
- हिमांशु जोशी
हिंदी पखवाड़ा केवल भाषा का उत्सव नहीं, बल्कि उन लोगों को याद करने का समय भी है जिन्होंने हिंदी को समाज की सशक्त आवाज़ बनाया. उत्तराखंड जैसे छोटे से राज्य ने भी हिंदी पत्रकारिता को ऐसे तीन संपादक दिए जिनका काम राष्ट्रीय स्तर तक सम्मानित हुआ.
राजीव लोचन साह ने नैनीताल समाचार के माध्यम से हिंदी को आंदोलनों और लोकसंस्कृति से जोड़ा.
बद्रीदत्त कसनियाल ने अपनी ज़मीनी रिपोर्टिंग से पहाड़ के सवालों को हिंदी पत्रकारिता की मुख्यधारा में पहुँचाया.
नवीन जोशी ने भले ही कर्मभूमि बाहर बनाई हो, लेकिन उनकी रचनाएं और संपादन उत्तराखंड की संवेदनाओं से जुड़कर हिंदी को नया विस्तार देते रहे.
इन तीनों ने अपने-अपने तरीके से हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध किया और उसे व्यवसाय नहीं बल्कि सामाजिक दायित्व साबित किया.
राजीव लोचन साह: आंदोलन और पत्रकारिता का कॉकटेल
‘नैनीताल समाचार’ के संपादक राजीव लोचन साह ने अपने 47 वर्षों के सफर में यह दिखाया कि पत्रकारिता केवल खबर छापना नहीं, बल्कि जनता के सरोकारों की लड़ाई है. वर्ष 2024 में उन्हें भैरव दत्त धूलिया पत्रकारिता पुरस्कार मिला.
नैनीताल के राजीव लोचन साह बचपन से ही लिखने पढ़ने के शौकीन थे. कॉलेज जाते ही उनका यह शौक परवान चढ़ा और उस समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘नई कहानियां’ में उनकी दो कहानियां प्रकाशित भी हो गई.
वर्ष 1971 में ‘पहल’ के सम्पादक ज्ञानरंजन का नैनीताल आना हुआ तो राजीव की उनके साथ जम कर घुमक्कड़ी हुई. हिंदी को लेकर अपने अंदर उथल-पुथल मचा रहे विभिन्न प्रश्नों के बारे में राजीव ने ज्ञानरंजन से बातचीत करी. ज्ञानरंजन से मिले प्रेस खोल प्रकाशन के क्षेत्र में जाने के सुझाव को दिल से लगा राजीव अपने परिवार से बातचीत करने के बाद ‘प्रेस’ की एबीसीडी सीखने इलाहाबाद चले गए. वहां अपने रिश्तेदार मनोहर लाल जगाती के घर रहते हुए उनका सम्पर्क रामाप्रसाद घिडियाल से हुआ और उनसे राजीव को प्रेस के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला. इलाहाबाद से वापस आ उन्होंने वर्ष 1973 में राजहंस प्रेस खोला पर जब तक वह जमा तब तक देश में इमरजेंसी का साइरन बज गया और समाचार पत्र शुरू करने में देरी हुई.
वर्ष 1977 में इमरजेंसी समाप्त होने के बाद ‘नवनीत’ पत्रिका से प्रभावित राजीव लोचन साह ने अपने साथ नैनीताल के दो युवाओं हरीश पन्त और पवन राकेश को भी जोड़ा और लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को मजबूत करने के लिए वर्ष 1977 के स्वतंत्रता दिवस को ‘नैनीताल समाचार’ की शुरुआत करने के लिए चुना.
‘नैनीताल समाचार’ नाम राजीव के द्वारा समाचार पत्र स्वीकृत कराने के लिए भेजे गए नामों में तीसरे नम्बर पर था. राजीव कहते हैं कि वह समाचार पत्र का नाम ‘देवदार’ रखना चाहते थे.
गांधीवादी चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदर लाल बहुगुणा का मिला मार्गदर्शन
नैनीताल समाचार एक पाक्षिक अखबार के रुप में शुरू हुआ जिसको अपनी शुरुआत से ही गांधीवादी चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदर लाल बहुगुणा का मार्गदर्शन मिला. दिल्ली से छप रहे अखबारों के उत्तराखंड में देर से पहुंचने की वज़ह से यहां खबरों का सूखा बना रहता था. नैनीताल समाचार के आगमन ने उसे दूर किया और देखते ही देखते अख़बार अपने पहले अंक से ही उत्तराखंडवासियों के बीच लोकप्रिय हो गया.
लेखकों, पत्रकारों की बात की जाए तो वर्तमान समय के प्रसिद्ध इतिहासकार पद्मश्री शेखर पाठक के साथ नवीन जोशी, गोविंद पन्त राजू जैसे भविष्य के नामी पत्रकारों के साथ इस अखबार की शुरुआत हुई.
उत्तराखंड के लिए हमेशा से ही मुख्य समस्या रहे प्रवास पर इस अख़बार के दूसरे अंक से ही ‘प्रवास की डायरी’ छपी जो अगले सात साल तक जारी रही और तीसरे अंक में तवाघाट दुर्घटना पर एक रपट प्रकाशित हुई जिसमें पत्रकार के नाम की जगह लिखा तो ‘विशेष प्रतिनिधि’ गया था पर वह ख़बर सुंदर लाल बहुगुणा ने लिखी थी.
एक पत्रकार जो आंदोलनकारी बन गया
6 अगस्त 1977 को नैनीताल में वनों की नीलामी पर ख़बर करने राजीव अपने मित्र विनोद पांडे के साथ गए थे पर वहां स्थिति ऐसी बनी कि उसको लेकर राजीव लोचन साह कहते हैं कि मैं वहां गया तो एक पत्रकार के तौर पर था पर जब बाहर आया तो एक आंदोलनकारी बन चुका था.
