भारतीय ज्ञान परम्परा और भाषा को बंधक से छुड़ाने का अवसर

  • प्रो. गिरीश्वर मिश्र

 पिछले दिनों काशी में देव दीपावली because के पावन अवसर पर प्रधानमंत्री जी ने देवी अन्नपूर्णा की मूर्ति को, जिसे तस्करी में चुरा कर एक सदी पहले कनाडा की रेजिना यूनिवर्सिटी के संग्रहालय को पहुंचा दिया गया था, बंधक से छुड़ा कर देश को वापस सौंपे जाने की चर्चा की थी. तब वहां के कुलपति टामस चेज ने बड़ी मार्के की बात कही थी कि ’यह हमारी जिम्मेदारी है कि ऐतिहासिक गलतियों को सुधारा जाय because और उपनिवेशवाद के दौर में दूसरे देशों की विरासत को जो नुकसान  पहुंचा है उसे ठीक करने की हर संभव कोशिश हो’. आशा की जाती है कि इस साल के अंत होते-होते यह मूर्ति अपने मूल स्थान पर पुन: विराजित हो जायगी.

कुलपति

दरअसल विपन्नता की स्थिति में because अपनी बहुमूल्य संपत्ति को गिरवी रखना और स्थि ति सुधरने पर उसे छुड़ा कर वापिस लाना कोई नई बात नहीं हैं और इसका दस्तूर अभी भी जारी  है. भारत की समृद्ध ज्ञान संपदा और उसकी अभिव्यक्ति को भी  इतिहास के एक विन्दु पर अंग्रेजों के पास बंधक रख  दिया गया. पर परेशानी यह है कि उसकी एवज में जो लिया गया या मिला because उसकी परिधि में ही शिक्षा का आयोजन हुआ और अभ्यास वश उसके मोहक भ्रम में हम सब कुछ ऐसे गाफिल हुए कि अपनी संपदा को अपनाना तो दूर उसे पहचानने से भी इनकार करते रहे.

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आज प्राथमिक विद्यालय में because बच्चे का प्रवेश हो पाना जग जीतने का कारनामा जैसा हो गया है. इस स्तर पर जितनी विषमता व्याप्त है  उसका अनुमान लगाना भी कठिन है. सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों और उनके वर्ग भेद ‘शिक्षा के अधिकार ‘ की धज्जियां उड़ाते हैं. उसकी ऊंची फीस और व्यवस्था अभिभावकों के लिए तनाव का बड़ा कारण बन रही है. 

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महान मैकाले साहब ने जो तजबीज भारत के because लिए की उसकी उसे हमने कुछ इस तरह कबूल  कर आत्मसात कर के लिया कि स्मृति-भ्रंश जैसा होने लगा और विकल्पहीन होते गए. इसके चलते अपने स्वभाव के अनुसार सोचने-विचारने पर कुछ ऐसा प्रतिबन्ध लगा  कि कोल्हू के बैल की भाँति पीढी-दर-पीढी हम पराई दृष्टि के पीछे ही चलते रहे. चलने से गति का अहसास तो हो रहा था पर दृष्टि पर पड़े आवरण से दिशा-बोध जाता रहा. इसका परिणाम सामने है. आई आई एम और आई आई टी के शिक्षा के कुछ सुरम्य द्वीप के चारों और कुशिक्षा का समुद्र हिलोरें ले रहा है.

आज डिग्रीशुदा  बेरोजगारों की संख्या, because गुणवत्ता की दृष्टि से कमजोर शिक्षा और भारत के स्वभाव और संस्कृति से बढ़ते अपरिचय के बीच शिक्षा जगत में बेचैनी व्याप्त है. प्राइमरी से ले कर उच्च शिक्षा तक नामांकन जरूर बढ़ा और संस्थाओं की संख्या भी बढी पर उनमें पढाई लिखाई का स्तर कमतर  होता गया और सब कुछ जटिल होता गया. आज प्राथमिक विद्यालय में बच्चे का प्रवेश हो पाना जग जीतने का कारनामा जैसा हो गया है. इस स्तर पर जितनी विषमता व्याप्त है  उसका अनुमान लगाना भी कठिन है. सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों और उनके वर्ग भेद ‘शिक्षा के अधिकार’ because की धज्जियां उड़ाते हैं. उसकी ऊंची फीस और व्यवस्था अभिभावकों के लिए तनाव का बड़ा कारण बन रही है.  सरकारी स्कूलों के बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि का हाल यह है कि दर्जा पांच का बच्चा दर्जा दो के स्तर का ज्ञान नहीं रखता और उसकी बुनियादी जानकारी को ले कर एक राष्ट्रीय मिशन की बात कही गई है.

