मेरी रसोई : पौष्टिकता से भरपूर हैं पहाड़ी व्‍यंजन

सुनीता भट्ट पैन्यूली

किसी भी समाज का दर्पण उसके अवशेषात्मक प्रमाण अथार्त उसकी लोक-संस्कृति, लोकगीत, लोक नृत्य और उसका खान-पान हैं. उस समाज की संस्कृति, परंपराओं और सभ्यताओं की बात करना तब तक अधूरा ज़िक्र है जब तक हम उस विशेष सामाजिक  परिवेश के खान-पान  अथवा ज़ायके का ज़िक्र न करें. खान-पान दरअसल महज़ उदरस्थ करना ही नहीं उसके प्रच्छन्न हमारे पूर्वजों का मनोविज्ञान उनके जीवन की दास्तां भी हैं.

खाद्य पदार्थ और उससे बने व्यंजनों की उत्पत्तियों का इतिहास इतना आसान नहीं रहा होगा निश्चित ही इसका कारण संभवतः प्रतिकूल भौगोलिक परिस्थितियों  में भोजन जुटाने की ज़द्दोज़हद, ज़िंदा रहने की प्रत्याशा रही होगी.

खान-पान और भोज्य पदार्थ परिचायक भी हैं उस विशिष्ट समाज के भौगोलिक वातावरण उसकी विषमता और उससे सामंजस्यता की जहां शहरों से सुदूर बसाहत,आर्थिक कमज़ोरी और पौष्टिक अन्न की अनुपलब्धता शायद कारण रहा हो जिससे हमारे पुरखों ने अपने खेतों में झंगोरा, कोदा, चौलाई, भट, सोयाबीन लाल चावल उगाना शुरु कर दिया हो इस बात से अनभिज्ञ होकर कि जिसे वह कोरा अनाज समझ रहे थे वह वास्तव में कितने पौष्टिक थे उनके शरीर के लिए? जिसका परिणाम हम गांवों में हष्टपुष्ट उम्रदराज़ पुरूषों और महिलाओं को उम्र की ढलान पर होने के बावज़ूद पहाड़ों की दुश्वारियों के बीच संघर्षरत जीवन जीते हुए देखा जा सकता है.

सांस्कृतिक बोध अपने समाज और परिवेश के खान-पान में ही मज़बूती से संभव है.जब इस ओर जिज्ञासा और रुचि विकसित होती हैं तो संस्कृति स्वयं ही हमारे आसपास हमारे घरों में विकसित होती चली जाती है. एक पहाड़ी मन चाहे कहीं भी जीवन निर्वाह करे,पहाड़,खेत,नदी,चारावाह,फसल, खाद्य-पदार्थ उसके आंखों के कोरों और  हृदय से कभी मिटते ही नहीं हैं. कहीं अपने पहाड़ की ख़ुशबू महकी नहीं कि हृदय आसक्त हुआ नहीं इन सीधे- सपाट सिलबट्टे की रगड़ से होकर गुजरे गढ-भोज के रसास्वादन के लिए.

पहाड़ी व्यंजन बनाना जितना सरल है पौष्टिकता उनमें उतनी ही ज़्यादा है. दरअसल गढ भोज बनाने के लिए कोई सिद्ध हस्तता या पारंगतता नहीं चाहिए. बहुत साधारण सा भोजन है उत्तराखंड के लोगों का किंतु जो रसांड़ है खाने में वह सिलबट्टे में पिसे मसालों की और इन पहाड़ी व्यंजनों को काली लोहे की कढ़ाई में बनाये जाने से है.

यह सीधे सपाट सिलबट्टे पर खड़े मसालों यानी साबुत धनिया,लहसून के जखेले,लाल सूखी मिर्च और दो तीन लौंग को पानी के साथ पीसने की रगड़पट है जो पहाड़ के व्यंजनों को साधारण होने के बावजूद भी एक अतिविशिष्ट स्वाद देती हैं. दीगर पहाड़ी व्यंजनों को लोहे की कढ़ाई में रलाने मिलाने के उपरांत भोजन में उत्पन्न होता आइरन का स्वाद उत्तराखंड के व्यंजनों को एक अलग ही स्वादानुभूति देता है.

गढ़भोज थाली में फाणू, भटवाड़ी (चुरकाड़ी) चैंसू, काफ़ली, लाल भात, पत्यूड़, कोदे की रोटी, चौलाई की सब्जी,कद्दू के पत्तों की सब्जी, पलेयु, झंगोरे की खीर और भी अन्य व्यंजन पहाड़ की शान बढ़ाते हैं, जहां तक इन व्यंजनों के बारे में नानी, दादी, सासु मां, मां से जाना, सुना और सीखा है स्वयं बनाकर आप सभी से साझा कर रही हूं.