उसी साल नवंबर में वनों की नीलामी के विरोध में हुए प्रदर्शनों में गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ भी आंदोलनकारी बन गए और नैनीताल समाचार के साथ उनका अटूट सम्बन्ध शुरू हुआ. नैनीताल में पढ़ते हुए पलाश विश्वास और कपिलेश भोज भी नैनीताल समाचार के साथ जुड़ गए.
अखबार बन्द करने के विचार से नए सदस्यों के जुड़ने की कहानी
मई 1982 में समाचार पत्र का कार्य पूरा समझकर इसके कर्ताधर्ताओं ने इसे बंद करने की ठानी और इसको लेकर अख़बार में एक छोटा सा सन्देश भी लिख दिया पर उसके बाद पत्रों से पाठकों के इसे बंद न करने की गुज़ारिश पर अख़बार चलता रहा. वर्ष 1983 में ‘उत्तराखंड की बाढ़, भूस्खलन और तबाही’ शीर्षक से छपा आलेख उत्तराखंड के इतिहास में हुई प्राकृतिक आपदाओं को दिखाता है और उन पर शोध करने का बेहतरीन माध्यम है. इतिहास पर नित्यानन्द मिश्रा की लिखी श्रृंखला पर तो ‘कुर्मांचल गौरव गाथा’ नाम से पुस्तक भी छप गई है.
शेखर पाठक बताते हैं कि साल 1974 की अस्कोट – आराकोट यात्रा में उन्हें इम्तिहान की वज़ह से जल्दी वापस लौटना पड़ा था पर जब वह 1984 में इस यात्रा पर वापस गए तो नैनीताल समाचार के बहुत से नए सदस्य बने. गोविंद पन्त राजू नैनीताल समाचार की रसीद यात्रा के दौरान अपने हाथों में ही पकड़े रहते थे.
जनांदोलनों का प्रतिबिंब
उत्तराखंड से उत्तरांचल और फिर उत्तराखंड बनने का पूरा सफ़र हम नैनीताल समाचार में पढ़ सकते हैं. यह यात्रा भी नैनीताल समाचार के साथ ही चलती प्रतीत होती है. प्रदेश में होने वाले हर प्रकार के जनांदोलनों की यह आवाज़ बनते गया. नन्द किशोर भगत समाचार से जुड़ उसमें नयापन लाने का प्रयास करते रहते थे तो देवेंद्र नैलवाल और लक्ष्मण बिष्ट ‘बटरोही’ जैसे साहित्यिक लोग भी इसके लिए लिखते रहे.
वर्ष 1984 में प्रदेश के अंदर शराब विरोध में चल रहे आंदोलन की ख़बर को समाचार पत्र ने ‘नशा नही रोज़गार दो’ शीर्षक से छापा और उसकी वज़ह से जन इस आंदोलन से जुड़ता चला गया. ‘अल्मोड़ा मैग्नेसाइट लिमिटेड’ को लेकर यह कहा जाता था कि उसकी वज़ह से स्थानीय लोगों को नुक़सान और उद्योगपतियों को फ़ायदा हो रहा है तो वर्ष 1988 में अख़बार ने जनता की आवाज़ बन एक आलेख छापा जिसका शीर्षक था ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी उत्तराखंड में उग गई है.’
गोविंद पन्त राजू के लखनऊ चले जाने के बाद महेश जोशी ने नैनीताल समाचार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली. उन्होंने अकेले ही समाचार के लिए सदस्यता अभियान चलाया. विजय मोहन सिंह खाती, राजीव नयन बहुगुणा, प्रदीप टम्टा, चंद्रशेखर तिवारी, ताराचन्द्र त्रिपाठी, यशोधर मठपाल, राजशेखर पन्त, दिनेश उपाध्याय भी समय के साथ नैनीताल समाचार से जुड़ते चले गए और ख़बरों का सिलसिला आगे बढ़ता रहा. वर्ष 1994 में उत्तराखंड राज्य आंदोलन के बीच हुए मसूरी हत्याकांड पर अख़बार ने ख़बर छापी ‘मसूरी : लाशों को बो कर उत्तराखंड के फूल उगाओ.’
नया राज्य बनने के बाद भी नैनीताल समाचार ने जन की ख़बरों को छापना नही छोड़ा और अपना पत्रकारिता धर्म निभाते हुए समाचार पत्र जन की आवाज़ बना रहा. अगस्त 2011 में प्रदेश में बन रहे बांधों से पर्यावरण को होने वाले नुक़सान पर ‘बांध के लिए वन कानून आड़े नही आते’ नाम से ख़बर छपी. अख़बार सिर्फ़ उत्तराखंड ही नही राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण घटनाओं पर भी अपनी राय मज़बूती के साथ रखता रहा.
शेखर पाठक के अनुसार नैनीताल समाचार की यह विशेषता रही है कि उसके सदस्यों में अधिकतर सदस्यों के आंदोलनकारी होने बावजूद उसने दूसरा पक्ष भी अपने पाठकों के सामने अच्छे तरीके से रखा.
नैनीताल समाचार में विशेष
आज जब उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्रों में पहुंचना आसान है तब भी बहुत से क्षेत्रीय व राष्ट्रीय समाचार पत्र, वेब पोर्टल्स वहां घटित कोई घटना पर किसी अन्य की ली तस्वीरों, वीडियो के माध्यम से अपनी ख़बर देते हैं पर आज से चार दशक पहले जब उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्रों में पहुंचना आसान नही था तब वहां घटित किसी आपदा में नैनीताल समाचार के संवाददाता पहुंच जाते थे और अपने पाठकों तक ग्राउंड रिपोर्ट पहुंचाते थे.
