गांवों में सामुदायिक पुस्तकालय खोलकर पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं. सामुदायिक पुस्तकालय की शुरुआत लगभग पांच साल पहले वरिष्ठ शिक्षक महेश पुनेठा के सानिध्य में पिथौरागढ़ से आरंभ हुई. वर्तमान में पिथौरागढ़ में पुस्तकालय चला रहे राहुल व शीतल बताते हैं कि महेश पुनेठा जी की प्रेरणा से ही उन्होंने अपने गांव में सामुदायिक पुस्तकालय की शुरुआत की.

because ‘जश्न-ए-बचपन ग्रुप के सीखने-सिखाने के अभियान के बीच ही पिथौरागढ़ में स्थापित हो चुकी सामुदायिक पुस्तकालय मुहिम रचनात्मक शिक्षक मंडल व वरिष्ठ अध्यापक नवेंदु मठपाल के नेतृत्व में रामनगर पहुँची. रामनगर व उसके आसपास के गाँवों में अब तक 20 से ज्यादा सामुदायिक पुस्तकालय खोले जा चुके हैं.

because प्रारम्भ में बच्चों को पुस्तकालय और पुस्तकों की ओर रिझाना बहुत कठिन जान पड़ता था. उस पर भी गांव के कई लोग बोलते थे कि इस तरह के काम में क्यों अपना समय बर्बाद कर रहे हो? लेकिन पुस्तकालय चलाने को लेकर एक जुनून था जो धीरे-धीरे लोगों को समझ आने लगा और आस-पास के तमाम बच्चे पुस्तकालय से जुड़ने लगे और आज की तारीख में पिथौरागढ़ के सामुदायिक पुस्तकालय देश में खुल रहे कई पुस्तकालयों के प्रेरणास्रोत हैं.

लिखने

पिथौरागढ़ के ही बेरीनाग में आशुतोष उपाध्याय जी ने अपने घर को पुस्तकालय में तब्दील किया हुआ है जहां because वह विज्ञान की जटिलता को आसानी से छात्रों तक पहुँचाने के लिए ‘बाल विज्ञान खोजशाला’ नाम से एक संस्था का संचालन करते हैं व अपने साथियों के साथ मिलकर छात्रों को विज्ञान की बारीकियाँ बहुत ही सरल व सहज अंदाज में विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से पहुँचाते हैं. छात्रों की विज्ञान के प्रति दिलचस्पी पैदा हो इसके लिए उन्हें समय-समय पर विज्ञान पर आधारित फिल्में भी दिखाई जाती हैं. because आज सामुदायिक पुस्तकालय की यह मुहिम न सिर्फ पिथौरागढ़ तक सीमित रह गई है बल्कि राज्य के विभिन्न जिलों तक पहुँच रही है.

पढ़ने

कोरोना के समय जब पारंपरिकbecause शिक्षा के तमाम रास्ते बंद होने लगे तो उत्तराखंड के सरकारी शिक्षकों के समूह ‘रचनात्मक शिक्षक मंडल’ ने ‘जश्न-ए-बचपन’ नाम से एक व्हाट्सऐप ग्रुप बनाया और अपने-अपने क्षेत्र के तमाम विशेषज्ञों को उसमें जोड़कर छात्रों तक संगीत, कला, साहित्य, थियेटर, ओरिगामी, पेंटिंग, बर्ड वाचिंग, समसामयिकी आदि विषयों को छात्रों तक बहुत ही रोचक तरीके से पहुँचाना आरंभ किया. because ‘जश्न-ए-बचपन ग्रुप के सीखने-सिखाने के अभियान के बीच ही पिथौरागढ़ में स्थापित हो चुकी सामुदायिक पुस्तकालय मुहिम रचनात्मक शिक्षक मंडल व वरिष्ठ अध्यापक नवेंदु मठपाल के नेतृत्व में रामनगर पहुँची. रामनगर व उसके आसपास के गाँवों में अब तक 20 से ज्यादा सामुदायिक पुस्तकालय खोले जा चुके हैं.

चलते

पिथौरागढ़ व रामनगर because को प्रेरणास्रोत मानते हुए पुस्तकालय मुहिम पहुँची ऊधम सिंह नगर जिले के छोटे से कस्बे नानकमत्ता में जहां  नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के संस्थापक डॉ कमलेश अटवाल के नेतृत्व में स्कूल के बच्चों ने आसपास के गाँवों में सामुदायिक पुस्तकालय खोलना प्रारम्भ किया. अब तक नानकमत्ता व उसके आसपास के गॉंवों में 15 पुस्तकालय खोले जा चुके हैं. इन पुस्तकालयों का नेतृत्व कर रहे छात्र महज because आठवीं से दसवीं कक्षाओं के छात्र हैं. नानकमत्ता व उसके आसपास संचालित हो रहे इन पुस्तकालयों में गांव के सरकारी स्कूलों के साथ ही प्राइवेट स्कूलों के लगभग 250-300 छात्र हर दिन पढ़ने-लिखने व खेलने-कूदने आते हैं.