फाड़ू

यह व्यंजन मूंग,गहथ,काले चने,दले चने को एक दिन पहले भिगोकर मुख्यत:सीलबट्टे में पीसकर सीलबट्टा उपलब्ध नहीं है तो मिक्सी में पीसकर भी बनाया जा सकता है.

लोहे की कढ़ाई में जखिया, हींग और कटी हुई लहसुन का तड़का लगाकर उसमें पीसी दाल को मिलाकर उसमें सीलबट्टे में ही पीसा हुआ लहसून, अदरक और हरी मिर्च,लौंग के साथ अन्य मसाले जैसे धनिया पाउडर और नमक मिलाने के बाद  देर तक खदबदाकर फाड़ू तैयार किया जाता है.

भटवाड़ी (चुरकांड़ी)

भटवाड़ी (चुरकांड़ी)

यह व्यंजन भट या सोयाबीन को लोहे की कढ़ाई में तेल डालकर उसमें जीरा और हींग डालकर चटकाया जाता है तत्पश्चात बेसन या आटा भूनकर उसमें लहसुन,अदरक,हरी मिर्च धनिया पाउडर,गरम मसाला मिलाने के बाद करीब बीस मिनट उबालने के बाद सुस्वादु भटवाड़ी या चुरकांड़ी बनाया जाता है कई जगह गढ़वाल में इसमें आटे या बेसन की जगह दही या चावल का मांड मिलाकर भी बनाया जा है.

झंगोरे की खीर

झंगोरा सुपाच्य,कम कैलोरी,उच्च ऊर्जा वाला  खाद्य पदार्थ है जिसे आम खीर की तरह ही दूध के साथ पकाकर, खिटाकर स्वादिष्ट खीर तैयार की जाती है. “इकनिक्लोवा फ्रूमेन्टेंसी” इसका वानस्पतिक नाम है.  इसे दूसरी भाषाओं में सामां,श्यामा के चावल भी कहा जाता है.

काफली

काफ़ली कोई भी हरे पत्ते जैसे पालक,अरबी के पत्ते,कद्दू के पत्ते को पानी में उबालकर सिलबट्टे या मिक्सी में पीसकर वही जखिया लहसून लाल मिर्च और हींग के बघार के साथ प्याज का तड़का देकर थोड़ा बेसन या आटे को मिलाकर वहीं सिलबट्टे के रगड़पट खड़े मसालों के साथ लोहे की कढ़ाई में थड़काकर बनाया जाता है.

चैंसू या रिखणी दाल

चैंसू या रिखणी दाल छिलके की उड़द से दो प्रकार से बनायी जाती है.पहली छिलका उड़द को सूखा ही सिलबट्टे या मिक्सी में दरदरा पीसकर लोहे की कढ़ाई में

हींग, जीरे लहसुन और प्याज का तड़का लगाकर उसमें सिलबट्टे में रगड़ा हुआ लहसुन,अदरक,हरी या लाल मिर्च और एक आध लौंग, भी डालकर  थोड़ा गर्म मसाले के साथ मिलाकर बनाया थड़काकर बनाया जाता है.

चौलाई की सब्जी- चौलाई की सब्जी यहां शहरों में भी हर पहाड़ी घर के आगे उसके खेत में खेत नहीं तो गमले में उगी हुई मिल जायेगी.

चौलाई की सब्जी को बनाना बहुत आसान है इसमें सरसों के तेल में हींग, लहसुन ,लंबे कटे हुए प्याज का तड़का डालकर छम से कटी चौलाई और उसमें सिर्फ़ नमक और हरी मिर्च डालकर करीब दस से पांच मिनट पकाकर तैयार कर ली जाती है,हम पहाड़ियों के यहू दाल-भात के साथ लगभग रोज़ ही बना ली जाती है.

यह सब्जी आइरन से भरपूर झटपट बनने वाली सब्जी है.

पत्यूड़- अरबी जिसे पिंडालू भी कहते हैं के पत्तों से बने पत्यूड़ उत्तराखंड के गढ भोज थाली में एक विशिष्ट पहचान रखते हैं हालांकि इसे बनाना आसान भी नहीं है बेसन और पत्ते में समानुपात का ध्यान रखना ही अच्छे जलबले पत्यूड़ की पहचान है.अरबी के पत्तों को काटकर उसमें बेसन मिलाकर बस वही कुटी हुई  लौंग, अदरक, लहसुन

कोदा यानी  मंडुवे की रोटी

कोदा या मंडुआ के आटे को गूंथकर  करारी रोटियां बनायी जाती हैं जो लोग मुलायम  खाना पसंद करते हैं वह गेहूं और कोदे का बराबर अनुपात मिलाकर कोदे की मुलायम रोटी बनाते हैं. कोदे या मंडुवे का वानस्पतिक नाम “एल्युसिन कोरेकाना”  है जिसका पहाड़ की परंपरागत मिश्रित खेती में महत्त्वपूर्ण भुमिका मानी जाती है.

