हिंदी भाषा के लिए कुछ मत करो, बस गर्व करो

Hindi Diwas

 

हिंदी दिवस (14 सितंबर) पर विशेष

Prakash Upreti

डॉ. प्रकाश उप्रेती

हिंदी की दुनिया का लगातार विस्तार हो रहा है. इस दुनिया के साथ हिंदी के बाजार का भी विस्तार हो रहा है. इसमें ‘हिंदी भाषा’ का कितना विस्तार हो रहा है यह संदेहास्पद है! यह संदेह तब और गहरा हो जाता है जब हम देखते हैं कि हिंदी पट्टी के सबसे बड़े राज्य और सबसे अधिक ‘हिंदी भाषा की खपत’ वाले राज्य की बोर्ड परीक्षा में वर्ष 2019 में 10 लाख बच्चे और 2020 में 8 लाख बच्चे हिंदी में फेल हो जाते हैं. फिर भी हमें बताया जाता है कि हिंदी की इस स्थिति पर विचार करने की बजाय हिंदी पर गर्व करना होता है.

“14 सितंबर को हिंदी का श्राद्ध होता है और हम जैसे  हिंदी के पंडितों का यही दिन होता जब हम सुबह से लेकर शाम तक बुक रहते हैं”

हिंदी का व्यक्ति, हिंदी का अखबार, हिंदी के विज्ञापन, हिंदी के नेता, हिंदी के शिक्षक सभी हिंदी पर गर्व करने को कहते हैं क्योंकि वह बताते हैं कि 40 देशों में हिंदी पढ़ाई जा रही, वह बताते हैं कि इंटरनेट के जाल में और इंटरनेट के बाजार में हिंदी में माल बिक रहा है, हिंदी, दुनिया की तीसरी सबसे ज्यादा लोगों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा है और भी तमाम आँकड़े बताने लगते हैं लेकिन वह नहीं बताते हैं कि हिंदी प्रदेश में ही हिंदी की इतनी दुर्दशा क्यों हैं? वह नहीं बताते हैं कि ‘ज्ञान निर्माण की भाषा’ के रूप में हिंदी को स्थापित करने के लिए देश में बने तमाम संस्थान और विश्वविद्यालयों ने अब तक क्या किया? वह ज्ञान के कब्रगाह क्यों बन गए हैं?

आज हिंदी वालों को हिंदी वालों की तरफ से हिंदी में व्यवहार करना है, यह बताने का दिन है. इस दिन यानी 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में याद किया जाता है. इस तारीख से आगे-पीछे हिंदी पखवाड़ा मनाने का चलन भी खूब है ताकि हिंदी के मूर्धन्य विद्वान अलग-अलग भाषा विरोधी और हिंदी भाषा व हिंदी वालों को हीन समझने वाले संस्थानों में जाकर हिंदी का तर्पण कर सकें. इसमें हिंदी के स्वनामधन्य विद्वानों को बहुत मजा भी आता है.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भाषा के सवाल पर गंभीरता से विचार किया गया. खासकर क्षेत्रीय बोलियों के साथ भारतीय भाषाओं में ज्ञान निर्माण पर जोर दिया गया है. ऐसे में देखना ये होगा कि ‘राजपत्र’ में जो कुछ कहा गया, धरातल पर वह कितना उतरा है. असल सवाल क्रियान्वयन का है. डिजिटल दौर में जहाँ कहना, लिखना और बोलना आसान हुआ है वहीं धरातल पर क्रियान्वयन पहले से ज्यादा मुश्किल हुआ क्योंकि आजकल एक ट्वीट से नीति तय हो रही है.हाल में नेपाल में हुए जेन-Z के आंदोलन ने तो देश का सर्वोच्च ‘नेता’ यानी प्रधानमंत्री भी सोशल मीडिया के पोल से तय किया. ऐसे में धरातल पर क्रियान्वयन दिनों दिन और मुश्किल होता जा रहा है.

आज हिंदी वालों को हिंदी वालों की तरफ से हिंदी में व्यवहार करना है, यह बताने का दिन है. इस दिन यानी 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में याद किया जाता है. इस तारीख से आगे-पीछे हिंदी पखवाड़ा मनाने का चलन भी खूब है ताकि हिंदी के मूर्धन्य विद्वान अलग-अलग भाषा विरोधी और हिंदी भाषा व हिंदी वालों को हीन समझने वाले संस्थानों में जाकर हिंदी का तर्पण कर सकें. इसमें हिंदी के स्वनामधन्य विद्वानों को बहुत मजा भी आता है.

मेरे एक शिक्षक कहा करते थे कि- “14 सितंबर को हिंदी का श्राद्ध होता है और हम जैसे  हिंदी के पंडितों का यही दिन होता जब हम सुबह से लेकर शाम तक बुक रहते हैं”.  तब उनकी यह बात मजाक लगती थी लेकिन अब एकदम सटीक प्रतीत होती है क्योंकि इन 75 वर्षों में हिंदी की आत्मा प्रेत ही बन चुकी है. तभी तो स्कूल इसकी पढाई कराने से डरते हैं और अभिभावक इस भाषा को बच्चे को पढ़ाने में संकोच करते हैं. सरकार ने इसके लिए खंडहर बना ही रखे हैं जो अब सरकारी नीति की भेंट चढ़ चुके हैं. भला और कैसे कोई भाषा प्रेत बनेगी! आप भी सोचो जरा ? इतना तो हिंदी के लिए कर ही सकते हो .. . सोचो सोचो

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