
कपूर कचरी की हिमालयकी एक बहुमूल्य जड़ी-बूटी
जे. पी. मैठाणी
हिमालय अपनी अनूठी जैव विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहां की वादियों में सैकड़ों औषधीय पौधे और वनस्पतियां स्वाभाविक रूप से उगती हैं। इन्हीं में से एक है – कपूर कचरी (Hedychium spicatum) जिसे स्थानीय भाषा में स्येडू या सैडू कहा जाता है और आम बोलचाल में इसे जिंजर लिली भी कहते हैं। इसका कुल नाम जिंजिबेरेसी है और यह अदरक-हल्दी की तरह कंद वाली औषधीय वनस्पति है।
सांस्कृतिक महत्व
चमोली जनपद के ग्रामीण अंचल में शादियों के समय होने वाले मंगल स्नान की परंपरा में कपूर कचरी और सुगंधबाला की जड़ों को हल्दी के साथ मिलाकर दूल्हा-दुल्हन के स्नान में प्रयोग किया जाता है। इसकी विशिष्ट सुगंध और औषधीय गुण इसे पर्वतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बनाते हैं।
पीपलकोटी में सफल प्रयोग
पीपलकोटी (चमोली) में लगभग 1300 मीटर की ऊंचाई पर ‘आगाज़’ सामाजिक संस्था ने उत्तराखंड महिला एवं बाल विकास परियोजना और डाबर इंडिया के सहयोग से कपूर कचरी की खेती का सफल प्रयोग किया है। सामान्यतः यह पौधा घने बांज-बुरांश के जंगलों में 1500 से 2400 मीटर की ऊँचाई पर स्वाभाविक रूप से उगता है, लेकिन अब इसे व्यवस्थित ढंग से खेती योग्य भूमि में भी उगाया जा रहा है।
आयुर्वेदिक महत्व
कपूर कचरी के कंद से सबसे पहले चिप्स बनाए जाते हैं। इन्हें छाया में या मशीन से सुखाकर पाउडर तैयार किया जाता है। इस पाउडर का उपयोग –
- एंटीसेप्टिक क्रीम
- औषधियों
- सौंदर्य प्रसाधनों
में किया जाता है।
कहा जाता है कि बोरोप्लस क्रीम जैसी लोकप्रिय दवाओं में भी कपूर कचरी का उपयोग होता है।
खेती की विधि
कपूर कचरी की खेती अदरक और हल्दी की तरह कंद (Rhizome) से होती है।
- बुवाई का समय – फरवरी-मार्च
- मिट्टी – भुरभुरी, गोबर से समृद्ध
- रोपण विधि – लाइनों में कंद बोए जाते हैं
- विशेषता – एक ही कंद को कई वर्षों तक पुनः उगाया जा सकता है
फसल सुरक्षा में उपयोगी
कपूर कचरी की विशिष्ट गंध जंगली जानवरों को दूर रखती है। खेत की मेड़ पर इसकी बाड़ लगाने से जंगली सूअर फसल को नुकसान नहीं पहुँचाते। इसके सूखे चिप्स जलाने पर मच्छर भी पास नहीं आते। इस दृष्टि से यह प्राकृतिक जैव सुरक्षा कवच का कार्य करती है।
संभावनाएं
एक नाली भूमि में यदि 40–50 किलो कंद बोए जाएं तो एक वर्ष में 150 किलो तक उत्पादन संभव है।
- बाजार मूल्य (सूखे कंद का): लगभग ₹150 प्रति किलो
- प्रति नाली आमदनी: ₹5,000 से ₹8,000 प्रति वर्ष
इस प्रकार, यह पर्वतीय किसानों के लिए नकदी फसल (Cash Crop) बनने की क्षमता रखती है।
कपूर कचरी न केवल उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़ी जड़ी-बूटी है, बल्कि यह किसानों के लिए आजीविका का नया अवसर भी प्रस्तुत करती है। आगाज़ जैसी संस्थाओं और सरकारी सहयोग से यदि इसके संरक्षण और व्यावसायिक खेती को बढ़ावा दिया जाए, तो यह जड़ी-बूटी उत्तराखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।