पहाड़ की धड़कनों को सुनने वाले कवि हैं- हरीश चन्द्र पांडे

Ek Burunsh kahin Khilta hai

पुस्तक समीक्षा – एक बुरुंश कहीं खिलता है

  • प्रवीन कुमार भट्ट

एक बुरुंश कहीं खिलता है, यह वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पांडे का हाल में पुर्नप्रकाशित कविता संग्रह है. इस 1999 में प्रकाशित इस चर्चित कविता संग्रह के अब तक तीन संस्करण छप चुके हैं. संग्रह का तीसरा संस्करण समय साक्ष्य द्वारा 2024 में प्रकाशित किया गया है.

हरीश चन्द्र पांडे देश के वरिष्ठ और चर्चित कवि हैं. हरीश चन्द्र पांडे के अनेक कविता संग्रह चर्चित रहे हैं. ‘कुछ भी मिथ्या नहीं है’, ‘एक बुरुंश कहीं खिलता है’, तथा ‘कछार कथा’ आपके कविता संग्रह हैं. इनके अतिरिक्त ‘कैलेंडर पर औरत तथा अन्य कविताएं’, ‘मेरी चुनिंदा कविताएं’, इनकी चयनित कविताएं हैं. ‘दस चक्र राजा’ हरीश चन्द्र पांडे का कहानी संग्रह है. इनका एक बाल कथा संग्रह ‘सच का साथी’ भी प्रकाशित हुआ है.

 ‘एक बुरुंश कहीं खिलता है’ कविता संग्रह का अंग्रेजी रूपांतरण ‘ए फ्लावर ब्लूम्स समव्हेयर’ नाम से प्रकाशित हो चुका है. कविता ‘महाराजिन बुआ’ की पृष्ठभूमि में एक लघु वृत्त चित्र महाराजिन भी बन चुका है. हरीश चन्द्र पांडे की कविताओं के कुछ अनुवाद बांग्ला, तेलुगू, ओडिया, मराठी, पंजाबी, अंग्रेजी, मैथिली आदि भाषाओं में प्रकाशित हुए हैं. आपके कुछ कथेतर गद्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.

हरीश चन्द्र पांडे को अनेक पुरस्कार व सम्मानों से नवाजा गया है. इनमें ‘शमशेर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘सोमदत्त सम्मान’, ‘ऋतुराज सम्मान’, ‘मीरा स्मृति सम्मान’ तथा ‘हरिनारायण व्यास हिंदी काव्य पुरस्कार’ शामिल हैं. हरीश चन्द्र पांडे भारतीय लेखा तथा लेखा परीक्षा विभाग से सेवा निवृत होकर वर्तमान में इलाहाबाद में रहते हैं.

अब बात कवि की कविताओं की – एक बुरुंश कहीं खिलता है, यह जो हरिश्चंद्र पांडे का संग्रह है इसका पहला संस्करण 1999 में आया. उसके बाद इसका दूसरा संस्करण 2001 में तथा जो वर्तमान संस्करण बाजार में है वह 2024 में प्रकाशित हुआ है. इस तरह से यह इस किताब का तीसरा संस्करण है.

एक बुरुंश कहीं खिलता है के तीसरे संस्करण के आवरण पर जो सुंदर बुरुंश का चित्र लगा हुआ है. इसे उत्तराखंड के युवा छाया चित्रकार मुकेश बिष्ट ने अपने कमरे में कैद किया है. उनका आभार. साथ ही प्रिय हर्ष काफर का आवरण चित्र की बात को आगे बढ़ाने के लिए आभार. इसी प्रकार इस किताब के प्रकाशन लिए जिन्होंने प्रोत्साहित किया कवि महेश पुनेठा व अग्रज पृथ्वी सिंह का भी आभार. इस किताब का मूल्य केवल 135 रुपए है. इस किताब को हरीश चन्द्र पांडे जी ने अपनी ईजा और बाबू को समर्पित किया है.

पुस्तक की भूमिका राजेंद्र कुमार ने लिखी है. वे अपनी भूमिका में लिखते हैं- मानवीय अनुभूतियों की अपनी धड़कनों को गुम करने वाला तात्कालिक लाभ-लोभ का शोर जब हमारी ज़िंदगी की सारी गतियों को नापने का दावेदार बन बैठे तो कविता की जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ जाती है, कवि का काम और ज्यादा मुश्किल हो जाता है. इस तथ्य को नजरअंदाज करके हड़बड़ी में कवि होना हरीश चन्द्र पांडे की फितरत में नहीं है. इनकी कविताएं एकदम हमारे आस-पास की बहुत छोटी-छोटी, मामूली और अक्सर, ओछी समझी जाने वाली चीजों और चाहतों की अपनी अहमियत को हमारी संवेदना का अंग बनाती हैं.

