स्वावलंबी विकास की ओर- आत्मबोध से आत्मनिर्भरता तक

 

दीपावली पर विशेष

प्रो. गिरीश्वर मिश्र
शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा 

इस साल दीपावली का पर्व देश के लिए इस अर्थ में विशेष है कि वह हमें स्वयं की पहचान के लिए आमंत्रित कर रहा है। इसका तकाजा है कि हम विभिन्न प्रकार के भ्रमों के आवरण से मुक्त हो कर प्रकाश का वरण करें। राह में आते तिमिर को दूर करने के लिए प्रकाश का यह पर्व हमें स्वयं को जगा कर ज्योति का वाहक बनने के लिए प्रेरित करता है। अपनी शक्ति को पहचानना ही वह आधार है जो आज की वैश्विक अस्थिरता और उथल-पुथल वाले अनिश्चय के वातावरण में हमें सहारा दे सकेगा। आज के जटिल होते परिवेश में इसे सुखद आश्चर्य ही कहेंगे कि तमाम विघ्न-बाधाओं को पार करते हुए भारत धन-धान्य की दृष्टि से अनेक देशों की तुलना में और स्वयं अपने पिछली उपलब्धियों की तुलना में उल्लेखनीय रूप से संतोषजनक स्थिति में है।

भारत की आर्थिक उन्नति निरंतर प्रगति दर्ज कर रही है। विश्व की चौथी अर्थ व्यवस्था के रूप में उभर कर भारत ने विश्व को गंभीर संदेश दिए हैं। घरेलू मांग में बढ़त और आर्थिक नीतियों में महत्वपूर्ण सुधार जैसे कदम भारत को वैश्विक पूँजी प्रवाह का एक प्रमुख केंद्र बना रहे हैं। मंहगाई में कमी, रोजगार के अवसरों में वृद्धि और ग्राहकों के उत्साह के साथ बाजार के मजबूत होने के लक्षण दिख रहे हैं। भविष्य में जी डी पी में वृद्धि की पूरी संभावना है। आर्थिक दुनिया में अन्य देशों के साथ आयात-निर्यात के लिए चुनौतियों का दौर चल रहा है। इससे निपटने के लिए विश्व में नए बाज़ार तलाशे जा रहे हैं और कई देशों के साथ नए समीकरण भी बन रहे हैं।

अनुमान है कि हमारी अर्थ व्यवस्था वर्ष 2030 तक 7.3 ट्रिलियन जी डी पी के साथ विश्व में तीसरे स्थान पर पहुँच जायेगी। इसके साथ ही जनसंख्या में युवा लोगों की बड़े अनुपात में उपस्थिति विकास के अवसर के संकेत उपलब्ध करा रही है। परिवर्तन की बयार लोगों की क्रय-शक्ति में वृद्धि, आधारभूत संरचना में सुधार और खाद्य उत्पादन में बढ़ोतरी में झलक रही है। कुल मिला कर समग्रता में यह दृश्य संतोषजनक स्थिति बयान करता है और गौरव बोध भी कराता है । यह उपलब्धि इसलिए भी उल्लेखनीय है कि यह सब देश के अंदर बाहर की कई चुनौतियों के बीच हो रहा है। देश की सीमाओं के निकट सामरिक हलचलों पर भी काफ़ी हद तक काबू पाया गया है। सैन्य बल की सामर्थ्य आतंकी शत्रु को परास्त करने और उसके ठिकानों को ध्वस्त करने में सफल रही है। ज्ञान–विज्ञान और खेलकूद के क्षेत्र में भी उपलब्धि रेखांकित हुई है। यह दृश्य आम भारतीय को उत्साहित और प्रोत्साहित करता है।

तेज़ी से बदल रहे वैश्विक परिदृश्य में हम ऐसा बहुत कुछ होते देख रहे हैं जो विश्व की मानवता के हित में नहीं है। वह हमें सावधान तथा सचेत रहने के लिए प्रेरित करता है। इस वैश्विक बदलाव का एक प्रमुख संकेत यह है कि दूसरे देश से उधार लेने या खरीदने की जगह देश को स्वयं अपने ही संसाधनों को विकसित करना होगा। स्वदेशी को अपनाना और आत्म-निर्भर होना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में हमें ‘स्वदेशी’ सोच और व्यवस्था को पहचान कर उसे अमल में लाना होगा। ऐसा करना कदापि सरल नहीं है क्योंकि हम लगभग दो सदियों के औपनिवेशिक राज के दौर में परायी दृष्टि के जाल में ऐसे फंसे कि उससे उबरना कठिन होता गया। आधुनिकता के छद्म आवरण में उसे ही सही और उपयुक्त मान कर उसी का अवलंबन करते रहे।

