काशी विश्वनाथ परिसर लोकार्पण: जीवंत संस्कृति नगरी काशी

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काशी विश्वनाथ परिसर के लोकार्पण (13 दिसंबर) पर विशेष

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

अर्ध चंद्राकार उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर बसी काशी या ‘बनारस’ को सारी दुनिया से न्यारी नगरी कहा गया है. काल के साथ अठखेलियाँ करता यह नगर धर्म, शिक्षा, संगीत, साहित्य, कृषि, because और उद्योग-धंधे यानी संस्कृति और सभ्यता  के हर  पक्ष में अपनी पहचान रखता है. काशी का शाब्दिक अर्थ प्रकाशित करने वाला होता है वस्तुत: घटित होता है. शास्त्र और लोक, परम्परा और आधुनिकता दोनों ही पक्षों को साथ-साथ अभिव्यक्त करते हुए यहाँ नए और पुराने, अमीर और गरीब, प्राच्य विद्या और आधुनिक विज्ञान-प्रौद्योगिकी, युवा और वृद्ध, हवेली और अट्टालिका, प्राचीन मंदिर और नए ‘माल’, तथा संकरी गलियाँ और प्रशस्त राज-पथ दोनों जीवन-धाराओं की अभिव्यक्ति मूर्तिमान है.

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काशी विश्वनाथ, गंगा माता, संकट मोचन, दुर्गा जी, काल भैरव, और अन्नपूर्णा समेत जाने कितने देवी-देवताओं की उपस्थिति आस्था और विश्वास के माध्यम से लोक और लोकोत्तर के because विलक्षण ताने-बाने को बुनते हुए इस नगर को सबसे न्यारा बना देता है. काशी को हरिहर धाम भी कहते हैं और आनंद कानन भी. यह मुक्ति-धाम भी है और विमुक्त क्षेत्र. यह परमेश्वर की अनन्य भक्ति का धाम है जो क्षुद्रता से उबार कर विशालता का अंग बना देती है.

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 ‘बनारसी’ एक ख़ास तरह की जीवन-दृष्टि और स्वभाव को इंगित करने वाला ‘विशेषण’ भी बन चुका है जो भारत की बहुलता और जटिलता को रूपायित करता है. यहाँ बहुलता के बीच प्रवहमान एकता की अंतर्धारा भी जीवंत रूप उपस्थित होती है और यह व्यक्त करती है कि यहाँ किस तरह अनेक किस्म के विरुद्धों का because सामंजस्य सहज रूप में उपस्थित होता है. पूरे भारत के लोग स्नेह के साथ इसकी प्रीति की डोर में बंध कर खिंचे चले आते हैं. इस नगर में नेपाली, बंगाली, दक्षिण भारतीय (मद्रासी!), गुजराती, तथा मराठी आदि अनेक समुदायों के लोग बसे हुए हैं. भारत ही क्यों पूरे विश्व में ज्ञान और मोक्ष की नगरी ‘काशी’ को लेकर उत्सुकता दिखती है. आज भी अक्सर जब भी कोई विदेशी भारत पहुंचता है तो काशी का स्पर्श किए बिना उसे अपनी यात्रा आधी-अधूरी लगती है. काशी का दुर्निवार आकर्षण किसी जादू से कम नहीं है

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पूरा बनारस एक जीवंत प्राणी सा है और यहाँ के लोग और विभिन्न स्थल उस प्राणी के ही अवयव से हैं. काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की महिमा पूरे भारत में व्याप्त है. उनके दर्शन की लालसा because सबके मन में होती है और हर कोने से शिव के आराधक पहुंचाते रहते हैं. अब उसके भव्य परिसर के निर्माण के साथ इस पुण्य स्थल की गरिमा भी बढ़ेगी और सांस्कृतिक एकता के सूत्र को बल मिलेगा. अर्ध चंद्राकार गंगा के किनारे-किनारे बने अस्सी, दशाश्वमेध, मणिकर्णिका, हरिश्चंद्र, तथा तुलसी आदि घाट देवताओं, राजाओं, संत महात्माओं का स्मरण दिलाते हैं और जीवन मरण के साक्षी बने हैं. उनकी शोभा अनूठी है.