आकस्मिक नहीं है कि इनकी अनेक कविताओं में ‘खुलना’ शब्द अनेक रूपों में अनेक बार आता है. खुलना हरीश चन्द्र पांडे के यहां प्रकट होना या उजागर होना भी है. मुक्त होना भी और परिवर्तित या रूपांतरित होना भी.

मनुष्य की इच्छाशक्ति अपनी अदम्यता को प्रकट करने के लिए कैसे संघर्ष करती है? जैसे फूल की पंखुड़ियां, जैसे नवजात शिशु की पलकें खुलने के लिए करती हैं. ‘कसकर बांध दिए गए समय की गांठें खुल रही हैं’ – यह भरोसा दिलाने वाली संभावना कौन-सी है? यह कि ‘एक बंधुवा मुक्त हुआ कहीं.’ सुंदरता का अर्थ अपनी कोमलता में ही नहीं खुलता, अपनी भीषण क्रूरता में भी खुलता है जब हम देखते हैं कि ‘कसाई छांट़ता है एक सुंदर बकरी.’

इस संग्रह की कुछ कविताएं अक्सर धैर्य से बांचने लायक ऐसी चिट्ठियों की तरह भी प्रतीत होती हैं जो ‘दूर से आई हैं भीड़ में रास्ता बनाते.’ इनमें हमारी ‘अयोघ्या’ आती है – ‘मतपेटिका से भी छोटी’ होते जाने का त्रास भुगतते हुए. स्थितप्रज्ञता को सामान्य बनाने वाली संवेदन-हीनता के विरुद्ध एक सार्थक संवेदनशीलता का यह विश्वास लेकर आती हैं ये कविताएं- ‘दुख हमें झकझोरेंगे ही/सुख में हम नहीं रोक पाएंगे अपना चहकना.’ तो यह थी राजेन्द्र कुमार के शब्दों में लिखी इस किताब की भूमिका.

भूमिका के बाद अब इस किताब की विषय सूची के बारे में बात की जाए. इस किताब में कुल 62 कविताएं हैं और किताब में कुल 96 पेज हैं. इस किताब की पहली कविता है अधूरा मकान. उसके अलावा लद्दू घोड़े, देवता, परदा, परीक्षा कक्ष में, हिजड़े, लड़का और समय, अठारह की उम्र, बच्चे, कैलेंडर के पीछे, इस उद्यान में, कुछ लोग, उसने कहा, अयोध्या, तिजारत, दो सवाल, विचार, आग, इस मदहोश को चलाने के लिए, मौसम-तीन कविताएं, हम तीन लोग, मैं जहां तक देखता हूं, बोलो कोयल, वसंत, जीवन, भाषा, परिवर्तन, खिलना एक कमल का, मुक्ति, दीवार घड़ी, दुनिया, चिट्टियां, धैर्य, सारोवीवा,  21वीं सदी की ओर, वहां कोई बच्ची नहीं थी, मां, नृत्यांगना, एक चादर, हंसी का अर्थ, धूप, सिर, वह, अपना समय, अनिकेत विश्वकर्मा, बिलासपुरी मजदूर, एक बुरुंश कहीं खिलता है, पहाड़ में औरत, वे सीख रहे हैं, यह भाबर है, वक्त जरूरत के लिए, श्मशान घाट पर, हम दोनों, नहर के नाभि केंद्र तक, कसाईबाड़े की ओर, पानी, वक्रोक्ति, उसका बोलना, बचो, उम्मीद से, इच्छाएं और संकट की घड़ी में कविताएं शामिल हैं.

इस तरह इस संग्रह में कुल 62 कविताएं हैं. इस संग्रह की पहली कविता यहां पर दे रहे हैं-