कद्दू के पत्ते की सब्जी

यह सब्जी भी आम सब्जियों की तरह ही बनायी जाती. कद्दू की बेल से मुलायम पत्ते लेकर बारीक काटकर उसे लहसून ,हींग और प्याज से छौंकर सिर्फ़ नमक और कटी हरी मिर्च डालकर ही इस सब्जी का स्वाद दुगुना हो जाता है. कद्दू के फूलों को बेसन या आटे में गूंथकर, हरी मिर्च काटकर स्वादिष्ट चीला भी बनाया जाता है.

बांस की सब्जी (बंसकील)

बांस की सब्जी शायद बहुत कम लोगों ने सुना होगा हमारी नानी, दादियों के समय प्रचलित सब्जी थी जिसका बचपन में मेरे द्वारा रसास्वादन आज भी जिह्वा में विद्यमान है. जिस दिन बंसकील घर पर बनता था एक अजीब सी चहल-पहल सी घर में महसूस होती थी जैसा कि बंसकील यानी कि बरसात में उभर आयी बांस

की मुलायम कोंपलों को जंगल से लाकर बनाया जाता था उसे धोकर ,छीलकर उबालकर, सिलबट्टे में घिसे वही उपरोक्त समान कड़क मसालों के साथ मिलाकर बनाने की प्रक्रिया बहुत मश्क्क़त भरी थी,किंतु उसके स्वाद का कोई सानी नहीं था.

झंगोरे की खीर

पल्यु (छंछिया)

पल्यु छंछिया  मां का आज भी बहुत प्रिय गढभोज है मां के साथ यदा-कदा मुझे भी चखने का अवसर मिल जाता है.

बहुत साधारण रुप से इसे बनाया जाता है झंगोरे को पकाकर इसमें मट्ठा या छांछ मिलाकर चूल्हे से उतारकर इसमें केवल हरा पिसा हुआ नमक मिलाकर हाथ से सपोड़कर खाया जाता है नमक भी गढ़वाल का कोई ऐसा वैसा नहीं वही सिलबट्टे में सफेद नमक,हरा धनिया,लहसून के जखेले हींग की रगड़पट के साथ चटपटा नमक बनाया जाता है जिसको बरसात में लगी मुलायम कख़ड़ियों या बाद में पकी पीली पहाड़ी ककड़ियों, मूली,कच्चे पपीते,या गलगल की चमोली  में मिलाकर सर्दियों में घाम में बैठकर खाया जाता है.

कोदे के आटे का चुरमा

कोदा जिसे मंडुआ,चूने का आटा भी कहा जाता है घी में भूनकर चीनी मिलाकर तैयार किया जाता है .दादी जब भी गांव से आती यह चूरमां अपने साथ ज़रूर लेकर आतीं हालांकि मुझे इसका स्वाद कभी भाया नहीं किंतु स्वास्थ्य की दृष्टि से हमेशा लाभप्रद रहा है.

उम्मी (भूनी हुई गेहूं की बालियां)

गेहूं की फसल जब पककर तैयार हो जाती हैं  गेहूं की बालियों को सार्वजनिक आग में भूनकर गांव में हर्षोल्लास के साथ  इस पहाड़ की परंपरा  को निभाया जाता है. उम्मी भी दादी की पोटली का अभिन्न हिस्सा थी. उन उम्मीयों का स्वाद आज भी ज़ेहन में तरोताजा है मानो कल की ही बात हो.

अपने परिवेश और उस में पूर्णतः ढली हुई या यूं कहूं रची-बसी हुई आत्मा के संदर्भ में  कृष्णा सोबती जी के विचार से कहीं न कहीं मेरी सोच भी सहमति रखती है जैसा कि वह कहती हैं कि “ सच कहूं तो अपना देहातीपन  हमने अपनी आत्मा में बचा रखा है और शहरीपन अपने तौर-तरीके और लिबास में.”मुझे कतई हिचक नहीं है कहने में कि मैंने आंख खोलते ही अपने घर में अपने माता-पिता को  अपनी गढ़वाली भाषा में ही बतियाते और उनके पारंपरिक व्यंजनों की ख़ुशबुओं में रचते-बसते हुए देखा.

परिणामस्वरुप मेरे घर की थाली में पहाड़ी व्यंजन एक विशिष्ट व वैधव्यमय हैं. गर्व है मुझे पहाड़ की बेटी और बहू होने पर.

(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)

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