धार्मिक मान्यता के अनुसार सत्य और श्रद्धा से किया गया कर्म ‘श्राद्ध’ कहलाता
- डा. मोहन चंद तिवारी
सामान्य तौर पर पितृपक्ष में किया जाने वाला श्राद्ध-तर्पण आदि कृत्य पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है. धार्मिक मान्यता के अनुसार सत्य और श्रद्धा से किया गया कर्म ‘श्राद्ध’ कहलाता है और जिस कर्म से माता-पिता और आचार्य तृप्त हों, वह ‘तर्पण’ है. जहां तक वैदिक परंपरा की बात है, संहिता ग्रन्थों में कहीं
‘श्राद्ध’ शब्द का उल्लेख नहीं है किन्तु इसके लिए ‘पितृयज्ञ’ का उल्लेख मिलता है, जिसे प्रकारान्तर से पितरों की समाराधना से जुड़ी यज्ञविधि ही माना जा सकता है. वैदिक काल में आहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पादित किया जाने वाला यज्ञ ‘पिण्ड-पितृयज्ञ’ कहलाता था. महा-पितृयज्ञ चातुर्मास्य में सम्पादित होता था एवं ‘अष्टका’ यज्ञ का भी आरम्भिक वैदिक साहित्य में उल्लेख आता है.आश्विन माह में पितृपक्ष के बारे में भी अथर्ववेद में उल्लेख आया है –अव
“सर्वास्ता अव रुन्धे स्वर्ग: षष्ट्यां शरत्सु निधिपा अभीच्छात्..” -अथर्व.,12.3.41
अर्थात् शरद ऋतु में छठी संक्रांति कन्यार्क (आश्विन माह में जो पितृपक्ष) आता है उसमें जो अभीप्सित वस्तुएं पितरों को प्रदान की जाती हैं,वे सब स्वर्ग को देने वाली होती हैं.
अमावस्या
अथर्ववेद के ‘अमावस्या सूक्त’ के अनुसार जब देवता
“अहमेवास्म्यमावास्या मामा
वसन्ति सुकृतो मयीमे.
मयि देवा उभये साध्या-
श्चेन्द्रज्येष्ठाः समगच्छन्त सर्वे॥”
-अथर्व.7.84.2
अर्थात् सूर्य और चन्द्र दोनों ‘अमा’ जब साथ-साथ बसते हों, वह तिथि अमावस्या मैं ही हूं. मुझ में सब साध्यगण, पितृविशेष और इन्द्र प्रभृति देवता इकट्ठे होते हैं.
अव
अथर्ववेद के 18वें कांड,के चौथे सूक्त के वे दो मंत्र भी वैदिक कालीन पितृपक्ष के महत्त्व को समझने की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं, जिनमें सोमपान
करने वाले पितृगणों को ‘अमावस्या’ की तिथि के दिन पितृयान मार्ग से मनुष्यलोक में आकर आयुष्य,सन्तति,धनसंपदा से परिपुष्ट करने के लिए आह्वान किया गया है और यह भी कहा गया है कि वे ‘अमावस्या’ के दिन सब घरों में आकर हविष्य का सेवन करें और यज्ञकर्त्ता को श्रेष्ठ सन्तान का आशीर्वाद देने के बाद पुनः पितृयान मार्ग से ही अपने पितृलोक की ओर प्रस्थान करें-“आ यात पितरः सोम्यासो
गम्भीरैः पथिभिः पितृयाणैः.
आयुरस्मभ्यं दधतः प्रजां च
रायश्च पोषैरभि नः सचध्वम्॥
परा यात पितरः सोम्यासो
गम्भीरैः पथिभिः पूर्याणैः.
अधा मासि पुनरा यात नो
गृहान् हविरत्तुं सुप्रजसःसुवीराः॥”
-अथर्व.,18.4.62-63
अथर्ववेद में उल्लेख मिलता है कि श्राद्ध कृत्य के
अवसर पर स्वधान्न के रूप में तिल मिश्रित जौ की खीलों को पितरजनों को अर्पित किया जाता था और यह कामना भी की जाती थी वह स्वधान्न परलोक में उन्हें बृहद आकार वाला और बड़ी मात्रा में रूपांतरित होकर मिले तथा राजा यम उन्हें उन खीलों के उपभोग की आज्ञा प्रदान करें-अव
“यास्ते धाना अनुकिरामि
तिलमिश्राः स्वधावतीः.
