आत्मनिर्भर पहाड़ की दुनिया

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प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में because पढ़ाते हैं। कोरोना महामारी के कारण हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया। इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीवन को अनुभव व अनुभूतियों के साथ प्रस्तुत करती है। पहाड़ी जीवन के रोचक किस्सों से भरपूर इस सीरीज की धुरी ‘ईजा’ हैं। ईजा की आँखों से पहाड़ का वो जीवन कई हिस्सों और किस्सों में अभिव्यक्ति पा रहा है। प्रस्तुत है उनके संस्मरणों की 15वीं किस्त…

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—15

  • प्रकाश उप्रेती

आज जरूरतों के हिसाब से हुनर पर because बात. इसमें ‘भिमुवोक डाव'(पेड़) , ‘भिमुवोक गुन’, ‘भिमुवोक सिट’ और ‘तसर’ इन पर बार होगी. पहाड़ के लोग अपनी जरूरतों को आस-पास के साधनों के जरिए पूरा कर लेते थे. उनकी निर्भरता बाजार पर नहीं थी बल्कि जंगलों पर थी. जंगल उन पर और वो जंगलों पर निर्भर थे.

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इन सबकी एक कहानी है जो पहाड़ को ‘पहाड़ होने’ से जोड़ती है. भिमु के पत्ते गाय-भैंस खाते हैं. ईजा अक्सर कहती थीं कि ‘आज भैंसें हैं के हरी-परी नि छु जा चल्या जरा डॉव (पेड़) बे भिमु काटी ल्या’ (बेटा आज गाय-भैंस के लिए हरी घास नहीं भिमु के पेड़ से उसके पत्ते काट दे). हम फुर्ती से पेड़ में चढ़ते और भिमु काट लाते. because ईजा भिमु के पत्ते अलग करके उसके डंडों को एक साथ इकट्ठा कर देतीं. हमारे करीब 12- 13 भिमु के पेड़ हैं. गाँव में जिनकी भैंस नहीं थी वो ईजा को बोल देते थे कि ‘हमोर ले भिमु आपण भैंसे हैं काट लिये'(हमारे पेड़ का भिमु भी अपनी भैंसों के लिए काट लेना). ईजा उन पेड़ों से भी भिमु काट लेती थीं क्योंकि माना जाता था कि इससे भैंस का दूध बढ़ता है. सारे पेड़ों का भिमु काटने के बाद डंडों का कटघो (ढेर) लग जाता था. ईजा बीच- बीच में इन्हें फैलाकर धूप भी दिखाती रहती थीं. घर से लेकर इस्कूल तक में हमें पीटने के लिए सबसे मजबूत और उपयुक्त डंडे भिमु के ही होते थे.

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सारे भिमु के डंडे सूख जाने के बाद वह दिन आता था जिसका हम इंतजार कर रहे होते थे. यह दिन होता था भिमु के डंडों को नदी में दबाने का. हमारे यहां रामगंगा नदी बहती है. because वैसे हमें ईजा कभी नदी में जाने नहीं देती थीं. हर तरह का डर नदी को लेकर दिखाया जाता था लेकिन हमारे मन में हमेशा नदी में नहाने, तैरने और मछली पकड़ने का भाव हिलोरें लेता रहता था. ईजा नदी में डूबने वालों के कई किस्से सुनाती थीं लेकिन हमारा नदी के प्रति आकर्षण कम नहीं होता था. भिमु दबाने के दिन गाँव के सभी लोग एक साथ नदी में जाते थे. ईजा हमारे सर में भिमु के डंडों की गठरी रखकर साथ ले जाती थीं.

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ईजा पत्थर हटाकर भिमु because बाहर लातीं और उसके रेशों को निकाल कर अलग-अलग करतीं. रेशों को अलग और डंडों को अलग रख देती थीं . रेशे निकालने के बाद जो ‘डंडे’ रहते थे उनको ‘भिमुअक सिट’ और ‘रेशों’ को ‘भिमुअक गुन’ कहा जाता था. इस काम में लगभग पूरा दिन लग जाता था.