नैनीताल समाचार अपने पाठकों के साथ जुड़ने के लिए नए-नए प्रयोग करता रहा है. 1990 में चल रहे आरक्षण आंदोलन के दौरान दो पृष्ठ के परिशिष्ट छाप सड़कों पर बेचे गए थे. वर्ष 1993 में राकेश लाम्बा द्वारा शुरू गई निबंध प्रतियोगिता का नैनीताल के छात्रों को अब भी इंतज़ार रहता है.
साल 1994 के राज्य आन्दोलन के दौरान नैनीताल समाचार का ‘सांध्यकालीन उत्तराखंड बुलेटिन’ बेहद लोकप्रिय हुआ. 3 सितंबर से 25 अक्टूबर तक नैनीताल के दो स्थानों पर रेडियो बुलेटिन की तर्ज़ पर बुलेटिन पढ़ा गया. जिसका प्रयोग बाद में देश के अन्य हिस्सों दिल्ली के जंतरमंतर, उत्तराखंड के गोपेश्वर और उत्तरकाशी में भी किया गया. अंटार्कटिक की धरती पर पहली बार गए पत्रकार गोविंद पन्त राजू की डायरी भी बहुत लोकप्रिय हुई.
समाचार पत्र में चिट्ठी पत्र, सौल कठौल और आशल कुशल भाग अपने आप में अनोखे हैं. ‘आशल कुशल’ उत्तराखंड की जिलावार ख़बरों से एकसाथ रूबरू करवाता है.
साहित्य अंक, पर्यावरण अंक, होली अंक, हरेला अंक एक नया प्रयोग थे. होली अंक में होली के गीत रंगीन पृष्ठों पर प्रकाशित होने के बाद उत्तराखंड की होली का अहसास कराते अलग ही आनन्द देते हैं. उत्तराखंड के लोकपर्व हरेला के लिए हर साल एक विशेष हरेला अंक आता है. अंक के साथ पाठकों के लिए हरेले का तिनका भी भेजा जाता है. होली अंक और हरेला अंक के यह प्रयोग भारत या विश्व के किसी समाचार पत्र में शायद ही देखने को मिले.
इतिहासकार शेखर पाठक बताते हैं कि सौल कठौल स्तम्भ को देख नैनीताल समाचार की रचनात्मकता की तारीफ़ तब के वरिष्ठ पत्रकार कैलाश साह ने भी की थी.
नैनीताल समाचार को लेकर दो भावनात्मक किस्सों को याद करते हुए शेखर पाठक कहते हैं कि लखनऊ में उन्होंने किसी के घर में हरेले अंक को फ्रेम किया हुआ देखा था और ऐसे ही किसी ने वहां अपने घर के ड्राइंग रूम की टेबल में उसका होली अंक फिक्स किया था.
शेखर पाठक ने कहा नैनीताल समाचार में फ़ैज़ की कविताओं के पोस्टर अपने आप में अनोखे होते थे. तवाघाट घटना पर लेटर प्रेस में मेटल को टेढ़ा कर नक्शा बनाया गया था. तकनीक के अभाव में भी समय से आगे की सोच वाले ऐसे बहुत से प्रयोग नैनीताल स्थित नैनीताल समाचार के कार्यालय में देखे जा सकते हैं.
डिजिटल पत्रकारिता में नैनीताल समाचार और चुनौती
नैनीताल समाचार की वेबसाइट है और इसके पुराने अंकों को अशोका यूनिवर्सिटी ने अपनी वेबसाइट में संरक्षित किया है.
समय के साथ बहुत से नए साथी भी नैनीताल समाचार के साथ जुड़ते रहे पर नैनीताल समाचार अपने साथ किसी अन्य की आर्थिक जरूरत कभी पूरी नही कर पाया इसलिए कोई भी इससे लंबे समय तक नही जुड़े रहा.
नैनीताल समाचार का डिजिटल कार्य देखने वाली विनीता यशस्वी कहती हैं कि वाट्सएप ग्रुप ‘समाचार की टीम’ में समाचार के भविष्य को लेकर समय-समय पर रणनीति बनाई जाती है.
नैनीताल समाचार में 17 सितंबर 2020 को प्रकाशित आलेख ’18 सितंबर नैनीताल क्लीनअप डे : क्या देश कुछ अनोखा देखेगा’ पढ़ने के बाद नैनीताल में स्वच्छता अभियान से जुड़ी संस्था ‘ग्रीन आर्मी’ के जय जोशी कहते हैं कि यह आलेख पढ़ने के बाद उनमें कुछ करने का जोश भर गया. वर्ष 2021 के अप्रैल अंक की ख़बर ‘ये आग तो बुझ जाएगी, मगर सवाल तो सुलगते रहेंगे’ के साथ उत्तराखंड की वनाग्नि पर सवाल उठाते नैनीताल समाचार भारतीय हिंदी पत्रकारिता में अपना काम करते जा रहा है.
शेखर पाठक कहते हैं कि समाचार से नए लोग अधिक संख्या में जुड़ने चाहिए. जिससे युवाओं के बीच भी यह लोकप्रिय हो. फेक न्यूज़ के सहारे कोई अधिक समय तक नही टिक सकता. समाचार की दुनिया में वही टिके रहेगा जो रचनात्मकता के साथ सही खबरें दिखाएगा. इन सब के लिए नैनीताल समाचार को आर्थिक रूप से मज़बूत करने की योजना भी बनानी होगी.