तास्ते सन्तूद्भ्वीः प्रभ्वीस्तास्ते
यमो राजानु मन्यताम्॥”
-अथर्व.,18.4.43
अव
वैदिक कालीन पितृयज्ञ (सोमयाग) के समय पितरजनों
के दानार्थ एक शकट (बैलगाड़ी) का भी वैदिक मंत्रों में उल्लेख मिलता है.सम्भवतः वह शकट संवाहक शरीर तंत्र या यज्ञीय प्रवाह का प्रतीक रहा हो. अथर्ववेद में पितर जनों से कहा गया है कि इसी शकट से तुम्हारे पुराने और नए पूर्वज पितृलोक को गए थे. इस समय इस शकट (बैल गाड़ी) में दो बैलों को जोता गया है.ये वृषभ तुम्हें पुण्यात्माओं के लोक में ले जाएं-“इदं पूर्वमपरं नियानं येना
ते पूर्वे पितरः परेताः.
पुरोगवा ये अभिसाचो अस्य
ते त्वा वहन्ति सुकृतामु लोकम्॥”
-अथर्व.,18.4.44
हालांकि ये दोनों बैलों से युक्त बैलगाड़ी का
रूपक पितृयाग के सन्दर्भ में अत्यंत दार्शनिक पहेली है, जिसकी विस्तृत चर्चा ब्राह्मणकालीन सोमयाग के सन्दर्भ में आगे की जाएगी.अथर्ववेद के एक मंत्र में पृथिवीलोक अंतरिक्षलोक
और द्यूलोक तीनों स्थानों में विराजमान पितरों को श्रद्धापूर्वक स्वधापूरित हवि देने का उल्लेख भी मिलता है-“स्वधा पितृभ्यः पृथिविषद्भ्यः॥
स्वधा पितृभ्यो अन्तरिक्षसद्भ्यः॥
स्वधा पितृभ्यो दिविषद्भ्यः॥”
-अथर्व.,18.4.78-80
अथर्ववेद में पिता,पितामह और प्रपितामहों की तीन पीढ़ियों के पूर्वजों को श्राद्ध से तृप्त करते हुए उन्हें नमन किया गया है-
“ये न पितुः पितरो ये पितामहा
य आविविशुरुर्वन्तरिक्षम्.
य आक्षियन्ति पृथिवीमुत द्यां
तेभ्यः पितृभ्यो नमसा विधेम॥”
-अथर्व.,18.2.49
अव
उपर्युक्त वैदिक मन्त्रों से इतना तो स्पष्ट है कि
सनातन हिन्दुधर्म की परम्परा में श्राद्धकर्म और पितृतर्पण की परम्परा उत्तरकालीन पुराणपंथियों या ब्राह्मण वर्ग की देन नहीं है,जैसा कि श्राद्ध कर्म के विरोधी प्रायः ये आरोप लगाते आए हैं.दरअसल, वर्त्तमान में पौराणिक या धर्मशास्त्रीय विधि से श्राद्धकर्म और तर्पण आदि अनुष्ठान की जो परम्परा प्रचलित है,उसका प्रारम्भ वैदिक काल से ही चुका था.आज श्राद्धविधि के रूप में पितृ पितामह और प्रपितामहों को पिंडदान देकर उन्हें तृप्त करने का धार्मिक अनुष्ठान भी वेदों के काल से ही चला आ रहा है. लेकिन वेद और पुराण दोनों
की रीति और विधि थोड़ी भिन्न होती गई.आगे चलकर पुराण और स्मृतियों में वेद आधारित श्राद्धकर्म की परिभाषा और विधियों को भी विशेष कर्मकांडीय पद्धति द्वारा निरूपित किया जाने लगा.धर्मशास्त्रों में श्राद्ध की परिभाषा
वेदोत्तर काल में श्राद्ध की परिभाषा भी
विभिन्न धर्मशास्त्र और पुराणग्रन्थों द्वारा भिन्न भिन्न रूपों और प्रयोजनों से की जाने लगी.उत्तरवर्त्ती काल की श्राद्ध विषयक मान्यताएं मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों,पुराणों तथा वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पकता, श्राद्धतत्व और पितृदयिता आदि अनेकानेक ग्रंथों में विविध रूप से मिलती हैं.उदाहरण के लिए महर्षि पाराशर के
अनुसार देश,काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मंत्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाए, वह श्राद्ध कहलाता है –“देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत्. तिलैर्दभैंश्च मंत्रैश्च श्राद्धं स्वाच्छद्धया युतम..”
महर्षि सुमन्तु कहते हैं कि- “श्राद्धात् परतरं नात्यच्छे्यस्करमुदाहृ तम्.
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्राद्ध कुर्याद्विचक्षणः..”अर्थात् इस जगत में श्राद्ध से बढ़कर श्रेष्ठ अन्य कोई भी कल्याण प्रद उपाय नहीं है. अतः बुद्धिमान मनुष्य का यह परम् कर्तव्य है कि वह यत्नपूर्वक श्राद्ध अवश्य करे.
ब्रह्मपुराण के अनुसार देश, काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धापूर्वक पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मण को जो भी दिया जाए,उसे श्राद्ध कहते हैं.
कूर्मपुराण में कहा गया है कि जो
“योsनेन विधिना श्राद्धं
कुयार्द वै शान्तमानसः.
व्यपतकल्मषो नित्यं
याति नावर्तते पुनः.”
अव
पुराणों में पितृगण की संतुष्टि तथा
आत्मकल्याण के लिए भी श्राद्ध के महत्त्व को विशेष रूप से प्रतिपादित किया जाने लगा था. ब्रह्मपुराण के अनुसार श्राद्ध करने से न केवल अपने पितरों की तृप्ति होती है बल्कि इससे सम्पूर्ण जगत को भी संतुष्टि प्राप्त होती है-अव
“यो वा विधानतः श्राद्धं कुर्यात
स्वाविभवोचितम्.
आब्रह्मस्तम्बपर्यंत जगत्
प्रीणाति मानवः..
ब्रह्मेन्द्ररूद्रनासतय-
सूर्यानल सुमारूतान्.
विश्वेदेवान् पितृगणन्
पर्यग्निमनुजान् पशून..
सरीसृपान पितृगणान्
यच्वान्यम्दूत संघितान्.
श्राद्धं श्रद्धान्वितः कुर्वन
प्रीणयत्य खिलं जगत..”
अर्थात् जो मनुष्य अपने वैभवानुसार श्राद्ध करता है, वह साक्षात् ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त प्राणियों को तृप्त करता है.ऐसा मनुष्य ब्रह्मा, इन्द्र, रूद्र,नासत्य (अश्विनी कुमार), सूर्य, अनल (अग्नि), वायु,
विश्वेदेव, पितृगण, मनुष्यगण, पशुगण, समस्त भूतगण तथा सर्पगण को भी संतुष्ट करता हुआ संपूर्ण जगत को संतुष्ट करता है.अव
विष्णुपुराण का भी कुछ ऐसा ही मत है कि
श्राद्ध करने से आठों वसु,पक्षी मनुष्य,पशु, सरीसृप और ऋषिगण आदि समस्त भूत प्राणीजन तृप्त होते हैं. (विष्णु पुराण,3.14.1-2)अव
संक्षेप में उत्तरवर्त्ती काल के धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में
सनातन धर्म के अनुयायी गृहस्थ जनों का यह दायित्व माना गया है कि है कि वह हव्य से देवताओं का, काव्य से पितृगणों का तथा अन्न से अपने बन्धुओं का श्रद्धापूर्वक सत्कार एवं पूजन करे. इससे मनुष्य को परलोक में पुष्टि,विपुलयश,कीर्ति तथा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है.पुराणों में श्राद्धों के विभिन्न प्रकार
उत्तरवर्त्ती काल में ‘त्रिविधं श्राद्धमुच्यते’
की मान्यता के अनुसार मुख्य रूप से तीन प्रकार के श्राद्ध प्रचलित थे. मत्स्यपुराण के अनुसार इन्हें नित्य,नैमित्तिक एवं काम्य कहा गया है. यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है. जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य,वृद्धि और पार्वण श्राद्ध के नाम से जाना जाता है. पर भविष्य पुराण और विश्वामित्र स्मृति के अनुसार बारह प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख आया है,जो इस प्रकार हैं-- नित्य- प्रतिदिन किए जाने वाले श्राद्ध.
- .नैमित्तिक- वार्षिक तिथि पर किए जाने वाले श्राद्ध.
- काम्य- किसी कामना के लिए किए जाने वाले श्राद्ध.
- नान्दी- किसी मांगलिक अवसर पर किए जाने वाले श्राद्ध .