अधूरा मकान

इसे दो कमरे का मकान बनना था

फिलहाल एक कमरे के बाद काम बंद है

जो कमरा अभी बनना है नक्शे के हिसाब से बड़ा कमरा है

जहां पर इस कमरे का दरवाजा होना था

वहां अभी पपीते का एक पेड़ बड़ा हो रहा है

जब फल लगेंगे इस पेड़ पर तो याद दिलाएंगे हमें

इतना समय बीत गया और हम कुछ नहीं कर पाए

भविष्य का यह कमरा अभी बिखरा है अपने चारों ओर

रेत है एक कोने पर और इसे हवा से बचाया जाना है

एक कोने पर सरिया है इसे पानी से बचाया जाना है

ईंटें बिखरी हुईं इधर-उधर और कुछ बने दरवाजे भी

ये वर्षों से जमा अपनी पहली तारीखें हैं

बहने या जंग लगने से इन्हें बचाया जाना है

जो कमरा बना है वह भी पूरी तरह बना नहीं है अभी

दीवारों का रिसाव

पहली बरसात में ही बना गई है अनींद का ताल

प्लास्टर से ईटों का शरीर नहीं ढका जा सका है

हां इस बीच

सरिया का एक सिरा धंस गया है बच्चे के पैर में

इस बीच बालों का रंग कुछ धूसर हो गया है

इस बीच कुछ ऐसा बऱता जा रहा है कि धोतियां अनंत समय

तक चलें

इस बीच अन्न परमात्मा हो गया है

और प्यार प्यार इस बीच

खूंटी की तरह दो लाल ईटों के बीच जगह तलाश रहा है

अधूरा मकान यह

आधा सच है आधा सपना

आधा हंसी है आधा रोना

यह ताजा कटे बकरे की छटपटाती देह है

एक कामना है जो मरते आदमी को मरने नहीं देती

बाहर अपने हरेपन के साथ सुख गई पत्तियों का बंदनवार है

जिसके भीतर सब कुछ शुभ है सब कुछ निष्ट

जैसे भीतर कोई युवा फेफड़ा धड़क रहा है

जैसे एक पक्षी विपरीत हवा में तैर रहा है

जैसे एक हंसी वर्तमान और भविष्य की खिड़कियों से छनकर

दूर तक जा रही है

मकान के अधूरेपन से एक खुशबू आ रही है

एक खुरदुरी ऊंचाई को लांघ गई है लौकी की एक बेल

और छा गई है अधूरेपन के ऊपर

हर सपनों की झालर लिए यह मकान

इस बस्ती का सबसे खूबसूरत मकान है

इस घर का सबसे छोटा बच्चा अपनी कापी में

एक पूरा मकान बना रहा है

इस मकान में उसने कुछ पंख लगा दिए हैं.

हरीश चन्द्र पांडे के इस संग्रह की दूसरी कविता है-

 लद्दू घोड़े

अछोर समय को लादे अपनी पीठ पर

लद्दू घोड़े चर रहे हैं

उनके गले में बंधी घंटियां

जिरह कर रही हैं आपस में

इतिहास में कहां खड़े हैं लद्दू घोड़े

लद्दू घोड़े अपनी पीठ के जख्म पर बैठी

मक्खियों को भगाने के लिए

पूरी पीठ बरकाते हैं

जिन पीठों को देखकर फिसल जाती हैं आंखें

जिनमें बैठकर मृगया के लिए निकलते हैं राजपुरुष

उनकी पीठों का वर्णन किया है इतिहास ने

लद्दू घोड़े मंत्र गति से चलते रहे युगों

पीठ पर लादे स्तूप शिलालेख मूर्तियां गुंबद

उन पर लदकर आया पूरा गांधार

उन पर लदकर गई पूरी दिल्ली

अस्तबलों में कहां थी उनकी जगह पता नहीं

पर वे यात्रा के पड़ावों और युद्ध-शिविरों में

सम्राटों से दो दिन पहले मौजूद थे

अपने सैनिकों के लिए हुए रसद

और जीवन रक्षक औषधियां

वे अंत तक मौजूद थे

पर कहीं नहीं थे वे इतिहास में

जबकि किसी स्वर्णयुग की कल्पना

बिना जख्मी पीठों के संभव नहीं

गले में लटकाए चने की थैली

और पीठ पर सोना-चांदी लादे

बीच यात्रा में

किसी मोड़ पर चूक गए लद्दू घोड़़े

इतिहास में दर्ज थे

कूच करने के आदेश

 

इस संग्रह की शीर्षक कविता है-

एक बुरुंश कहीं खिलता है

खून को अपना रंग दिया है बुरुंश ने

बुरुंश ने सिखाया है

फेफड़ों में भरपूर हवा भरकर

कैसे हंसा जाता है

कैसे लड़ा जाता है

ऊंचाई की हदों पर

ठंडे मौसम के विरुद्ध

एक बुरुंश कहीं खिलता है

खबर

पूरे जंगल में आज की तरफ फैल जाती है

आ गया है बुरुंश

पेड़ों में अलख जगा रहा है

उजास और पराक्रम के बीज बो हो रहा है

कोटरो में

बुरुंश आ गया है

जंगल के भीतर एक नया मौसम आ रहा है

तो इस तरह यह तीन कविताएं हरीश चन्द्र पांडे की किताब एक बुरुंश कहीं खिलता है से और कुछ बातें हरीश चन्द्र पांडे के बारे में थी.

यह संग्रह amazon पर उपलब्ध है.

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *