Tag: मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से

अमावस्या की रात गध्यर में ‘छाव’, मसाण

अमावस्या की रात गध्यर में ‘छाव’, मसाण

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—61प्रकाश उप्रेतीगाँव में किसी को कानों-कान खबर नहीं थी. शाम को नोह पानी लेने के लिए जमा हुए बच्चों के बीच में जरूर गहमागहमी थी- 'हरि कुक भो टेलीविजन आमो बल' because (हरीश लोगों के घर में कल टेलीविजन आ रहा है). भुवन 'का' (चाचा) की इस जानकारी को पुष्ट करते हुए चंदन ने कहा- 'हम ले यसे सुणेमुं' (हम भी ऐसा ही सुन रहे हैं). इसके बाद तो नोह के चारों ओर बैठे लोगों के बीच से टेलीविजन पर दुनिया भर का ज्ञान उमड़ आया.  so जिसने भी पहले टीवी देखा हुआ था वह अपनी तई भरपूर ज्ञान दे रहा था. उसमें हम जैसे लोग भी थे जिन्होंने टीवी सुना भर ही था लेकिन मुफ्त के ज्ञान देने में हम भी पीछे नहीं थे. टीवी में फ़िल्म आती है . यह ज्ञान सबके पास था. इसके आगे का ज्ञान किसी को नहीं था. इसके आगे तो एंटीना, से लेकर उसके आकार-प्रकार पर बात चल रही थी.टेलीविजन इस ज्ञान के चक्कर...
आस्थाओं का पहाड़ और बुबू

आस्थाओं का पहाड़ और बुबू

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। कोरोना महामारी के कारण हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया। इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं।इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीव...
लकड़ी जो लकड़ी को “फोड़ने” में सहारा देती

लकड़ी जो लकड़ी को “फोड़ने” में सहारा देती

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—57प्रकाश उप्रेतीपहाड़ की संरचना में लकड़ी कई रूपों में उपस्थित है. वहाँ लकड़ी सिर्फ लकड़ी नहीं रहती. उसके कई रूप, नाम और प्रयोग हो जाते हैं. इसलिए जंगलों पर निर्भरता पर्यावरण के कारण नहीं बल्कि जीवन के कारण होती है. because जंगल, जमीन, जल, सबका संबंध जीवन से है. जीवन, जीव और जंगलातों के बीच अन्योश्रित संबंध होता है. इन्हें अलग-अलग करके पहाड़ को नहीं समझा जा सकता. इन सबसे ही पहाड़ और वहाँ का जीवन बनता है.पहाड़ आज बात उस लकड़ी की जो लकड़ी को ही 'फोड़ने' (फाड़ने) में सहारा देती थी. इसके बिना घर पर आप लकड़ी फोड़ ही नहीं सकते थे. इसका मसला वैसे ही था जैसा कबीर कहते हैं न- “अंदर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट”. ईजा तो इसे कभी 'गोठ' (घर के नीचे वाला हिस्सा) तो कभी “छन” (जहां गाय-भैंस बाँधी जाती) के अंदर संभाल कर because रखती थीं. इसका काम सिर्फ लकड़ी को सहारा देने ...
पारले-जी ने की ‘विज्ञापन स्ट्राइक’ (‘तुम’- ‘हम’)

पारले-जी ने की ‘विज्ञापन स्ट्राइक’ (‘तुम’- ‘हम’)

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है. शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. कोरोना महामारी के कारण हुए 'लॉक डाउन' ने सभी को 'वर्क फ्राम होम' के लिए विवश किया. इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं. इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है. श्रृंखला, पहाड़ और because वहाँ ...
बिना पड़ाव (बिसोंण) के नहीं चढ़ा जाए पहाड़