- पार्वण – पितृपक्ष, अमावस्या एवं तिथि आदि पर किए जाने वाले श्राद्ध.
- सपिण्डन- त्रिवार्षिक श्राद्ध जिसमें प्रेतपिण्ड का पितृपिण्ड में सम्मिलन कराया जाता है.
- गोष्ठी- पारिवारिक या स्वजातीय समूह में किया जाने वाला श्राद्ध.
- शुद्धयर्थ- शुद्धि हेतु किया जाने वाला श्राद्ध. इसमें ब्राह्मण भोज आवश्यक होता है.
- कर्मांग-षोडष संस्कारों के निमित्त किया जाने वाला श्राद्ध.
- दैविक- देवताओं के निमित्त किया जाने वाला श्राद्ध.
- यात्रार्थ- तीर्थस्थानों में किया जाने वाला श्राद्ध.
- पुष्ट्यर्थ- स्वयं एवं पारिवारिक सुख-समृद्धि व उन्नति के लिए किया जाने वाला श्राद्ध.
अव
जहां तक श्राद्ध करने का समय तिथि आदि का प्रश्न है
आश्विन मास का पितृपक्ष के सोलह दिन मुख्य हैं,किन्तु इनके अतिरिक्त अन्य खास तिथियों में भी श्राद्ध किया जा सकता है. ‘धर्मसिन्धु’ ग्रन्थ में श्राद्ध के लिए केवल पितृपक्ष ही नहीं,बल्कि 96 कालखंड का विवरण प्राप्त होता है,जो इस प्रकार है- वर्ष की 12 अमावास्याएं, 4 पुण्यादि तिथियां,14 मन्वादि तिथियां,12 संक्रान्तियां, 12 वैधृति योग,12 व्यतिपात योग,15 पितृपक्ष,5 अष्टका,5 अन्वष्टका और 5 पूर्वेद्यु:.वर्त्तमान में श्राद्धकर्म की प्रासंगिकता
पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन
पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं.इन्हीं को पितर कहते हैं. दिव्यपितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है.तर्पण के बारे में एक प्रसिद्ध उक्ति है-
“एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन्
दद्याज्जलाज्जलीन्.
यावज्जीवकृतं पापं
तत्क्षणादेव नश्यति.”
अव
अर्थात् पितृपक्ष के दौरान जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल
की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं,उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है. भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं. इन सोलह दिनों में जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है,उसी तिथि को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है. शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है,उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है.श्राद्धकर्म से पितृदोष निवारण
पितृपक्ष पितृदोष के निवारण का भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है.पितृदोष के अनेक कारण हो सकते हैं.परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से,अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से,
मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से,उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से जो अनेक प्रकार के पितृदोष उत्पन्न होते हैं, उन सब का प्रायश्चित भी इसी पितृपक्ष में किया जा सकता है.अव
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्म कुंडली में
दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, नौवें दसवें भाव में सूर्य-राहु या सूर्य-शनि की युति हो तो यह पितृदोष माना जाता है. सूर्य यदि तुला राशि में स्थित होकर राहु या शनि के साथ युति करे तो अशुभ प्रभावों में और ज्यादा वृद्धि होती है. इन ग्रहों की युति जिस भाव में होगी उस भाव से संबंधित व्यक्ति को कष्ट और परेशानी अधिक होगी तथा हमेशा परेशानी बनी ही रहेगी. लग्नेश यदि छठे आठवें बारहवें भाव में हो और लग्न में राहु हो तो भी पितृदोष बनता है. परिवार में अशांति, वंश वृद्धि में रुकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएं होते हुए भी मन अशांत रहना आदि पितृदोष के लक्षण बताए गए हैं.अव
यदि परिवार के किसी सदस्य की
अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृदोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाना आवश्यक होता है. अपने माता-पिता तथा अन्य सम्मानीय जनों का अपमान करने से भी पितृदोष उत्पन्न हो सकता है. इसलिए प्रतिवर्ष पितृपक्ष में विशेष पूजा,अनुष्ठान सहित अपने पूर्वजों का श्राद्ध,तर्पण करके इस पितृदोष से छुटकारा मिल सकता है.किन्तु इन सभी पितृपक्ष से सम्बंधित क्रियाओं को करने के लिए किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ और ज्योतिषशात्र में पारंगत विद्वान ब्राह्मण से परामर्श लेना भी बहुत आवश्यक है.अव
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)