नवीन जोशी: पत्रकारिता से उपजा साहित्य
हिंदी साहित्य जगत में परिचित नाम लेखक नवीन जोशी की कहानी भी शेखर जोशी से बहुत हद तक मिलती-जुलती है. दिवंगत शेखर जोशी पलायन कर कई साल पहले उत्तर प्रदेश के पहाड़ों (जो अब उत्तराखंड के पहाड़ हैं) से मैदानी राज्य राजस्थान पहुंचे और लेखक बने थे. वैसे ही नवीन जोशी भी पहाड़ों से लखनऊ पहुंचे थे.
नवीन जोशी में अपने गांव के छूटने का दर्द हमेशा जिंदा रहा और उसी दर्द ने उन्हें लेखक बना दिया.
अखबारों में लिखते हुए साहित्य रचना शुरू करने वाले नवीन जोशी आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान, राजेश्वर प्रसाद सिंह कथा सम्मान, गिर्दा स्मृति सम्मान समेत कई अन्य सम्मानों से सम्मानित हैं.
उत्तराखंड के गणाई-गंगोली क्षेत्र के रैंतोली गांव के मूल निवासी नवीन जोशी से जब उनके अंदर के लेखक की कहानी पूछी जाती है, तो वे अपने बचपन को याद करते हैं. वह कहते हैं उनके गांव से प्राथमिक विद्यालय दूर था, जिस कारण उन्हें विद्यालय नहीं भेजा गया. लखनऊ में काम करने वाले उनके पिता उन्हें छह-सात साल की उम्र में पढ़ाने के लिए अपने साथ ले गए. उनकी मां गांव में ही रहती थीं.
नवीन जोशी बताते हैं कि उस समय ऐसा ही होता था, घर के पुरुष पढ़ाई और रोजगार के लिए घर से दूर चले जाते थे और महिलाएं गांव व घर संभालती थीं.
गांव की याद से लिखना शुरू हुआ
नवीन जोशी ने कक्षा तीन से लखनऊ में अपनी पढ़ाई शुरू की, जहां उन्हें अपने गांव की बहुत याद आती थी.
पिता दिन में अपनी नौकरी पर चले जाते थे, तो वे घर में अकेले रह जाते थे.
नवीन बताते हैं कि तब मैं रोते हुए अपनी मां और गांव के बिछड़े दोस्तों को चिट्ठी लिखता था.
उन्होंने एक डायरी में पहाड़ की यादों को लिखना शुरू किया और इसी से उनका लेखन का सिलसिला शुरू हुआ.
लखनऊ के जिस इलाके में नवीन रहते थे, वहां पहाड़ी लोग बहुत थे.
उत्तराखंड के गांवों से आए ये लोग अपने बेटों, भाइयों और भतीजों को शिक्षा या नौकरी के लिए गांव से लाकर अपने साथ रखते थे.
लखनऊ के कई लोग वहां अपने घरों के लिए पहाड़ी नौकर, ड्राइवर आदि ढूंढने भी आया करते थे.
नवीन को धीरे-धीरे अखबार पढ़ने का शौक लग गया.
वे कहते हैं कि मैंने आठवीं कक्षा में पहाड़ पर एक लेख लिखकर ‘स्वतंत्र भारत’ अखबार के लिए भेजा था.
उस लेख में उन्होंने पाठकों को संबोधित करते हुए लिखा था, ‘तुम गर्मियों की छुट्टी में पहाड़ जा रहे हो. तुम्हें पहाड़ बुला रहे हैं, लेकिन तुम वहां की सुंदरता के साथ-साथ वहां का दर्द भी देखना. तुम यह देखना कि वहां औरतें कैसे घर का काम करती हैं और खतरनाक पहाड़ियों से घास काटती हैं.
तुम यह भी देखकर आना कि वहां के लड़के शहरों में जाकर होटलों में झाड़ू लगाते हैं और बर्तन मांजते हैं.’
उनका यह लेख ‘स्वतंत्र भारत’ में छप गया, जिससे उन्हें आगे लिखने का हौसला मिला.
शेखर पाठक का प्रभाव
धीरे-धीरे नवीन जोशी की सामाजिक समझ बढ़ी और हाईस्कूल में प्रथम श्रेणी आने पर मोहल्ले में उनका बड़ा नाम हुआ. इसी बीच, भविष्य में बड़ा नाम बनने वाले शेखर पाठक भी अल्मोड़ा से बीए करने के बाद नौकरी की तलाश में लखनऊ पहुंचे थे.
शेखर पाठक पीडब्ल्यूडी में नौकरी करने लगे और संयोग से नवीन जोशी के मोहल्ले में ही रहने आ गए.
नवीन जोशी कहते हैं जब मैं शेखर पाठक से मिला, तो वे ‘दिनमान’ और अन्य पत्रिकाएं पढ़ते थे और कहानियां लिखते थे.
मैं भी उनके साथ सुबह-शाम बैठने लगा, ‘दिनमान’ पढ़ने लगा और कहानियां लिखकर उन्हें दिखाने लगा.
शेखर पाठक की संगत से नवीन जोशी को समाज के बारे में नई समझ बनी और उनका दायरा बढ़ा.
कुछ समय बाद शेखर पाठक उच्च शिक्षा के लिए वापस अल्मोड़ा चले गए.
लेकिन तब तक शेखर पाठक के माध्यम से नवीन जोशी आकाशवाणी लखनऊ से जुड़ गए थे.
वहां बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ की संगत में रहने से नवीन की कुमाऊंनी बोली की कविताएं और कहानियां आकाशवाणी से प्रसारित होने लगीं.