कुलपति

स्वतंbecauseत्रता का अवसर वैकल्पिक व्यवस्था शुरू करने का अवसर था परन्तु राजनैतिक स्वराज के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में परिवर्तन का विवेक कठिन सिद्ध हुआ. फलत: स्वाधीन होने पर भी देश का शासन -तंत्र, उसके हाव-भाव  और लक्ष्य में  अंग्रेजी दौर की  निरंतरता भी व्यापक रूप से कायम  रही.

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इस बात से शायद ही किसी कि असहमति हो कि शिक्षा और ज्ञान की  थोपी हुई शिक्षा की दृष्टि अंग्रेजों की औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूर्ति का उपाय थी न कि यहाँ की अपनी जैविक उपज. because यह बात तो संदेह से परे है कि अंग्रेजों ने भारत को अपने लिए आर्थिक स्रोत के रूप में लिया और यथासंभव  शोषण और दोहन किया. उनकी विश्व दृष्टि के परिणाम देश को स्वतंत्रता मिलने के समय साक्षरता, शिक्षा और अर्थ व्यवस्था में व्याप्त घोर विसंगतियों  में देखा जा सकता है. स्वतंत्रता का अवसर वैकल्पिक व्यवस्था शुरू करने का अवसर था परन्तु राजनैतिक स्वराज के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में परिवर्तन का विवेक कठिन सिद्ध हुआ. फलत: स्वाधीन होने पर भी देश का शासन -तंत्र, उसके हाव-भाव  और लक्ष्य में  अंग्रेजी दौर की  निरंतरता भी व्यापक रूप से कायम  रही.

कुलपति

उदासीनता, अज्ञान और आलस्य  के चलते because जो कुछ जैसे चल रहा था चलता रहा. अंग्रेजी शिक्षा नीति ने समाज को सदा सदा के लिए अनपढ़ , ज्ञानी और विज्ञानी आदि की ऎसी कोटियाँ बना दीं जिसने कई नई जातियां खडी कर दीं और वर्चस्व की नई तस्वीर रच दी. ज्ञान तक because पहुँच के बीच रोड़े दर रोड़े खड़े होते गए. आज सात दशक बाद भी उच्चतम न्यायालय का दरवाजा भारत की भाषा के लिए बंद है. भाषा और ज्ञान की दृष्टि से हम जिस तरह परनिर्भर होते गए वह ज्ञान के प्रचार और प्रवाह की दृष्टि से लोक तंत्र के लिए बड़ा घातक सिद्ध हो रहा है.

कुलपति

शिक्षा का उद्देश्य देश के मानस का निर्माण करना because होता है और वह देश-काल और  शिक्षा संस्कृति से विलग नहीं होनी चाहिए .  फिर भी इस प्रश्न को छेड़ने से हम  बचते-बचाते रहे और भारत की समझ की भारतीय दृष्टि की संभावना  के प्रति संवेदनहीन बने रहे. राजा बदलने के बावजूद व्यवहार के स्तर पर राज काज में बहुत कुछ लगभग  वैसा ही बना रहा. संभवत: औपनिवेशक दृष्टि की औपनिवेशिकता  ही दृष्टि से because ओझल हो गई और उसकी अस्वाभाविकता भी बहुतों के लिए सहज स्वीकार्य हो गई मानों मात्र वही  संभव हो.  ज्ञान का केंद्र  पश्चिम  हो गया और उसी का पोषण और परिवर्धन ही औपचारिक शिक्षा का ध्येय बन गया और इस कार्य के लिए अंग्रेजी भाषा को भी अबाध रूप से प्रश्रय दिया गया. इसके सामाजिक- सांस्कृतिक आशय से बेखबर हम उसी माडल को  आगे बढ़ाते गए और बिना जांचे-परखे भारतीय ज्ञान परम्परा को हाशिए पर धकेलते गए.