बिना पड़ाव (बिसोंण) के नहीं चढ़ा जाए पहाड़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—55प्रकाश उप्रेतीपहाड़ में पड़ाव का बड़ा महत्व है. इस बात को हमसे ज्यादा वो समझते थे जिनकी समझ को हम नासमझ मानते हैं. हर रास्ते पर बैठने के लिए कुछ पड़ाव होते थे ताकि पथिक वहाँ  बैठकर सुस्ता सके. दुकान से आने वाले रास्ते से लेकर पानी, घास लाने वाले सभी रास्तों में कुछ जगहें ऐसी बना दी जाती थीं जहां पर थका हुआ इंसान because थोड़ा आराम कर सके. बुबू बताते थे कि जब वो रामनगर से पैदल सामान लेकर आते थे तो 5 दिन लगते और बीच में 12 पड़ाव पड़ते थे. वो इन पड़ावों के अलावा कहीं और नहीं बैठते थे. पत्थर अब हमारा बाजार केदार हो गया है. यह गाँव से चार एक किलोमीटर तो होगा ही. पहले इस बाजार में बड़ी रौनक रहती थी. मिठाई से लेकर किताब, कंचे, राशन, चक्की सभी की दुकानें थीं. सबसे ज्यादा तो चाय और सब्जी की दुकानें होती थीं. शाम के समय तो आस-पास के गांव वालों से पूरा बाजार पट...
सॉल’ या ‘साही’ (Porcupine) की आवाज के दिन

सॉल’ या ‘साही’ (Porcupine) की आवाज के दिन

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—54प्रकाश उप्रेतीसर्दियों के दिन थे.because हम सभी गोठ में चूल्हे के पास बैठे हुए थे. ईजा रोटी बना रही थीं. हम आग 'ताप' रहे थे. हाथ से ज्यादा ठंड मुझे पाँव में लगती थी. मैं थोड़ी-थोड़ी देर में चूल्हे में जल रही आग की तरफ दोनों पैरों के तलुवे खड़े कर देता था. जैसे ही मैं ऐसा करता तो ईजा चट से "फूँकणी' (आग फूंकने वाला) उठाती और एक 'कटाक' लगा देती थीं. साथ में कहतीं- "चूल हन खुट लगानि रे, पैतो तते बे ररणी है जानि" (गुस्से में, चूल्हे में पाँव लगाता है, तलुवों को गर्म करने से पैर फिसलने वाले हो जाते हैं). 'फूँकणी' की कटाक के साथ ही झट से मैं पांव नीचे कर लेता था. कभी लग जाती और कभी बच जाता था. गोठ गोठ में रोटी बनाते हुए भी ईजा के कान बाहर को ही लगे रहते थे. बाहर से आने वाली आवाज के साथ ईजा but चौकनी हो जाती थीं. कभी बाघ के "गुरजने" (गर्जन), कभी किसी क...
वो “सल्डी सुंगनाथ” और देवीदत्त मासीवाल का फ़ोटो स्टूडियो

वो “सल्डी सुंगनाथ” और देवीदत्त मासीवाल का फ़ोटो स्टूडियो

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—52प्रकाश उप्रेतीतब कैमरे का फ्लैश चमकना भी चमत्कार लगता था. कैमरा देख लेना ही चाक्षुष तृप्ति का चरम था. देखने के लिए हम सभी बच्चों की भीड़ इकट्ठा हो जाया करती थी और कैमरे को लेकर हम becauseअपना गूढ़ ज्ञान आपस में साझा करते थे. हम सबकी बातों में यह बात कॉमन होती कि- "हां यार कैमरा गोर कदयूं" (कैमरा गोरा कर देता है). इसके बाद जिसमें फेंकने का जितना सामर्थ्य होता वह उतनी बातें बनाता था. जबकि कैमरा हम सब ने दूर से ही देखा होता था.कैमरा गाँव में तब फ़ोटो खिंचाने के कुछ ही मौके होते थे. so उनमें से एक गाँव की 'दीदियों' (बहनों) द्वारा शादी के लिए फोटो खिंचवाने का होता था. एकदम चटक रंग के सूट में फ़ोटो खिंचवाया जाता था जिसमें अक्सर पीछे का बैकग्राउंड हरा, नीला और आसमानी होता था. फ़ोटो एकदम सावधान की मुद्रा में खिंचवाया जाता था. उसमें कोई भाव या पोज़ नहीं...
जागरी, बूबू और मैं (घात-मघता, बोली-टोली) भाग-2

