Tag: त्यूमर कुड़ी

ओ हरिये ईजा..कुड़ी मथपन आग ए गो रे

ओ हरिये ईजा..कुड़ी मथपन आग ए गो रे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—38 प्रकाश उप्रेती 'ओ...हरिये ईजा ..ओ.. हरिये ईज... त्यूमर कुड़ी मथपन आग ए गो रे' (हरीश की माँ... तुम्हारे घर के ऊपर तक आग पहुँच गई है). आज बात उसी- "जंगलों में लगने वाली आग" की. because मई-जून का महीना था. पत्ते सूख के झड़ चुके थे. पेड़ कहीं से भी खूबसूरत नहीं लग रहे थे. चीड़ के पेड़ों से 'पिरूहु' (चीड़ की घास) झड़ कर रास्तों और जंगलों में फैल गया था. रास्तों में इतनी फिसलन कि चलना मुश्किल हो रहा था. हर जगह पिरूहु ही पिरूहु था. ज्योतिष ईजा जब भी घास काटने जाती 'दाथुल' (दरांती) या लाठी से पिरुहु को रास्ते से हटातीं चलती थीं. यह उनका रोज का काम था. ईजा के साथ सूखी लकड़ी लेने हम भी जाते थे तो ईजा कहती थीं- because "भलि अये हां, इनुपन पिरूहु है रो रडले" (ठीक से आना, इधर चीड़ की घास बिखरी पड़ी है, फिसलना मत). हम संभल-संभल कर चलते थे. कई बार तो 'घस-घस' फिसल भी ...