सन् 1848 : सिक्किम की अज्ञात घाटी में

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– जोसेफ डाल्‍टन हूकर
कम्‍बचैन या नांगो के विपरीत दिशा को जाने वाली घाटी की ओर उसी नाम से पर्वत के दक्षिणी द्वार के ऊपर एक हिमोढ़ (Moraine) से कुछ मील नीचे एक चीड़ के जंगल में हमने रात बिताई. यह रिज यांगमा नदी को कम्‍बचैन से अलग करती है. यांगमा आगे लिलिप स्‍थान के समाने तम्‍बूर नदी में गिरती है.
यांगमा नदी लगभग 15 फीट चौड़ी है और रास्‍ता नदी के उस पार दक्षिण की खड़ी चढ़ाई से होता हुआ हिमन द्वारा लाए गए मलवे पर पहुंचता है. यहां पर घने बुरांश, चमखड़ीक (पहाड़ी ऐस), पुतली (मेपल) के पेड़ और जूनीपर की झाड़ियां आदि चारों ओर फैली हैं. जमीन पर भोजपत्र की रजत छाल व बुरांश के फूलों की मुलायम पंखुड़ियां, जो टिश्‍यू पेपर सी पाण्‍डु रंग की हैं, बिछी हुई हैं. मैंने इस प्रकार की बुरांश प्रजाति पहले कभी नहीं देखी है. इसके हरे चटकीले पत्‍ते, जो 16 इंट लंबे हैं, के सौंदर्य को देखकर मैं चकित रह गया.
पेड़ों भरे क्षेत्र व पहाड़ी झाड़ियों से आगे बुरांश के वृक्ष उस उपत्‍यका में छाए हुए थे, जहां जंगली गुलाब (पोटेन्टिला), हनीसकल (Honeysuckle), पॉलीगोनम (Polygonum) और बौने जूनीपर आदि चारों ओर फैले थे. नांगो की चोटी उपत्‍यका के ऊपर झुकी सी लगती थी, जिसके पृष्‍ठ भाग से गाली चट्टानों के दरों के बीच से नीला ग्‍लेशियर दिखता था. यह हिमोढ़ के बाहर की ओर दोनों तरफ कीचड़ से घिरा था.
यहां से हमने दक्षिण पूर्व की राह ली ताकि चोटी के बाजू से लाया जा सके. हमें अक्‍टूबर के हिमपात में पिछले बर्फ की कीचड़ भरी राह से होकर जाना था. कभी-कभी रासता हमारे दांई ओर की काली चट्टानों के पास से गुजरता था जिसके नीचे काफी बर्फ जमा थी. अत: हम चट्टानों के उभरे भाग को ठंड से सुन्‍न अंगुलियों से पकड़कर घिसटते चले जा रहे थे.
हम 15,000 फीट की ऊंचाई से कुछ नीचे बर्फ के एक चौरस मौदान पर, जहां हमेशा बर्फ पड़ी रहती है, पहुंचे. जैसा कि मैंने अक्‍सर देखा है कि इस मौसम में बर्फ की पर्त पतली और मधुमक्‍खी के छत्‍तेनुमा होती है, वैसी ही यहां पर भी थी और इसके बीच में पड़े दरार 6 इंट गहरे थे. यहां पर हमारे चारों ओर घना कोहरा छा गया, जिसके कारण आगे चलने में कठिनाई आने लगी और ऊपर चढ़ना अधिक थकानप्रद हो गया. मुझे उम्‍मीद थी कि ऊपर से अच्‍छा दृश्‍य देखने को मिलेगा पर बढ़ते सिरदर्द, कमजोरी, सांस लेने में कठिनाई, घने कोहरे की बौछार, तेज वायु, लड़खड़ाते फिसलते पैर, बर्फ की ठंडक से भीगे पैर, हाथ, आंख की बरौनियां आदि के कारण मुझे अपनी मन:स्थित पर काबू पाने में असमर्थता जान पड़ती थी.
डेढ़ घंटे के कठिन श्रम के बाद मैं दो चट्टानी टीलों तथा बर्फ को पार करता हुआ चोटी पर जा पहुंचा. कुछ दूर नीचे रिज के पूर्व दिशा की ओर बर्फ नहीं थी. बहुत हद तक इसका कारण रिज का धूप की दिशा की ओर होना है या कम्‍बचैन के दक्षिण पूर्व से आती गर्म हवा के कारण हो सकता है. वास्‍तव में पश्चिम की ओर बर्फ की परतें हवा के झोंकों द्वारा एकीकृत हैं. कोहरा छंट गया और एक अधूरा सीमित सा दृश्‍य देखने को मिला. उत्‍तर की ओर नांगो की नीली चोटी मुझसे 2000 फीट की ऊंचाई पर थी, जिसके ऊपर पड़ी बर्फ की चादर नीचे की ओर फिसल हिमनद की सीमा की ओर बढ़ रही थी. यहां से यांगमा घाटी नहीं दिखती थी लेकिन कम्‍बचैन गौर्ज के पूर्व दिशा की ओर 5000 फीट नीचे जूनू और चूनजेर्मा का क्षेत्र इसके समानान्‍तर लेकिन अधिक ऊंचा और वास्‍तव में भव्‍य था. मुझे इसे दो दिन के अंदर पा करना था. इसको देखकर मेरे गाइड का विचार था कि यह संभव नहीं है. मेरे और सिक्किम के बीच तीसरी व चौथी पर्वत श्रृंखला, जो नजर नहीं आ रही थी, यंगमा और कम्‍बचैन की गहरी घाटी की तरह अलग से थी.
मैं अपने उपकरणों को लेकर उत्‍तर की ओर कुछ नग्‍न चट्टानों पर चढ़ा. यहां ध्‍वनि की गति आश्‍चर्यजन थी. 300 या 400 गज की दूरी पर भी मैं अपने आदमी से बिना जोर से चिल्‍लाए ही हथौड़ा मांग सकता था. बहुत से पौधे दूर्बा की तरह जमीन और चट्टान पर लिपटे थे. इनकी जड़ें सुगंधयुक्‍त थीं और चट्टानों के भीतर घुसी थीं. 4 बजे शाम के समय काफी ठंड थी. 15,770 फीट की ऊंचाई पर तापमान 23 डिग्री सेल्सियस था.
नीचे उतरने पर एक चौड़ी घाटी मिली, जहां विशाल चट्टानें खड़ी थीं, जिनके शिखरों पर बर्फ पड़ी थी. उन चट्टानों की तलहटी में 700 फीट ऊंची मलबे की सीधी खड़ी दीवार थी. यहां पर ठंड के कारण चट्टान के अनेक भाग टूट कर ऊपर से गिरकर दूर-दूर तक छिटक गए थे. ये सफी सफेद कणों बने थे और जमकर ग्रेनाइट में परिवर्तित हो गए थे. इनके किनारे तीखे थे जबकि दूसरी चट्टान का भाग काला था, जिसमें काई और लाइकेन जमा थे. यह चट्टान पर इतनी मजबूती से जमे थे कि मुझे इनका नमूना लेना तक कठिन हो गया.
अंधेरा हो चला था. कुली काफी पीछे थे. 13,500 फीट की ऊंचाई पर हमें छोटे जूनीपर जलाने के लिए मिल गए. यहां पर झीने कोहरे से ढके चांद की रोशनी में हमें खेमा गाड़ दिया.
टैंट के पोल नहीं होने के कारण मुझे आराम करने के लिए कंबलों की उचित व्‍यवस्‍था करने में कठिनाई हो रही थी. आखिरकार एक ऊंची चट्टान पर भारी पत्‍थर से दबाकर नीचे को ढलती कंबल की छत बनाकर रात्रि विश्राम स्‍थल बनाया. इसके अंदर बुरांश और जूनीपर की शाखाओं के ऊपर मैंने अपना बिस्‍तर बनाया और अपने रैन बसेरे के आगे काफी आग जला दी. अंदर बिस्‍तर पर पालथी मारकर बैठ कर अपना रात्रि भोजन करने लगा. मेरा मुंह आग से तप रहा था और पीठ ठंड से जकड़ रही थी. मेरा रात्रि भोजन वसा युक्‍त उबले चावल के साथ मिर्च वाला सिरका होता था, जिसे मैं बड़े चाव से खाया करता था. खाने के बाद मैंने चुरुट (सिगार) पिया. अपने को गर्माने के कुछ देर बार आग की रोशन में लालटेन के धुंधले उजाले में मैं अपना जर्नल लिखने बैठ गया. कुछ समय तक जर्नल लिखने के बाद मैं अपने रैन बसेरे में घुस गया.
दूसरे दिन सुबह चारों ओर देखते ही मेरे भय और विस्‍मय का ठिकाना नहीं रहा. यह क्षेत्र विशाल शिला खंडों से भरा पड़ा था. नांगो की चोटी की ओर नजर डालने पर उसके आजू-बाजू का भाग सफेद नजर आ रहा था. फिर मेरी नजर उस काली चट्टान के नीचे जमे मलबे पर गई, जिसके कारण हमारे विश्राम स्‍थल, जहां हमने रात बिताई थी, के शिलाखंड इधर-उधर बिखरे पड़े थे.
राजा द्वारा भेजे गए मीपो नामक लेप्‍चा द्वारा कुछ मोनाल फांस लिए गए थे, जिनमें से एक का मैंने सुबह ही नाश्‍ता किया. यह एक छोटी जंगली चिड़िया है, जो 12,000 फीट की ऊंचाई पर पाई जाती है. नर मोनाल के पैरों पर उम्र के हिसाब से तीन से पांच पतली उठी पर्ते होती है. इसके गले में भोजन की थैली जूनीपर की बेरियों से भरी हुई थी. इस प्रकार की सख्‍त और जीवन चिड़िया मैंने पहली बार ही खाई थी.
हम बुरांश, जूनीपर तथा सिल्‍वर फर (Abies webbiana) के पेड़ों से होते हुए हिमालयी देवदार के जंगल में पहुंचे. इस प्रकार के देवदार के पेड़ों से लोग अपरिचित हैं. केवल ग्रिफिथ ने अपने जर्नल में इसके भूटान में पाए जाने का बयान किया है. यह पेड़ छोटा 20 फीट से 40 फीट, ठीक योरोप के पेड़ की तरह होता है लेकिन इसके शंकुफल (कोन) अधिक पतले और लंबे होते हैं और इसकी पतली डालें झुकी होती हैं जिन पर य लगते हैं. इसके पत्‍ते जो अब लाल थे पथरीली जमीन पर गिर रहे थे, जहां पेड़ खेड़े थे. इस प्रकार के देवदार उत्‍तर में कोसी नदी के मुहाने तक पाए जाते हें. लेकिन मध्‍य और उत्‍तर-पश्चिम नेपाल या उत्‍तर-पश्चिम हिमालय में नहीं. केवल पूर्वी हिमालय में जाए जाने वाले ये देवदार के पेड़़ लेबनॉन के सीडार (Cedar) से मिलते जुलते हैं लेकिन देवदार के पत्‍ते हल्‍का पीला रंग लिए नीले होते हैं, और इसकी डालें नीचे की ओर झुकी होती हैं.
कम्‍बचैन गांव जाने के लिए हमने नदी पार की. जो अतिप्रचंड वेग से बह रही थी और 12 गज चौड़ी थी. कम्‍बचैन का गांव सीढ़ीनुमा खेतों के ऊपर नदी से कुछ फीट ऊपर की ओर है. यहां पर कुछ एकड़ के घास के मैदान में लगभग एक दर्जन लकड़ी के मकान थे, मिट्टी से पुते हुए. इनके बाहर घेर-बाड़ की गई थी, ठीक वैसी ही जैसे खेतों की पत्‍थर बाड़. यहां पर मूली, आलू और जौ की खेती होती है. आबोहवा ठंडी होने के कारण गेहूं पैदा नहीं होता. ठंड का मतलब शायद कोहरे से हो. यांगमा गांव से यहां की ऊंचाई (11,480 फीट) 2000 फीट कम है और तापमान 6 डिग्री या 7 डिग्री अधिक है. जितनी भी पहाड़ी घाटियां मैंने देखी हैं, उनमें सबसे ज्‍यादा बहीड़ पर शानदार लेकिन उदासीन है. यहां पर आदमियों का रहना असाधारण सा लगता है, क्‍योंकि इस उपत्‍यका से ऊपर जाने के लिए कोई रासता नहीं है और लिलिप से जाड़ों के दो महीने तक सभी संपर्क टूट जाते हैं. तब यहां मकान बर्फ से ढक जाते हैं और 15 फीट बर्फ यहां पर आम बात है.