आकाशवाणी में उन्हें अपने जैसे कई जोशीले पहाड़ी युवा और वरिष्ठ रचनाकार मिले.
अपनी किताब ‘ये चिराग जल रहे हैं’ में उन्होंने इन्हीं रचनाकारों और कलाकारों के संस्मरण लिखे हैं.
पत्रकारिता से मिला दुनिया का अनुभव.
अब नवीन जोशी का अखबारों में लिखना भी बढ़ता जा रहा था.
उनकी कहानियां अखबारों द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर चुकी थीं.
ग्रेजुएशन करते समय नवीन को ‘स्वतंत्र भारत’ अखबार से नौकरी का प्रस्ताव मिला.
पढ़ाई पूरी करने के बाद उनका पहाड़ वापस लौटने का इरादा था, पर वे पत्रकारिता में रम गए.
उन्हें लगने लगा था कि पत्रकारिता से समाज में बदलाव लाया जा सकता है.
इस कारण उन्होंने पहाड़ लौटने का अपना इरादा त्याग दिया और पूरी तरह पत्रकारिता में डूब गए.
अखबार में नौकरी करते हुए नवीन ने काफी यात्राएं कीं और देश-दुनिया के अखबार पढ़े.
इन सब से उनका सोचने-समझने का दायरा और भी बढ़ता गया.
उत्तराखंड से संपर्क नहीं टूटा.
वे पहाड़ लौट तो नहीं पाए, लेकिन पहाड़ के लोगों से उनका लगातार संपर्क बना रहा.
शेखर पाठक की वजह से वे राजीव लोचन साह, शमशेर सिंह बिष्ट, गिर्दा आदि से जुड़े.
साल 1977 में ‘नैनीताल समाचार’ की शुरुआत से ही उनका कॉलम ‘एक प्रवासी पहाड़ी की डायरी’ प्रकाशित होने लगा.
साल 1984 में उन्होंने देवेन मेवाड़ी के साथ करीब पंद्रह दिन ‘अस्कोट आराकोट यात्रा’ के एक उप मार्ग में हिस्सा लिया.
इसमें वे गढ़वाल व कुमाऊं के कई गांवों तक पैदल गए और पहाड़ को करीब से देखा.
उन दिनों को याद करते हुए नवीन जोशी कहते हैं आंदोलनों में शामिल होने के लिए मैं लखनऊ से पहाड़ों में पहुंच जाता था.
वे ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ आंदोलन में भी शामिल रहे. पहाड़ के हालात पर उनके मन में साल 1990 में पहली बार ‘दावानल’ उपन्यास लिखने का विचार आया, पर उस विचार को कलम का साथ मिलने का वक्त अभी नहीं आया था.
पत्रकारिता से बढ़ी रचनात्मकता
वे राजेंद्र माथुर के संपादन वाले ‘नवभारत टाइम्स’ अखबार में काम करने लगे.
इस दौरान नवीन जोशी का कहानियों और कविताओं को लिखने का सिलसिला बढ़ता गया.
वे कहते हैं कोई ठंड या भूख से मर गया या कोई मजदूर दिन भर की मजदूरी के बाद अपने घर लौटते समय सब्जी ले जाते ट्रक से दबकर मर गया, तो ये खबरें पीड़ा से भरी और यातनादायक होती थीं.
मुझे लगता था कि ये खबरें यहीं खत्म नहीं होनी चाहिए.
अखबारों में ऐसी घटनाएं छोटी-सी खबर बनकर खत्म हो जाती थीं, लेकिन वहीं से उनकी कोई कहानी या लेख शुरू होता था.
इस तरह उनकी रचनात्मकता को पत्रकारिता ने बढ़ावा ही दिया.
नवीन जोशी का कहानी संग्रह ‘अपने मोर्चे पर’ साल 1992 में प्रकाशित हो गया था.
साल 2002 में वे ‘हिन्दुस्तान’ अखबार में संपादक बनकर पटना पहुंचे.
उस समय बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव थे.
नवीन जोशी कहते हैं बिहार के हालात बहुत खराब थे. वहां ये पता नहीं चलता था कि सड़क में गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़क. साठ किलोमीटर की दूरी चार घंटे में पूरी होती थी.
एक बार मैंने किसी से कहा था कि जहां गरीब मुसहर लोग रहते हैं, जो चूहे पकड़कर खाते हैं, मुझे उनके गांव ले चलो. मुझे जवाब मिला कि वहां सड़क नहीं है. जब बाढ़ आएगी, तब वहां नाव चलेगी, तभी उस गांव तक पहुंच पाएंगे.
इन अनुभवों से नवीन जोशी के अंदर का लेखक और पैना होने लगा.
नवीन जोशी के अनुसार, पहाड़ और बिहार का दर्द एक-सा है, बस भूगोल का फर्क है.
दोनों प्रदेशों में गरीबी एक जैसी है और दोनों जगह के लोग बड़े शहरों में जाकर छोटी-मोटी नौकरियां करने को मजबूर हैं.
प्रतिभाएं भी इन दोनों जगहों पर भरपूर हैं.
उपन्यासों की शुरुआत
पटना में रहते हुए ही उन्हें अपना पहला उपन्यास ‘दावानल’ पूरा करने का विचार आया.
उन्होंने साल 2002 में ‘दावानल’ लिखना शुरू किया, दिन में वे नौकरी करते थे और रात में उपन्यास लिखते थे.
दो साल बाद उनका लखनऊ तबादला हो गया और फिर उन्होंने इस उपन्यास को संपादित किया.
प्रकाशक को यह अच्छा लगा और इसे छपने में कोई दिक्कत नहीं हुई.