पुस्तकालय संचालित करने वाले संचालक रिया, ऑंचल, प्रमोद, अंशु, अंशिका, बसंत, शाक्षी, प्रियांशु, विनीता आदि छात्र बताते हैं कि जब से उन्होंने पुस्तकालय चलाना शुरू because किया है उनकी नेतृत्व क्षमता निखर कर सामने आई है तथा उन्हें यह भी एहसास हुआ है कि एक अध्यापक के लिए टेबल की दूसरी तरफ से पढ़ाना कितना कठिन होता है.

कोरोना महामारी

इन पुस्तकालयों के लिए देश के because विभिन्न कोनों से लोग किताबों के रूप में मदद भी भेज रहे हैं. पिथौरागढ़ के पुस्तकालयों के लिए हाल ही में वरिष्ठ साहित्यकार नवनीत पांडेय व ‘बनास जन’के संपादक पल्लव जी ने कई पुस्तकें भेंट की. इसी क्रम में रामनगर के पुस्तकालयों हेतु गाजियाबाद से अनुराग शर्मा ने डाक के माध्यम से पुस्तकें भेजी तथा नैनीताल से वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन शाह व उमा भट्ट ने ढेरों पुस्तकें नवेंदु because जी को हाथोंहाथ भेंट की. दिल्ली से प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक देवेंद्र मेवाड़ी ने भी रामनगर व नानकमत्ता के पुस्तकालयों के संचालन हेतु अपनी प्रसिद्ध ‘विज्ञान की दुनियां’ पुस्तक की कई प्रतियॉं डाक द्वारा भेंट स्वरूप भेजी. साथ ही दिल्ली के एनजीओ गुजारिश ने अपने अभियान ‘बुक्स फॉर ऑल’ के तहत नानकमत्ता पब्लिक स्कूल को पुस्तकालयों के संचालन हेतु नगण्य दामों में लगभग 1000 पुस्तकें भेंट की.

सैकड़ों बच्चे

सरकारी व प्राइवेट because स्कूलों के सैकड़ों बच्चे जो कोरोना महामारी के चलते पढ़ने लिखने की आदत से दूर हो गए थे, इन पुस्तकालयों में आकर पुन: पढ़ाई को अपने जीवन का हिस्सा बनाने लगे हैं. इन पुस्तकालयों की सबसे अच्छी बात यह है कि यहां आने वाले छात्र बिना because झिझक अपनी बात व परेशानियॉं अपने ही समकक्ष संचालकों को बता पाते हैं व खेल-खेल में सीखने-सिखाने की कोशिश करते हैं.

प्राइवेट स्कूलों

इस तरह की मदद व प्रशंसा मिलने because से पुस्तकालय संचालक छात्र और अच्छा करने को प्रेरित हो रहे हैं. प्रेरणा के साथ ही अलग-अलग जिलों में पुस्तकालय चला रहे छात्रों को कई तरह की कठिनाईयों का सामना भी करना पड़ रहा है. वो बताते हैं कि कई बार बंद पड़े सरकारी स्कूल के प्रांगण में पुस्तकालय चलाने जाओ तो लोग जुंआ खेलते हुए मिल जाते हैं तो कई बार गांव के कुछ असभ्य बच्चे उन्हें परेशान करते हैं या फिर because उन पर तरह-तरह की टिप्पणियाँ करने लगते हैं. लेकिन उनके जज्बे को देखते हुए अब इस तरह के असामाजिक तत्वों ने पुस्तकालयों के आसपास आना लगभग छोड़ दिया है.

सरकारी

सरकारी व प्राइवेट स्कूलों के because सैकड़ों बच्चे जो कोरोना महामारी के चलते पढ़ने लिखने की आदत से दूर हो गए थे, इन पुस्तकालयों में आकर पुन: पढ़ाई को अपने जीवन का हिस्सा बनाने लगे हैं. इन पुस्तकालयों की सबसे अच्छी बात यह है कि यहां आने वाले छात्र बिना झिझक but अपनी बात व परेशानियॉं अपने ही समकक्ष संचालकों को बता पाते हैं व खेल-खेल में सीखने-सिखाने की कोशिश करते हैं.

कई बार संचालकों को पुस्तकालय में कम बच्चों के आने की भी शिकायत रहती है लेकिन इस पर महेश पुनेठा जी उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि जिस काम का बीड़ा उन्होंने उठाया है वह एक-दो दिन का नहीं है वरन अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है जिसके परिणाम so समाज में दूरगामी होंगे. इसलिए संचालकों को संख्या के स्थान पर पुस्तकालयों की स्थानीय बच्चों तक पहुँच व उसकी गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिये और इस सामुदायिक पुस्तकालय के आंदोलन को सिर्फ अपने क्षेत्र तक सीमित न रख कर देश के अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रेरणास्रोत बनाना चाहिए.

(लेखक एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय में शोधार्थी है)

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