लोक परंपरा का एक उत्सव : घी संक्रान्ति

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  • चन्द्रशेखर तिवारी

उत्तराखंड अपनी निराली संस्कृति के लिए जाना जाता है. यहां के लोक जीवन के कई रंग और कई उत्सव हैं. ऐसा ही एक पारंपरिक उत्सव है घी संक्रांति. उत्तराखण्ड में घी संक्रान्ति पर्व को घ्यू संग्यान, घिया संग्यान और ओलगिया के नाम से भी जाना जाता है.

पहाड़ में यह मान्यता व्याप्त है कि पुराने राजाओं के समय शिल्पी लोग अपने हाथों से बनी कलात्मक वस्तुओं को राजमहल में राजा के समक्ष प्रस्तुत  किया करते थे. इन शिल्पियों को तब राजा-महराजों  से इस दिन पुरस्कार मिलता था.कुमाऊं में चन्द शासकों के काल में भी यहां के किसानों व पशुपालकों द्वारा शासनाधिकारियों को विशेष भेंट ‘ओलग’ दी जाती थी. गाँव के काश्तकार  लोग भी अपने खेतों में उगे फल, शाक-सब्जी, दूध-दही तथा अन्य खाद्य-पदार्थ आदि राज-दरबार में भेंट करते थे. यह ओलग की प्रथा कहलाती थी. अब भी यह त्यौहार कमोबेश इसी तरह मनाया जाता है. इसी कारणवश इस पर्व के दिन पुरोहित, रिश्तेदारी, परिचित लोगों तथा गांव व आस-पड़ोस में शाक सब्जी व घी दूध भेंट कर ओलग देने की रस्म पूरी की जाती है .

कुमाऊं का कृषक वर्ग की ओर से इस पर्व पर इन दिनों होने वाले खाद्य पदार्थ-गाबे (अरबी के पत्ते) भुट्टे, दही,घी, मक्खन आदि की ‘ओलग‘ सबसे पहले ग्राम देवता को चढ़ाया जाता है और उसके बाद पण्डित -पुरोहितों व को ‘ओलग‘ देकर  सबसे आखिर में इन्हें स्वयं उपयोग में लाता है.

यह पर्व भादो माह की प्रथम तिथि को मनाया जाता है. मूलतः यह एक ऋतु उत्सव है, जिसे खेतीबाडी़ से जुड़े किसान व पशुपालक उत्साहपूर्वक मनाते हैं. गांव घरों की महिलाएं इस दिन अपने बच्चों के सिर में ताज़ा मक्खन मलती हैं और उनके स्वस्थ व दीर्घजीवी होने की कामना करती हैं. कुमाऊं के इलाके में इस दिन मक्खन अथवा घी के साथ बेडू़ रोटी (उड़द की दाल की पिट्ठी भरी रोटी) खाने का रिवाज है. इसके अलावा  घी से बने अन्य व्यंजनों को भी खाने का चलन है. लोकमान्यता है कि इस दिन घी न खाने वाले व्यक्ति को दूसरे जन्म में गनेल (घोंघे) की योनि प्राप्त होती है.

कुमाऊं का कृषक वर्ग की ओर से इस पर्व पर इन दिनों होने वाले खाद्य पदार्थ-गाबे (अरबी के पत्ते) भुट्टे, दही,घी, मक्खन आदि की ‘ओलग‘ सबसे पहले ग्राम देवता को चढ़ाया जाता है और उसके बाद पण्डित -पुरोहितों व को ‘ओलग‘ देकर  सबसे आखिर में इन्हें स्वयं उपयोग में लाता है.

अरबी के पत्तों (गाबे) में विद्यमान पोषक तत्व हमारे शरीर के लिए आवश्यक माने जाते हैं. इसीलिए पहाड़ में गाबे की सब्जी और इसके पत्तों के पतोड़ बनाने की परंपरा है. इसी तरह घी, मक्खन की उपयोगिता से भी  से सभी लोग परिचित हैं .आम लोगों के मध्य इस दिन घी का सेवन न करने वाले व्यक्ति को अगले जन्म में गनेल की योनि प्राप्त होने की धारणा को कदाचित इसी उद्देश्य के लिए प्रसारित किया गया हो.

उत्तराखंड में इसह तरह के पर्व की भांति ऋतु परिवर्तन के अनेक और भी लोक पर्व  भी समय-समय पर मनाए जाते  हैं.

दरअसल  पुरातन सम्माज ने इन  पर्वों के माध्यम से आम जनजीवन को खेती-बाड़ी की काश्तकारी व पशुपालन से सम्बद्ध उत्पादों  यथा शाक सब्जी, फल, फूल.अनाज  व धिनाली (दूध व उससे निर्मित पदार्थ,दही, मक्खन, घी आदि) को इन पर्वों से जोडने का नायाब प्रयास  किया है. हमारे लोक ने इन विविध खाद्य पदार्थों में निहित पोषक तत्वों के महत्व की समझ को समाज में उन्नत रूप से विकसित  करने का जो अभिनव कार्य लोकपर्व घी संक्रांति यानी ओलगिया के माध्यम  प्रयास किया है वह वास्तव में विलक्षण है.यथार्त  में देखें तो इनके कुछ पक्ष वैज्ञानिक आधारों की  पुष्टि भी  कर रहे होते हैं.

अरबी के पत्तों (गाबे) में विद्यमान पोषक तत्व हमारे शरीर के लिए आवश्यक माने जाते हैं. इसीलिए पहाड़ में गाबे की सब्जी और इसके पत्तों के पतोड़ बनाने की परंपरा है. इसी तरह घी, मक्खन की उपयोगिता से भी  से सभी लोग परिचित हैं .आम लोगों के मध्य इस दिन घी का सेवन न करने वाले व्यक्ति को अगले जन्म में गनेल की योनि प्राप्त होने की धारणा को कदाचित इसी उद्देश्य के लिए प्रसारित किया गया हो. इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस तरह के लोक विज्ञान की समझ हमारे गाँव समाज के पुरखों को पूर्व काल में भली-भांति थी. कदाचित इसी वजह से हमारे पुरुखों ने इन अद्भुत पर्व-त्योहारों को इस रूप-रंग में परोसने का अभिनव प्रयोग किया होगा.

(इस आलेख के साथ संलग्न चित्र श्री जगमोहन रौतेला के सौजन्य से प्राप्त हुआ है जो उनकी प्यारी बिटिया बुलबुल का खींचा हुआ है आभार बुलबुल.)

(दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून)

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