यहां पर गांव के लोगों ने मेरा स्‍वागत किया और चूनजेर्मा दर्रे, जो यांगलांग घाटी की ओर नेपाल के पूर्व में स्थित है, जाने के लिए गाइड का इन्‍तजाम कर दिया. मेरे गाइड ने उसी समय चढ़ने की सलाह नहीं दी क्‍योंकि दिन का एक बज चुका था और आगे कैम्‍प लगाने की कोई गुंजाइश नहीं थी. यहां पर गांव वालों ने मुझे कस्‍तूरी मृग की एक टांग, अखरोट के दानों के बराबर लाल आलू भेंट किए, जो वे मुझे अपने जाड़ों के लिए संचित सामान में से दे सकते थे.
यहां से हम नीचे की ओर बढ़े और कुछ दूर जा कर पार्श्‍व की घाटी, जो कुछ नीचे की ओर थी, में हमने अपना कैंप डाला.
यहां से एक हिमोढ़ पर चढ़ कर (जो नदी पर झुका था) हमने हवाई नजारा लिया. बर्फ से ढकी जुन्‍नू चोटी के पीछे की घाटी का दृश्‍य शानदार और आकर्षक था, जो दूर के दो ग्‍लेशियरों के कारण पतनाले की तरह लगता था. टेलिस्‍कोप की सहायता से मैं अनेक छोटे-छोटे ग्‍लेशियरों को देख पाया लेकिन एक बड़ा ग्‍लेशियर बिना टेलिस्‍कोप की मदद से देखा जा सकता था. यह बहुत सुंदर था और वहां का प्राकृतिक दृश्‍य अति मनोहर और अद्भुत था.
मेरे टैंट और हिमोढ़ के बीच की जमीन बिल्‍कुल समतल थी, जहां पर नदी के गोल पत्‍थर भरे पड़े थे जिनके ऊपर दूब व घास उगी थी. कुछ बौने बुरांश थे और जूनीपर की शाखाएं बिछी थी. तहर-तरह के फूल थे. बर्फ, मलवा, चट्टानें और ग्‍लेशियर थे.
यहां से दूर विशाल चट्टानें खड़ी थी, जिनके नीचे से नदी दहाड़ती बह रही थी. डूबता सूजर गुलाबी, सुनहरा, नारंगी रंग बिखेर रहा था. मुझे हिमोढ़ के नुकीले पत्‍थरों और चट्टानों के बीच खड़े बुरांश के पेड़ों से होते हुए जाना असंभव सा लगता था. सबसे बड़ा हिमोढ़ पीछे की घाटी के दक्षिण की ओर था. इसकी ऊंचाई 1000 फीट तक थी. यह मेरे कैंप, जो सिल्‍वर ओक के एक निकुंज में था, से होता हुआ दूर तक चला गया था. यहां पर बालनचून तथा यालोंग घाटियों की ओर नमक से लदे भेड़ और बकरियों के झुंड हमें पीछे छोड़ता हुआ आगे बढ़ गया. भेड़ बुरांश और स्‍थानीय वनस्‍पतियों को चरती जा रही थी. बड़ी-बड़ी चोटियों से घिरे होने के कारण यहां पर धूप सूर्योदय के चार या पांच घंटे के बाद ही आती है. इसी कारण यहां के हिमोड़ों पर हिमालय के अन्‍य ऊंचे स्‍थानों से ज्‍यादा सेवाल नजर आई.