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शहर में विभिन्न क्षेत्रों में आपको कुंड, बाग़, महाल, खंड, गली, टोला, डीह, चौरा, गंज, बीर, नगर, कोठी, पुर, सट्टी, सड़क आदि नाम के स्थान मिलेंगे और सबका अलग-अलग इतिहास और व्यक्तित्व है. लहुराबीर, भोजूबीर, जोगिआबीर, लौटू बीर, गोदौलिया, ज्ञान-वापी, संकट मोचन, लंका, मैदागिन, चेत गंज, नाटी इमली, because चौखम्भा, नेपाली खपड़ा, सिगरा, और मछोदरी आदि समाज के नायकों, देव स्थानों, घटनाओं, और उत्सव-पर्व के सांस्कृतिक आयोजनों से जुड़े हैं. काशी प्रात: काल और संध्या दोनों ही रमणीय होते हैं. मेले, राम-लीला, नव रात्रि, स्नान(नहान!), दशहरा, रथ-यात्रा, गंगा-दशहरा आदि अनेक उत्सव साल भर होते ही रहते हैं. काशी एक जगा हुआ शहर है जिसमें गहमा गहमी भी है और शान्ति भी.

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जीवन की आपा-धापी और सारी उमड़-घुमड़ के बाद एक स्निग्ध विश्रान्ति यहाँ की पहचान है. बनारसीपन में एक स्वस्थ्य अक्खडपन है जो एक ख़ास तरह की उन्मुक्तता और सहजता में विश्वास करता because है. काशी का सनातन धर्म से गहन रिश्ता है जो अनंत जीवन-सत्य को अंगीकार करता है और किसी मत में विश्वास से अधिक जिए जाने की शैली में प्रतिबिम्बित होता है.

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भारत की अपनी बौद्धिक परम्परा की व्यापकता सृष्टि में निरंतरता और विभिन्न तत्वों के बीच अनुपूरकता को व्यक्त करती है. इसका स्वरूप काशी में आज भी परिलक्षित होता है. इसकी प्रसिद्धि मनीषियों, रसिकों, रईसों, महंथों, राजनेताओं, कलावन्तों, के लिए है जिनकी बड़ी लम्बी सूची है. पर यहाँ चोर-उचक्के, ठग, औघड़, निहंग because भी मिलते है. अपने वाराणसीपुरपति विश्वनाथ भी विलक्षण हैं, द्वंद्व ही द्वन्द उनमें दिखते हैं. वे निहंग हैं पर ईश्वर भी हैं, तपस्वी हैं पर कलावंत नटराज भी हैं, चन्दन भी लगता है पर चिता-भस्म भी प्रिय है, भांग-धतूरे के साथ पंचामृत का भी स्वाद भी प्रिय है. यह जरूर है कि घर गृहस्थी का भार संभालने को अन्नपूर्णा की सहायता सतत उपलब्ध रहती है. कहते हैं कि काशी अद्वैत सिद्धि का शहर है. काशी का शाब्दिक अर्थ है शुद्ध चैतन्य का प्रकाश.

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पुराणों और जातकों में काशी का विस्तृत और सुन्दर वर्णन किया गया है. काशी जनपद की राजधानी वाराणसी थी. काशी का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में भी मिलता है. जातकों में ब्रह्म दत्त because राजा का अनेकश: उल्लेख है. धार्मिक उथल-पुथल के बीच महात्मा बुद्ध का भी आगमन हुआ था. महावीर काशी में ही जन्मे थे. यहीं सारनाथ में बुद्ध ने ‘धम्म चक्क’ का प्रवर्तन भी किया था. बौद्ध साहित्य में काशी की समृद्धि का विस्तृत वर्णन है. गुप्त काल में यहाँ बड़ी उन्नति हुई. शिव लिंग  की पूजा अर्चना की पुष्टि होती है. कई सदियों से काशी में पुण्यतोया गंगा और बाबा विश्वनाथ ने धर्म परायण भारतीय जन मानस को आकृष्ट किया है. यहाँ के विश्वेश्वर विश्वनाथ बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक. मान्यता है यहाँ भगवान शिव शक्ति की देवी मां भगवती के साथ बिराजते हैं.