‘दावानल’ उपन्यास साल 1972-73 से 1984 तक चले चिपको आंदोलन के भटकाव पर आधारित है.
यह बताता है कि कैसे यह आंदोलन पर्यावरणविदों की वजह से सिर्फ पेड़ बचाने तक सिमट गया, जबकि यह मुख्य रूप से जंगलों पर स्थानीय लोगों के अधिकारों के लिए था.
पहाड़ के प्रवासियों की पीड़ा भी इसका प्रमुख हिस्सा है.
उनका दूसरा उपन्यास ‘टिकटशुदा रुक्का’ है. नवीन कहते हैं बचपन में मैंने अपने गांव में शिल्पकारों के साथ छुआछूत और भेदभाव देखा था. उनका शोषण किया जाता था. साल 1980 में कफल्टा कांड हुआ, तो मैंने इसी विषय पर लिखने की ठान ली थी.
इस उपन्यास का भी साहित्य जगत में स्वागत हुआ
नवीन जोशी का तीसरा उपन्यास ‘देवभूमि डेवलपर्स’ है, इसमें ‘दावानल’ के आगे की कहानी है.
नवीन जोशी कहते हैं जब चिपको आंदोलन ठंडा पड़ने लगा था, तब ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ आंदोलन शुरू हुआ था. इस उपन्यास में तब से आज तक के उत्तराखंड की कहानी है.
‘देवभूमि डेवलपर्स’ में उत्तराखंड के जन आंदोलनकारी संगठनों में टूट, राजनीतिक दलों की चालबाजियां और संसाधनों की लूट पर लिखा गया है.
इसे पढ़ने से पता चलता है कि उत्तराखंड के गांवों से पलायन क्यों होता है और कैसे ठेकेदारों, दलालों और नेताओं ने उत्तराखंड के जल, जंगल और जमीन पर कब्जा जमा लिया है.
पहाड़ पर केंद्रित लेखन
नवीन जोशी बताते हैं कि पहाड़ मेरे लेखन के केंद्र में है. मेरे तीनों उपन्यासों का विषय उत्तराखंड पर केंद्रित है.
मेरी कई कहानियां भी पहाड़ पर आधारित हैं. मैं सामाजिक स्थितियों के बारे में लिखता हूं. जैसे, मैंने एक कहानी में लिखा है कि समाज में सांप्रदायिकता कैसे बढ़ रही है.
कुछ कहानियों का विषय पर्यावरण भी है. उनमें लिखा है कि शहरों से गौरैया कैसे गायब हो रही हैं या आकाश से तारे कैसे खो गए. एक कहानी का मुख्य पात्र तारे देखने के लिए पहाड़ की याद करता है.
हाल ही में उनकी किताबें ‘बाघैन’ और ‘भूतगांव’, संभावना और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं.
ये दोनों किताबें आज बुरे दौर से गुजर रहे उत्तराखंड की तस्वीर और तकदीर दिखाती हैं.
‘अपने मोर्चे पर’, ‘राजधानी की शिकार कथा’, ‘मीडिया और मुद्दे’, और ‘लखनऊ का उत्तराखंड’ नवीन जोशी की अन्य रचनाएं हैं.
लेखन से आजीविका बड़ी मुश्किल, फिर भी लिखना तो है ही
साल 2014 में ‘हिंदुस्तान’ से रिटायर होकर करीब एक साल ‘दैनिक भास्कर’ में काम करने के बाद नवीन जोशी सक्रिय पत्रकार नही रहे और स्वतंत्र पत्रकारिता के साथ रचनात्मक लेखन में लग गए.
लेखन से आजीविका पर नवीन जोशी कहते हैं हिंदी में स्वतंत्र लेखक अपनी आजीविका नहीं चला सकते. पारिश्रमिक की स्थितियां बेहद खराब हैं. मैं भी अगर पत्रकारिता नहीं करता, तो परिवार नहीं पाल सकता था. मेरी पत्नी भी नौकरी करती थी, इसलिए घर चलाने में कभी दिक्कत नहीं हुई.
इसका कारण पूछने पर वे कहते हैं, हिंदी किताबें अधिक नहीं बिकतीं. पांच सौ से एक हजार प्रतियों के संस्करण बिकने पर हिंदी लेखक खुश हो जाते हैं. प्रकाशक लेखकों से सच छुपाते हैं और उन्हें किताबों की बिक्री व आवृत्तियों के बारे में सही विवरण नहीं देते. लेखकों को समय पर रॉयल्टी भी नहीं मिलती. इसके लिए लेखकों को प्रकाशकों को बार-बार चिट्ठी लिखनी पड़ती है.
पिछले दिनों साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल ने इस बारे में अपनी दुखद कहानी बताई, तो कुछ चर्चा हुई थी.
नवीन जोशी आगे कहते हैं, कुछ नए प्रकाशक पारदर्शिता बरत रहे हैं. अंग्रेजी किताबों में ऐसी स्थिति नहीं है. वहां लेखकों को प्रकाशन के अनुबंध के पैसे मिलते हैं, रॉयल्टी से अलग. लेखन में पैसा न होने पर भी लिखते रहना चाहिए या नहीं, इस पर नवीन जोशी कहते हैं कि लिखना जरूरी है. यदि हम सामाजिक और राजनीतिक रूप से सचेत हैं, तो हमें लिखना चाहिए.
प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है. आजीविका नहीं चलती, तो भी लिखना बंद नहीं किया जा सकता. लोगों को पढ़ना चाहिए. समाज की सामूहिक राय साहित्य और पत्रकारिता से बनती है.