दिसंबर 5 की सुबह आसमान साफ था. चारों ओर उजाला छाया था. हम शीघ्र ही चूनजेर्मा दर्रे की ओर बढ़ गये. यहां से मुझे उम्‍मीद थी कि हमारा रास्‍ता कैंप से ऊंपर स्थित शानदार ग्‍लेशियर की घाटी से होता हुआ जाएगा, लेकिन रास्‍ता काफी दक्षिण की ओर था, जिसे हमने चट्टानी हिमोढ़ के ऊपर से पार किया. इसके ऊपर अनेक र्फन उगे थे. हमने कल नांगो पर्वत की चोटी से उतरते हिमोढ़ के किनारे पहुंचने से पहले एक ऊंचे टीले से इस दर्रे को देखा था, जो चार ग्‍लेशियरों से घिरा था और जहां पर हमेशा बर्फ पड़ी रहती है.
हम तिब्‍बती लोगों से पहले उस घास के मैदान पर पहुंचे जहां पर वे अपनी भेड़ों को चराते हैं. यहां पर धूप में गरमाते एक छोटे बच्‍चे को गोद में लिए एक सुंदर लड़की सुंघनी का उपहार लिए मेरे पास आई. उसक पति हिमान्‍धता का शिकार हो गया था. मैंने उसे एक दवा बताई और एक चमकीला सिक्‍का उसके बच्‍चे को गले में पहनने को दिया.
ऊपर को चढ़ने का रास्‍ता कई मील तक बर्फ से ढकी पहाड़ी की धार पर था. अपने हाथ और पैरों के बल पर चोटी ओर चढ़ने लगे, जहां पर काले टूटे चट्टान अपना सर उठाए खड़े थे. यहां के कम्‍बचैन की तंग घाटी का दृश्‍य अति मनोहर था. इसकी विपरीत दिशा में नांगो ग्‍लेशियर की ओर उठती काली चट्टानों के बीच कम्‍बचैन का दर्रा खड़ा था. नीचे कम्‍बचैन के गांव में लिलिप की ओर जाने वाले रास्‍ते पर पहला पड़ाव जुबला था.
मेरे ठीक सामने उत्‍तर की ओर से जुन्‍नू की बर्फीली चोटी अपने अगल बगल से कोहरा बिखेर रही थी. इस क्षेत्र की सभी चोटियां सीधी खड़ी थी. चाहे कहीं से भी देखो यह साधारण पर्वतमाला से 9000 फीट ऊंची लगती थी. 16,000 फीट की ऊंचाई पर ये सब कंचनजंघा की तरह सफेद ग्रेनाइट की शिलाओं से घिरी थी, जो बर्फ की तरह ही लगती थी.
शाम ढल आई. 3000 फीट नीचे फर के पेड़ों के ऊपर कोहरा तैर रहा था. मुझे नॉर्वे तथा स्‍काटलैंड याद आ रहे हैं. मैं इस कोहरे के ऊपर अपने को आसमान में सा महसूस कर रहा था. उत्‍तर-पश्चिम की ओर कंचनजंघा से दूर नेपाल की पर्वत श्रेणियां नजा आती थीं. मेरा विचार है कि ये पर्वत श्रेणियां उस चौड़ी घाटी, जहां पर अरुण नदी तिब्‍बत से नेपाल में प्रवेश करती है, के उत्‍तरी छोर पर हैं.
4-5 बजे शाम को यहां हवा ठंडी थी और तापमान 24 डिग्री था. बैरोमीटर के अनुसार यहां की ऊंचाई 15,260 फीट थी. मैंने यहां पर कुलियों के लिए एक घंटा इंतजार किया. यहां की भौगोलिक और प्राकृतिक स्थितियां कम्‍बचैन की तरह ही है. हम उसी ऊंचाई पर दूसरे दर्रे, जो दक्षिण-पूर्व की ओर था, उतरे.
बाईं ओर मुझे एक अकेला शिलास्‍तम्‍भ दिखा. जार्डिन से माउंट ब्‍लांक ऐसा ही दिखता है. दर्रे तक पहुंचते ही शाम हो गई थी. यहां से दृश्‍य अवर्णननीय था. सूरज शाम की रोशनी कोहरे के ऊपर ताम्‍बाई आभा बिखेर रही थी. नेपाल की ओर के शिखर भी भव्‍य नजर आ रहे थे. सम्‍पूर्ण क्षितिज भट्टी से बाहर निकल रहे पिघले तांबे की तरह लग रहा था. चूनजेर्मा दर्रे से जो दृश्‍य मैंने देखा वह अनोखा, अद्भुत और अतुलनीय था.