अंग्रेज़ों ने जबरी बदलाव लाद दिया था और भयानक रूप से शोषण किया पर दुर्योग से उसी की भाषा, उसी की शिक्षा, उसी के भाव, उसी की वेश-भूषा उसी की संस्थागत सोच और उन्हीं जैसी मूल्य व्यवस्था तक को हमने अंगीकार कर लिया। उन्हीं जैसा बनने की लालसा के चलते यह परम्परा देश के स्वतंत्र होने के बाद भी जारी रही और हम मन और बुद्धि से स्वाधीन न हो सके। ज्ञान-विज्ञान के बौद्धिक क्षेत्र में पश्चिम का वर्चस्व अकुंठित भाव से सतत प्रवह्मान रहा। देशज प्रयास हुए ही नहीं ऐसा तो नहीं कहा जा सकता परंतु वे कमजोर थे। बहुत सारे देशी सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक प्रयोगों की अवधारणा को स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, गुरुदेव रबींद्र नाथ टैगोर, ज्योतिबा फुले, संत विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय और नाना जी देशमुख प्रभृति अनेक महानुभावों ने आगे बढाई और कई तरह के उपक्रम भी शुरू हुए। अनेक छोटी बड़ी संस्थाओं और व्यक्तियों ने देश के विभिन्न भागों में भी अपने अपने ढंग से सार्थक बदलाव लाने की पहल शुरू की पर व्यापक योजना और जमीनी वास्तविकता निश्चत रूप से मुख्यत: पश्चिम की अनुगामिनी ही बनी रही। व्यवहार के स्तर पर शिक्षा-दीक्षा, नियम-क़ानून और तौर-तरीक़े सब में हमने पश्चिम को ही अपने लिए मानक बना लिया और उसका अभ्यास भी करते रहे।

पाश्चात्य विचारों की तीव्र आंधी भारतीय प्रयास प्रयास प्राय: उखड़ते गए और जो शेष बचा वह निष्प्रभ रहा। जो भी देशज था उसको अविश्वसनीय और अनुपयोगी मानते हुए हम उससे मुक्त होते रहे। उसके पुरावशेष टूटी-फूटी लड़खड़ाती संस्थाओं के रूप में आज भी जीवित हैं। दूसरी ओर पश्चिमी आयात को बिना विचार किए और उसकी उपयुक्तता को जांचे बगैर अपनाते और ओढ़ते रहे। हम अपने को उसके अनुकूल बनाते रहे।

इस प्रक्रिया में हम अपने मूल स्वभाव में बदलते चले गए और जो अपना था उसके प्रति संदेह और अविश्वास का भाव विकसित करते रहे। पश्चिम द्वारा स्वीकृति या अस्वीकृति को ही अपने निर्णय और कार्य का आधार बनाते रहे। औपनिवेशिकता के व्यापक प्रभाव में प्रामाणिकता का केंद्र भारत से खिसक कर पश्चिम में चला गया। अज्ञान और भ्रम से आगे बढ़ कर पश्चिम पर हमारी अतिरिक्त निर्भरता कई तरह के प्रलोभनों का सबब बनती गई। इस तरह हमारी अपनी समझ पराए ढांचे में पराए निहित उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बन गई। इन सबके बीच हम अबोध बने रहे। अपने को निरुपाय और विकल्पहीन समझ कर अनुकरणप्रधान चिंतन और जीवन की शैली का अपनाते हुए उसका पालन करने लगे। वह पश्चिम में मानकीकृत होने से एक बना बनाया ढाँचा जरूर था जिसे अपनाना कम श्रमसाध्य और सरल था। इसके फलस्वरूप बड़े प्रश्नों से न टकराते हुए तात्कालिक सतही उत्सुकता को प्रश्रय मिलता रहा। यह सब एक दुविधाग्रस्त राष्ट्रीय मानसिकता का जनक बन गया जिसके तहत आत्म-बोध,  सामाजिक अस्मिता, लोक-कल्याण और परिवेश की रक्षा जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न उलझते चले गए। आज जब आत्मनिर्भर देश की संकल्पना की जा रही है तो हमें अपने भीतर झांकने की जरूरत है और आत्मावलोकन द्वारा स्वयं को पहचानने की जरूरत है। आत्मान्वेषण और आत्मानुभव की यह अनिवार्य अपेक्षा होती है कि समय-समय अपनी जांच-परख करते रहा जाय। हमें भारत की विविधता भरी ज्ञान और संस्कृति की अपनी विरासत को स्वीकार कर अनुभव का हिस्सा बनाना होगा।