कुलपति

भाषा, जो ज्ञान का प्रमुख माध्यम है, because वह ज्ञान का पैमाना बन गया. शिक्षा में स्वराज्य एक स्वप्न बनता गया. अंग्रेजी उन्नति की सीढी बन गई. जो अंग्रेजी जाने वही कुलीन, पंडित और योग्य करार दिया जाने लगा. सामाजिक भेद भाव और सामाजिक दूरी ही नहीं स्वास्थ्य, कानून because और न्याय आदि से जुड़ी  नागरिक जीवन की  सामान्य सहूलियतें भी इससे जुड़ गईं. बारह पन्द्रह प्रतिशत लोगों की अंग्रेजी अस्सी प्रतिशत से अधिक भारतीय जनों की भाषाओं पर भारी पड़ रही है. इस बाध्यता के चलते  पढाई-लिखाई और अध्ययन-अनुसंधान परोपजीवी होता चला गया.

कुलपति

लिकता और सृजनात्मकता की जगह because अनुकरण, पुनरुत्पादन और पिष्ट-पेषण की जो प्रबल धारा प्रवाहित हुई उसने जिस घोर अन्धानुकरण को  बढ़ावा दिया उसने देश-काल और संस्कृति से काटने के साथ जिस दृष्टिकोण को  स्थापित और संबर्धित किया  उसके चलते because हमने बिना किसी द्वंद्व के उस यूरो-अमेरिकी नजरिए को सार्वभौमिक मान बैठे जो मूलतः सीमित, because स्थानीय और एक ख़ास तरह का ‘देसी’ ही था परन्तु आर्थिक-राजनैतिक तंत्र की बीच पश्चिम से निर्यात किया गया.  यह कितना अनुदार रहा यह इस बात से प्रमाणित होता है कि इसने भारतीय ज्ञान परम्परा को अप्रासंगिक और अप्रामाणिक ठहराते हुए प्रवेश ही नहीं दिया गया  या फिर उसे पुरातात्विक अवशेष की तरह जगह दी गई. उसका ज्ञान सृजन के साथ कोई सक्रिय रिश्ता नहीं बन सका.

कुलपति

यह संतोष की बात है कि because नई शिक्षा नीति गहनता से इन विसंगतियों से रू-ब-रू होते हुए विषयगत, प्रक्रियागत और संरचनागत बदलाव की दिशा में अग्रसर हो रही है. because बंधक पड़ी सरस्वती को भी छुड़ाना आवश्यक है. भारतीय ज्ञान परम्परा और संस्कृत समेत सभी भारतीय भाषाओं को बड़े लम्बे समय से पराभव में रखा जाता रहा है. आशा है नई शिक्षा नीति उनके साथ न्याय कर सकेगी.

कुलपति

मुश्किल यह भी हुई कि भारतीय  ज्ञान धारा में भारत का  जो थोड़ा बहुत  प्रवेश हुआ भी वह उसका पाश्चात्य संस्करण था जिसमें दुराग्रहपूर्ण और गलत व्याख्याएं भी शामिल थीं. because दूसरी  ओर भारतीय समाज को पश्चिमी सिद्धांतों की परीक्षा के लिए नमूना ( सैम्पल) माना जाता  रहा . because  इस पूरी प्रक्रिया में हमने गांधी जी की सीख भुला दी कि हमें अपनी जमीन पर अपने पाँव जम कर टिकाए रखना है , हाँ , खिड़कियाँ जरूर खुली रखनी हैं ताकि बाहर की बयार आती जाती रहे . हम यह भी भूल गए कि शिक्षा को समग्र व्यक्तित्व के विकास से जुड़ा होना चाहिए ताकि हाथ , दिल और दिमाग सभी कार्यरत रहें.  हमें मानव सेवा में ईश्वर सेवा का भाव भी नहीं रहा और न मनुष्य के रूप में जीने के लिए जरूरी आत्म नियंत्रण का भाव ही रहा.

कुलपति

यह संतोष की बात है कि नई शिक्षा नीति गहनता से इन विसंगतियों से रू-ब-रू होते हुए विषयगत, प्रक्रियागत और संरचनागत बदलाव की दिशा में अग्रसर हो रही है.  because बंधक पड़ी सरस्वती को भी छुड़ाना आवश्यक है. भारतीय ज्ञान परम्परा और संस्कृत समेत सभी भारतीय भाषाओं को बड़े लम्बे समय से पराभव में रखा जाता रहा है. आशा है नई शिक्षा नीति उनके साथ न्याय कर सकेगी.

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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