पत्रकारिता की प्रतिक्रिया तत्काल होती है, लेकिन साहित्य का असर दीर्घकालिक होता है. साहित्य समाज का आईना होता है और धैर्य मांगता है. कहानी लिखकर समाज रातोंरात नहीं बदलता, लेकिन छपे हुए का असर दशकों और शताब्दियों तक रहता है. जैसे भारतेंदु को पढ़कर हम तत्कालीन भारतीय समाज को समझ सकते हैं, वैसे ही ओ हेनरी को पढ़कर हम अमेरिकी समाज को समझ सकते हैं.
माध्यम बदलेंगे, पर शब्द तो वही रहेंगे.
ई-बुक के बढ़ते चलन पर नवीन जोशी कहते हैं, पहले टेलीफोन डायरी होती थी, अब उसे कोई नहीं रखता. फोन में ही सबके नंबर मिल जाते हैं. वैसे ही माध्यम बदलते रहेंगे, पर शब्द वही रहेंगे.
शब्द रहेंगे तो साहित्य रहेगा और साहित्य रहेगा तो समाज सचेत रहेगा.
बद्रीदत्त कसनियाल : पहाड़ के लोगों की सेवा में समर्पित पत्रकारिता
राजीव लोचन साह कहते हैं कि बद्रीदत्त कसनियाल के सिखाए न जाने कितने पत्रकार आगे चलकर बड़े संस्थानों के सम्पादक बने. अगर बद्रीदत्त ने पत्रकारिता के लिए पहाड़ छोड़कर दिल्ली को चुना होता तो दिल्ली की चमक धमक के बीच, आज उनका नाम देश के बड़े पत्रकारों के साथ लिया जाता. पहाड़ के लोगों की सेवा के लिए बद्रीदत्त ने अपना पूरा जीवन लगा दिया.
कविता से बना पत्रकारिता का रास्ता
पिथौरागढ़ के रहने वाले बद्रीदत्त कसनियाल ने साल 1972 में बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण की थी तब हरियाणा की एक सरकारी पत्रिका में बसंत ऋतु पर उनकी एक कविता प्रकाशित हुई, जिसके उन्हें तीस रुपए मिले.
इसके बाद ही उन्हें लिखने का शौक चढ़ा. ग्रेजुएशन करने जब वह पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज गए तो ‘उत्तराखंड ज्योति’ अखबार के लिए उन्होंने एक आर्टिकल लिखा, जिसकी लोगों ने खूब प्रशंसा की. अखबार के मालिक कैलाश चन्द्र जोशी ने बद्रीदत्त को बोला कि आप अखबार को लिखे लोगों के पत्रों को समाचार का रूप दें. यह पत्र चंपावत, धारचूला से आते थे, जिनमें बिजली, पानी की समस्याओं के साथ बाघ के आतंक की शिकायत होती थी. इसमें पटवारियों की शिकायत भी होती थी. इन अंकों को भी लोगों की प्रशंसा मिली, ढाई सौ रुपए वेतन में बद्रीदत्त वहां काम करने लगे.
साल 1974-75 में वह मान्यता प्राप्त पत्रकार भी बन गए थे, साथ में उस दौर की धर्मयुग, कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं को पढ़ते रहा करते थे.
खबर का असर जब वाटर टैंक पहुंच गया
अपनी लिखी एक खबर के बारे में बात करते बद्रीदत्त कहते हैं कि साल 1976 में एक दिन पिथौरागढ़ में आग लगी तो एक छोटे टैंकर से वहां आग बुझाने की कोशिश की गई पर तब तक वहां सब जल कर खाक हो गया था. तब मैंने खबर लिखी कि पिथौरागढ़ में आग बुझाने के लिए वाटर टैंक न होने की वजह से नुकसान हुआ. इस खबर के एक हफ्ते के अंदर ही पिथौरागढ़ में 25000 लीटर का एक वाटर टैंक आ गया था.
ऐसे ही साल 1977 में हुए तवाघाट लैंडस्लाइड पर बद्रीदत्त ने एक्टिविस्ट शमशेर सिंह बिष्ट और एक सरकारी भूवैज्ञानिक के साथ मौके पर जाकर ‘दिन प्रतिदिन’ अखबार के लिए रिपोर्टिंग की थी. इससे बाहरी दुनिया का ध्यान पहली बार उत्तराखंड के लैंडस्लाइड पर गया और उस पूरे इलाके को संवेदनशील क्षेत्र भी घोषित किया गया. उन दिनों नैनीताल समाचार और लघु भारत के लिए भी वह लगातार लिख रहे थे.
साल 1982 में अमर उजाला के लिए बद्रीदत्त ने धारचूला और मुनस्यारी में रहने वाली भोटिया जनजाति के द्वारा बनाए जाने वाले ऊनी उत्पाद जैसे थुलमा और दन पर विशेष श्रृंखला लिखी. इसकी वजह से लोगों को यह पता चला कि यह उत्पाद शिमला, पानीपत में बनाए जाने वाले ऊनी उत्पादों से क्वॉलिटी में बेहतर हैं और इनकी बिक्री बढ़ गई. उत्साहित भोटिया जनजाति के लोगों ने बढ़ी बिक्री को देखते नए तरह के ऊनी उत्पाद बनाने भी शुरू किए.