जागरी, बूबू और मैं (घात-मघता, बोली-टोली) भाग-2

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—50प्रकाश उप्रेतीहुडुक बुबू ने नीचे ही टांग रखा था लेकिन किसी ने उसे उठा कर ऊपर रख दिया था. बुबू ने हुडुक झोले से निकाला और हल्के से उसमें हाथ फेरा, वह ठीक था. उसके बाद वापस झोले में रख दिया. so हुडुक रखने के लिए एक काला सा थैला था. उसी में but रखा रहता था. बुबू के हुडुक पर कोई हाथ लगा दे यह उनको मंजूर नहीं था. तब ऐसे किस्से भी बहुत प्रचलित थे कि मंत्रों से कोई हुडुक या जगरी की आवाज़ बंद कर देता है. वो कहते थे कि "आवाज मुनि गे".जागरी जागरी अंदर लगनी थी. देवताओं के आसन लग चुके थे. बुबू और मेरे लिए आसन लगा हुआ था. एक आदमी सबको पिठ्या लगा रहा था. मुझे भी उन्होंने पिठ्या लगाया और 10 रुपए दक्षिणा दी. मैंने उन्हें सीधे अपने झोले में रखे तौलिए के किनारे में बांध दिया. अब एक तरफ देवताओं के आसन लगे हुए थे और ठीक उनके सामने मैं, बुबू और दो 'ह्वो' becau...
जागर, बूबू और मैं

जागर, बूबू और मैं

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—49प्रकाश उप्रेतीआस्था, विश्वास का केंद्र बिंदु है. पहाड़ के लोगों की आस्था कई तरह के विश्वासों पर टिकी रहती है. ये विश्वास जीवन में नमक की तरह घुले होते हैं. ऐसा ही "जागर" को लेकर भी है. because "जागर" आस्था के साथ-साथ सांस्कृतिक धरोहर भी है. 'हुडुक' सिर्फ देवता अवतार करने का वाद्ययंत्र नहीं है बल्कि पहाड़ की सांस्कृतिक पहचान का अटूट अंग है. आज इसी 'जागेरी', 'हुडुक' के साथ मैं, और 'बुबू' (दादा).जागरी बुबू जागरी लगाते थे और मैं उनके सानिध्य में सीख रहा था. ईजा को मेरा जागरी लगाना पसंद नहीं था. तब 'जगरी' (जागेरी लगाने वाला) को लेकर समाज में एक सम्मान का भाव तो था लेकिन दूसरों की हाय, पाप, और गाली खाने की गुंजाइश भी हमेशा रहती थी. ईजा को लगता था कि बेटे का भविष्य 'जगरी' बन जाने से तबाह हो जाएगा. but उनको मेरा शहर में पढ़ना या बर्तन धोना मंजूर था ...
‘सरूली’ जो अब नहीं रही

‘सरूली’ जो अब नहीं रही

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—48प्रकाश उप्रेतीअविष्कार, आवश्यकता की उपज है. इस उपज का इस्तेमाल मनुष्य पर निर्भर करता है. पहाड़ के लोगों की निर्भरता उनके संसाधनों पर है. आज अविष्कार और आवश्यकता की उपज “थेऊ” because और “सरूली” की बात. 'थेऊ' पहाड़ के जीवन का अनिवार्य हिस्सा है. खासकर गाय-भैंस पालने वाले लोगों के लिए तो इसका जीवनदायिनी महत्व है. ईजा के 'छन' का तो यह, महत्वपूर्ण सदस्य था. ज्योतिष 'थेऊ' मतलब लकड़ी का एक ऐसा because प्याऊ जिसके जरिए नवजात बछड़े और 'थोरी' (भैंस की बच्ची) को दूध व तेल पिलाया जाता था. बांस की लकड़ी का बना यह प्याऊ अपनी लंबाई और गहराई में छोटा-बड़ा होता था. अंदर से खोखला और आगे से तराश कर पतला व  थोड़ा समतल बनाया जाता था ताकि तेल- दूध गिरे भी न और थोरी के मुँह में भी आ जाए. ज्योतिषईजा का 'गुठयार' (गाय-भैंस बांधने वाली जगह) भैंस के बिना कभी नहीं रहा. ईज...