आज मिलावट के बाजार के अपरिमित विस्तार में दूध और उससे तैयार होने वाले छेना, मावा तथा घी, मिठाई, दवा, दारू सभी शामिल हो चुके हैं। जीवनदायी जल, वायु, अन्न, जमीन आदि सभी  प्रदूषण की चपेट में  आ रहे हैं। मानसिक और भावनात्मक प्रदूषण भी अनियंत्रित सा हो रहा है। आपराधिक आंकड़ों का ताजा सार्वजनिक विवरण और मानसिक स्वास्थ्य की रपटें कड़ी चेतावनी दे रही हैं।

हमारी परम्परा उन्मुक्त और उदार भाव से जीवन जीने का अवसर देती है। यहाँ के उत्सव मूल रूप से प्रकृति केंद्रित और समग्र जीवन को समर्थ बनाने की दृष्टि से आयोजित किए जाते हैं। सभ्यता के आरम्भ से ही यहाँ के मनुष्य को सृष्टि की लय की बड़ी चिंता रही है। उसे ऋतुओं का संगीत मुग्ध करता रहा है। यह पूरा जगत उसे देव का काव्य लगा था या फिर ईश्वर का आवास। अपने आत्म के विस्तार के साथ सृष्टि के साथ संगति बिठाना ही श्रेयस्कर होता है परंतु आज के दौर में आत्म-प्रस्तुति ही प्रमुख सरोकार होती जा रही है। आत्म-मुग्ध होते हुए लोग आत्म-छवि को प्रबंधन पर अधिक ध्यान देने लगे हैं। आत्म-प्रशस्ति पाने की बलवती इच्छा के कारण अपनी क्षमता से परे जा कर लोग आत्म-प्रसार के आयोजन में हैरान परेशान रह रहे हैं। इसी का एक पक्ष अपने सामाजिक और भौतिक परिवेश के प्रति संवेदनहीनता के रूप में व्यक्त होता है। इसी के चलते प्रदूषण की पारिस्थितिकी के बीच जीना आम आदमी की मजबूरी होती जा रही है। इसके अनेक विकृत रूप सामने आ रहे हैं। आज मिलावट के बाजार के अपरिमित विस्तार में दूध और उससे तैयार होने वाले छेना, मावा तथा घी, मिठाई, दवा, दारू सभी शामिल हो चुके हैं। जीवनदायी जल, वायु, अन्न, जमीन आदि सभी  प्रदूषण की चपेट में  आ रहे हैं। मानसिक और भावनात्मक प्रदूषण भी अनियंत्रित सा हो रहा है। आपराधिक आंकड़ों का ताजा सार्वजनिक विवरण और मानसिक स्वास्थ्य की रपटें कड़ी चेतावनी दे रही हैं। कर्ज लेकर वापस न दे पाने वाले लोग आत्म हत्या कर रहे हैं। अधिकाधिक लोग अवसाद, तनाव, दुश्चिन्ता  से ग्रस्त हो रहे हैं।

संकेत स्पष्ट हैं कि उपभोग-प्रधान जीवन शैली खतरनाक और भ्रमात्मक है। यह सत्य हमें समझना होगा कि पृथ्वी के संसाधन असीमित नहीं हैं। हम अनेक देशों में देख रहे हैं कि उनका अंधाधुंध इस्तेमाल या संसाधनों का अनियंत्रित दोहन न केवल कूड़ा-कचरा पैदा करता है बल्कि प्रतिस्पर्धा और हिंसा की प्रवृत्ति को बलवान बना रहा है। यह सब यही बता रहा है कि मन के भीतर पैठे मोह, लोभ, ईर्ष्या और द्वेष गहन अंधकार फैला रहे हैं। ये जीवन विरोधी तत्व हैं जिनके प्रभाव में कुछ सूझता नहीं। हमें सृष्टि का आलाप और विलाप दोनों ही सुनना और गुनना होगा। द्रोह और विद्वेष को छोड़ कर जीवन के मूल्य को प्रतिष्ठित करना होगा। सात्विक भाव के साथ ही हम सब भारत को महान देश बना सकेंगे।

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