लोगों के बीच जाकर ही होती है असली पत्रकारिता
एडमंड हिलेरी के पुत्र पीटर हिलेरी भारत में आए तो बद्रीदत्त की उनसे मुलाकात हुई. 27-28 साल के पीटर उन दिनों अपने साथियों के साथ नेपाल से भारत तक हिमालय पैदल चल रहे थे. पीटर का साक्षात्कार करते बद्रीदत्त को महसूस हुआ कि पैदल चलकर हम भी उत्तराखंड के समाज के बारे में गहराई से जान सकते हैं. साल 1977 में ‘उत्तर उजाला’ अख़बार की शुरुआत भी हुई और बद्रीदत्त इस अखबार से सात सौ रुपए तनख्वाह में जुड़ गए.
इसी बाद वह साल 1980 में अमर उजाला से भी जुड़े. बद्रीदत्त कसनियाल छोटा सा बैग टांगकर कस्बों, गांवों में घूमते हुए चिपको आन्दोलन कर रहे सुंदर लाल बहुगुणा का पिथौरागढ़ आने पर लगातार साक्षात्कार लेते रहे. यह साक्षात्कार अमर उजाला में प्रकाशित होते थे.
एक ऐसा पत्रकार जिसने एक्टिविस्ट न होकर भी एक्टिविज़्म किया
साल 1985 में बद्रीदत्त ने अपना अखबार ‘आज का पहाड़’ निकाला. वह कहते हैं अमर उजाला में मेरा तबादला मेरठ हुआ पर तब घर के हालात ऐसे बन गए कि मुझे अमर उजाला छोड़ना पड़ा. आज का पहाड़ नाम उन्होंने इंडिया टुडे से लिया.
बद्रीदत्त कहते हैं कि वह शमशेर सिंह बिष्ट, पी सी तिवारी, प्रदीप टम्टा जैसे एक्टिविस्टों की खबरें लगातार छापते रहे. वह कभी एक्टिविस्ट नही बने पर उन्होंने इन एक्टिविस्टों की खबरें प्रायिकता के साथ छापी. किसी आंदोलन को कवर करने पर गांव वाले यह कहते बड़े खुश होते थे कि उनकी आवाज भी कोई उठा रहा है. उन दिनों पत्रकारिता वाकई जनता की आवाज होती थी.
उन्होंने आगे बताया कि उन दिनों एक डीएम ने नगर पालिका की जमीन पर घर बनाने को लेकर एक व्यक्ति को नोटिस दिया. हमने इस विषय पर लिखा तो डीएम को वह नोटिस वापस लेना पड़ा और इसके बाद उस डीएम ने हमारे अखबार का रजिस्ट्रेशन कैंसल करवा दिया. अखबार सस्पेंड हो गया तो वह प्रेस काउंसिल गए तो उसके हस्तक्षेप से अखबार फिर शुरू हुआ.
पुरस्कारों से दूर रहते हुए पब्लिक की रीयल सेवा पत्रकारिता
साल 1998 में बद्रीदत्त ‘पीटीआई’ से जुड़ गए और अमर उजाला के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता करते रहे. साल 2006 से 2009 तक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ से जुड़े रहे. वहां उन्होंने सांस्कृतिक पुनर्जागरण का अभियान चलाया. बद्रीदत्त बताते हैं कि कबूतरी देवी जैसे कलाकारों को हम दुनिया के सामने लाए, पहाड़ के इन लाजवाब गुमनाम कलाकारों की हमने पूरी सीरीज चलाई. पद्मश्री शेखर पाठक ने भी इस काम की तारीफ करी और यही तारीफ उनको पूरे जीवन में मिला एकमात्र पुरस्कार है.
बद्रीदत्त कसनियाल के इस काम पर ‘बारामासा’ की वेबसाइट में कबूतरी देवी पर बने एक एपिसोड में लिखा भी है “साल 1995. सीमांत क्षेत्र पिथौरागढ़ में ‘आज का पहाड़’ अख़बार के संपादक बद्रीदत्त कसनियाल, स्थानीय लोक कलाकारों पर आधारित लेखों की एक सीरीज़ प्रकाशित कर रहे थे. इस दौरान वो ऐसे कलाकारों की भी खोज कर रहे थे, जिन्होंने एक दौर में प्रसिद्धि तो खूब पाई, मगर अब गुमनामी की ज़िंदगी जीने को मजबूर थे. उनके साथी नरेश जोशी ने तब उन्हें एक ऐसा नाम सुझाया, जिन्हें उत्तराखंड की पहली लोक गायिका भी कहा जाता था. बद्रीदत्त कसनियाल और नरेश जोशी इस गायिका की खोज में निकल पड़े. वे जब क्वीतड़ गांव पहुंचे तो देखा कि उस गायिका की आर्थिक स्थिति दयनीय थी और वो दिहाड़ी-मज़दूरी करने को मजबूर हो गई थीं. कसनियाल ने उनसे लम्बी बातचीत की और ‘आज का पहाड़’ में उनके बारे में एक विस्तृत लेख प्रकाशित किया. इस लेख ने गुमनामी के अंधेरों में खो चुकी लोक गायिका को जैसे एक नया जीवन दे दिया और पहाड़ की जनता के बीच उन्हें पुनर्स्थापित कर दिया.”
साल 2006 में बद्रीदत्त कसनियाल ने कम्प्यूटर सीखा और 2009 में वह ‘ट्रिब्यून’ से जुड़ गए. ट्रिब्यून से वह ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में आने से पहले साल 2017 तक जुड़े रहे. अभी वह पीटीआई, हिंदुस्तान टाइम्स, नॉर्थन गजेट के लिए अंग्रेज़ी में लिखते हैं और ‘आज का पहाड़’ हिंदी में लिख रहे हैं.
वह कहते हैं पत्रकार ही जनता का प्रतिनिधि होता है, पब्लिक की रीयल सेवा पत्रकारिता से ही की जा सकती है और इसलिए ही वह अब तक लिख रहे हैं.