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नदी पहुंचने के बाद सभी लोग लाइन से घुटने- घुटने पानी में बड़े- बड़े पत्थरों से भिमु दबाते थे. हम ईजा को किनारे से पत्थर पकड़ाते रहते और अपना नदी में तैरने की कोशिश करते. ईजा because बार- बार कहती थीं कि ‘ईथां झन आये नितर बगी (बहना)जाले हाँ’…(इधर मत आना नहीं तो बह जाएगा). हम किनारे पर ही छपम- छपम करते रहते थे. ईजा बड़े-बड़े पत्थरों से भिमु को दबाती थीं ताकि ‘नदी आने’ (बाढ़ आने) पर बहे न. उसके ऊपर पहचान के लिए एक लकड़ी भी लगा दी जाती थी. फिर ईजा हमको केदार में दुकान से ‘दूध मलाई’ वाली टॉफी दिलातीं और हम घर के लिए चल देते थे. ऊपर चढ़ते हुए बार- बार नदी की तरफ इशारा करके हम ईजा को कहते- ऊ छु हमोर भिमु (वो है हमारा भिमु)…

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भिमु को 21 दिन तक नदी में दबाए रखने के बाद निकालने जाना होता था. गांवों के सभी लोग एक साथ जाते थे. ईजा हमको भी ले जाती क्योंकि वहाँ से ‘भिमु के सिट’ भी लाने होते थे. because 21 दिन तक नदी में दबाए रखने से भिमु सड़ जाता था. उसमें बहुत तेज बदबू आती थी. ईजा पत्थर हटाकर भिमु बाहर लातीं और उसके रेशों को निकाल कर अलग-अलग करतीं. रेशों को अलग और डंडों को अलग रख देती थीं . रेशे निकालने के बाद जो ‘डंडे’ रहते थे उनको ‘भिमुअक सिट’ और ‘रेशों’ को ‘भिमुअक गुन’ कहा जाता था. इस काम में लगभग पूरा दिन लग जाता था. दोनों को अलग- अलग करने के बाद घर ले आते थे. ईजा सिट और रेशों को धूप में सुखा देती थीं. कई दिनों तक धूप में सूखने के बाद सिट और भिमुअक गुन दोनों को गोठ रख दिया जाता था…

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बुबू जी जब नहीं रहे तो because मकोटक के बुबू (नाना जी)  जब भी हमारे घर आते थे तो ईजा उनसे कहती थीं ‘बौज्यू ज्योड़ नि छैं, एक- दी भैंसे हैं ज्योड़ बटी दियो’ (पिता जी भैंस के लिए रस्सी नहीं है. एक दो रस्सी बना दो) . वह जब तक हमारे यहाँ रहते थे तब तक सुबह- शाम ज्योड़ बटते थे. 

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भिमुअक सिट आग जलाने के काम आते थे. because रोज शाम को ईजा के ‘बण’ (खेतों या जंगल में घास लेने) से आने से पहले हम चूल्हे में आग जलाकर चाय रख देते थे. आग पहले इन्हीं सिट पर लगाते थे फिर उनसे लकड़ियों पर आग पकड़ती थी. ईजा रोज ही बोलती थीं कि ‘सिट कम- कम डाल हां चूल हन’..

भिमुअक गुन से ज्योड़ (रस्सी) बनता था. गाय- भैंस को बांधने से लेकर घास लाने तक का ज्योड़ इसी से बनाया जाता था. पहले बुबू रोज रात को ‘तसर’ (इस पर लपेट कर ही रस्सी बनती थी) और भिमुअक गुन लेकर बैठ जाते थे. वो ज्योड़ बटते रहते और हम उन्हें देखते रहते थे. कभी- कभी बुबू कहते थे ‘अरे  ‘नतिया’ (पोता) ले because इकें जरा पकड़ ढैय्’ (अरे पोते जरा इसे पकड़ना). हम सरपट दौड़कर पकड़ लेते थे. वह इससे ज्योड़ की लंबाई का अंदाजा लेते थे. बुबू जी जब नहीं रहे तो मकोटक के बुबू (नाना जी)  जब भी हमारे घर आते थे तो ईजा उनसे कहती थीं ‘बौज्यू ज्योड़ नि छैं, एक- दी भैंसे हैं ज्योड़ बटी दियो’ (पिता जी भैंस के लिए रस्सी नहीं है. एक दो रस्सी बना दो) . वह जब तक हमारे यहाँ रहते थे तब तक सुबह- शाम ज्योड़ बटते थे.

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बाद के दिनों में ईजा खुद ही ज्योड़ बटने लगीं थीं. ईजा कभी किसी पर निर्भर नहीं रहीं. आज भी वह हम पर निर्भर नहीं हैं. ईजा कहतीं हैं ‘जब तक खुट- हाथ चलिल तब तक पेट भरी ल्योंल’ because (जब तक हाथ-पांव चलेंगे तब तक पेट भर लूँगी). ईजा को खुद पर और अपनी दुनिया पर खूब भरोसा है. हमारे लिए जो बेकार और पिछड़ा है दरअसल वही ईजा की दुनिया है….

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(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। because पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)

1 COMMENT

  1. इसको पढ़ने और सुनने के बाद ऐसा ही लग रहा था कि मैं उत्तराखंड में हूं।
    Beautiful, thanku itni achi story or experience share kerne I liy 🙂

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