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इतिहास में झांकने पर पता चलता है मुहम्मद गोरी, हुसेन शाह शर्की, तथा सिकंदर लोधी आदि ने काशी को बार-बार आक्रान्त और ध्वस्त किया. काशी विश्वनाथ के मंदिर को राजा मान सिंह और टोडरमल ने 1585 में बनवाया. औरंगजेब ने 1669 में क्षतिग्रस्त कर मस्जिद बनवाई. मल्हार राव होलकर की पुत्रवधू अहिल्या बाई ने पुन: 1780 में because मंदिर का निर्माण किया. महाराजा रणजीत सिंह ने 1859 मंदिर के लिए एक टन सोना दिया. चौदहवीं से अट्ठारहवीं सदी के बीच काशी का व्यावसायिक और धार्मिक केंद्र के रूप में खूब विकास हुआ. यहाँ अनेकानेक संत महात्मा हुए जिनमें रामानंद, कबीर, रैदास, तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वती, तैलंग स्वामी, स्वामी विशुद्धानंद, स्वामी करपात्री जी, बाबा कीना राम आदि प्रमुख हैं. यह क्रम आगे भी चलता रहा.

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संस्कृत ज्ञान की परम्परा में पं. शिव कुमार शास्त्री, पं. हरि नारायण तिवारी, चन्द्रदर शर्मा गुलेरी, गोपी नाथ कविराज और हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र, जय शंकर प्रसाद, प्रेम चन्द, श्याम सुन्दर दास, लाला भगवान दीन, पं. राम चन्द्र शुक्ल, आचार्य नारेर्द्र देव, श्रीप्रकाश, सम्प्पुर्नानंद, राय कृष्ण दास प्रभृति ने काशी की चिंतन परम्परा की नीव डाली. because महामना पं. मदन मोहन मालवीय ने, जो स्वयं एक महान देश भक्त, धर्मज्ञ और भारतीयता के अप्रतिम व्याख्याता थे, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कर विश्वस्तरीय ज्ञान केंद्र स्थापित कर कीर्तिमान स्थापित किया.

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काशी नगरी का बड़ा विस्तार हुआ है और नए नए उपक्रम शुरू हुए हैं परन्तु काशी का माहात्म्य गंगा और भगवान शिव से है. कभी आस्था थी कि ‘गंगाजू को नाम कामतरु तें सरस है.  आज उसी गंगा को ले कर सभी चिंतित हैं. युगों-युगों से  काशी और वहां गंगा पर उपस्थिति दोनों मिल कर भारत के because गौरव की श्री वृद्धि करते आये हैं. गंगा भारतीय संस्कृति की जीवित स्मृति है जो युगों-युगों से भौतिक जीवन को संभालने के साथ आध्यात्मिक जीवन को भी  रससिक्त करती आ रही है. गंगा नाम लेना और उनका दर्शन मन को पवित्र करता है. गंगा जल लोग आदर से घर ले जाते हैं और प्रेम पूर्वक सहेज कर रखते हैं.

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गंगा भारत की सनातन संस्कृति का अविरल प्रवाह है और साक्षी है उसकी जीवन्तता का. गंगा प्रतीक है शुभ्रता का, पवित्रता का , ऊष्मा का स्वास्थ्य और कल्याण का. गंगा ने राजनैतिक इतिहास के उतार चढ़ाव भी देखे हैं. इसके तट पर तपस्वी ,साधु संत बसते रहे हैं और आध्यात्म की साधना भी होती आ रही है. because गंगा के निकट साल भर उत्सव की झड़ी लगी रहती है. माता गंगा दुःख और पीड़ा में सांत्वना देने का काम करती है.जीवन और मरण दोनों से जुड़ी है. पतित पावनी गंगा मृत्यु लोक में जीवन दायिनी है. कभी कवि  पद्माकर ने कहा था: छेम की लहर , गंगा रावरी लहर ; कलिकाल को कहर,  जम जाल को जहर है. अब स्थिति ऎसी पल्टा खा रही है कि गंगा का स्वयं का क्षेम की खतरे में है.

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काशी प्रधानमंत्री जी का क्षेत्र है और काशी में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का सघन यत्न जरूरी है. गंगाविहीन देश भारत देश कहलाने का अधिकार खो बैठेगा. because  पुण्यतोया गंगा के महत्त्व को पहचान कर ‘नमामि गंगे’ परियोजना भी कई हजार करोड़ की लागत से शुरू हुई. इन सब के बावजूद वाराणसी शहर के पास हर तरह के प्रदूषण की वृद्धि ने गंगा को बड़ी क्षति पहुंचाई है. गंगा के प्रवाह को प्रदूषण मुक्त कर स्वच्छ बनाना राष्ट्रीय कर्तव्य है. गंगा-प्रदूषण  के नियंत्रण के  लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाना चाहिए.

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(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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