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अज्ञेय : वैचारिक स्वातंत्र्य और प्रयोगशीलता के पुरस्कर्ता

अज्ञेय : वैचारिक स्वातंत्र्य और प्रयोगशीलता के पुरस्कर्ता

साहित्‍य-संस्कृति
अज्ञेय के जन्म-दिवस (7 March) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जिन मेधाओं ने भारतीय विचार जगत को समृद्ध करते हुए यहाँ के मानस के निर्माण में महत्वपूर्ण निभाई उनमें कवि, लेखक और पत्रकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987) की उपस्थिति विशिष्ट है। विलक्षण और कई दृष्टियों से सम्पन्न, स्वतंत्र विचार और स्वायत्त जीवन के लिए कटिबद्ध अज्ञेय एक विरल व्यक्तित्व थे जिंहोने खुद अपना आविष्कार किया था। उन्होंने सोच कर, लिख कर और जी कर आत्म-चेतस व्यक्तित्व का परिचय दिया था। अपने रचना कर्म से उन्होंने यह स्थापित किया कि आधुनिक होना सिर्फ़ अपने को नकार कर या जो है उससे भिन्न कुछ और हो कर ही नहीं सम्भव है बल्कि अपनी जड़ों से जुड़ कर भी होता है। भारतीय आधुनिकता कुछ ऐसे ही आत्म-परिष्कार से जुड़ी होती है। वैसे भी परम्परा जड़ नहीं होती। उसमें प्रवाह भी होता है और उसक...
रंगमंच के विकास व समृद्धि में सत्येन्द्र शरत का अविस्मरणीय योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता 

रंगमंच के विकास व समृद्धि में सत्येन्द्र शरत का अविस्मरणीय योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता 

कला-रंगमंच
- स्मरण - महावीर रवांल्टा  27 मार्च 1987 को राजकीय पोलीटेक्निक उतरकाशी के वार्षिकोत्सव में मेरे निर्देशन में डा भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखित 'दो कलाकार' तथा सत्येन्द्र शरत द्वारा लिखित because 'समानान्तर रेखाएं' नाटक मंचित हुए थे. निर्देशन के साथ ही इनमें मैंने अभिनय भी किया था.' समानान्तर रेखाएं' में मैंने नरेश की भूमिका अभिनीत की थी.ये नाटक मैंने किसी पाठ्यक्रम के लिए प्रकाशित नाटक संग्रह से चुने थे.इनकी प्रस्तुति ने दर्शकों को प्रभावित किया था. बातचीत बुलन्दशहर में नौकरी के दौरान मुझे प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की साहित्यिक पत्रिका 'आजकल' के माध्यम से जानकारी मिली थी कि सत्येन्द्र शरत दिल्ली में रहते हैं. because पत्रिका में उनके आलेख के साथ दिए पते पर मैंने उन्हें पत्र लिखा था लेकिन बहुत दिनों तक कोई उतर नहीं मिला. इसके बाद मैंने फिर पत्र लिखे. आखिर उनका पत्र आ ही गया जिसके म...
साहित्य के निकष ‘अज्ञेय’

साहित्य के निकष ‘अज्ञेय’

स्मृति-शेष
अज्ञेय के जन्म दिवस पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र रवि बाबू ने 1905 में एकला चलो की गुहार लगाई थी कि मन में विश्वास हो तो कोई साथ आए न आए चल पड़ो चाहे , खुद को ही समिधा क्यों न बनाना पड़े - जोदि तोर दक केउ शुने ना एसे तबे एकला चलो रे । हिंदी के कवि , उपन्यासकार , सम्पादक , प्राध्यापक , अनुवादक , सांस्कृतिक यात्री , और क्रांतिकारी सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन के लिए जिस ‘ अज्ञेय ‘ उपनाम को बिना पूर्वापर सोचे जैनेंद्र जी द्वारा अचानक चला दिया गया वह इनके पहचान का स्थायी अंग बन गया या बना दिया गया । प्रेमचंद जी द्वारा ‘ जागरण ‘ में प्रकाशित कहानी के लेखक के रूप में अज्ञेय नाम दिए जाने के बाद उसे हिंदी के अनेक साहित्यकारों द्वारा उसे एक विभाजक और एक क़िस्म के अनबूझ आवरण रूप में ग्रहण कर लिया गया और प्रचारित भी किया गया । यह अलग बात है कि उस आकस्मिक नामकरण ने वात्स्यायन जी के लिए जीवन ...