चांद की रोशनी के सहारे हम यालोंग घाटी में उतरे. मैं कुलियों के लिए काफी परेशान था. वे काफी पिछड़ गए थे और कुछ कम्‍बचैन दर्रे को पार करते हुए हिमदंश से पीडि़त थे. फिर भी मैंने आगे बढ़ना उचित समझा और पहले जूनीपर की झाड़ी के पास पहुंचते ही काफी आग जलाने का फैसला किया. पर मुझे बर्फ से आने के बाद अंधेरे में चट्टानों के बीच से गुजरने में काफी कठिनाई हुई. एकाएक हम पहाड़ी पोखर के पास पहुंचे, जिसका पानी हल्की चांदनी में चमक रहा था और सामने की घाटी प्रतिबिंबित हो रही थी. जिसे देख कर हम ठगे से रह गए. यह एक गहरी खाड़ी सा लगता था. समझ में नहीं आता था कि इस को फांदकर पार किया जाए या इसके किनारे से चलकर पर शीघ्र ही हम इसे चारों ओर से होते हुए उतरने लगे. चट्टानों और खाइयों के बीच से होते हुए हम रास्‍ता भूल गए लेकिन कुछ समय बाद जंगल के ऊपरी भाग पर पहुंचे, जहां पर कुछ जूनीपर के सूखे पेड़ थे. वहां हमने धधकती आग जला दी.
मेरे कान पीछे छूटे लोगों की आवाज सुनने के लिए व्‍यग्र थे. जिनके लिए मैं चिंतित था उनहें हमारी ही तरफ काफी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता था. स्‍वच्‍छ चांदनी खिली थी. जिसके प्रकाश में आसपास की बर्फ मध्‍यम-मध्‍यम प्रकाश बिखेर रही थी. इसी कारण आकाशगंगा नजर नहीं आ रही थी और न छोटे-छोटे तारे. पर अधिक तेज सितारे आकाश में टिमटिमाते नजर आ रहे थे. यहां इस समय मौत की सी शांति छाई हुई थी लेकिन अनेक नदियां कल-कल की ध्‍वनि दिल की धड़कन की तरह उठती और बैठ जाती थी. कभी तेज और कभी धीमी. लगता था कि धरती से आवाज उठती है और लुप्‍त हो जाती है. इस प्रकार का वातावरण पाकर मानव मन और मस्तिष्‍क काल्‍पनिक जगत में खो जाता है, वास्‍तविकता से दूर. आसमान में बड़े सितारे देखकर लगता था कि हम धरती के ऊपर हवा में तैर रहे हैं और पानी की ध्‍वनि मानो स्‍वर्गीय संगीत हो.
इस प्रकार सम्‍मोह दृश्‍य जीवन के लिए खतरनाक होता है. मैं पैरों के नीचे जांघों तक भीगा हुआ था लेकिन कुछ देर में कुलियों की कहर होती आवाज से मेरी तंद्रा टूट गई. वे सब थके मांदे लाठियों के सहारे यहां पर आ पहुंचे. मेरे पास अभी तक एक बोतल ब्रांडी थी, जिसकी मांग उन्‍होंने कई बार की थी. बरहाल मैंने उन्‍हें आधी बोतल ब्रांडी दे दी और आधी बोतल आगे आने वाले संकट के लिए बचा ली.
हमने अपना कैंप 13,200 फीट की ऊंचाई पर डाला. यहां पर तापमान 22 डिग्री था. दूसरे दिन हमने एक कस्‍तूरी देखा, जिसके नर के नाभि के पास एक थैली सी होती है. इसकी सुगंध कई गज दूर तक फैल जाती है. कस्‍तूरी बंगाल के बाजार में चोरी छिपे बिकती है. कस्‍तूरी मृग मृग 8000 से 13000 फीट की ऊंचाई पर पाया जाता है, जो रोबक मृग से मिलता जुलता है. इसके सींग छोटे होते हैं. भोटिया लोगों का विचार है कि इसकी सुगंध ग्रन्थि एक खुशबुदार जड़ी को खोदने और खाने के कारण होती है. इस जड़ीबूटी की सुगंध अवश्‍य तेज और कस्‍तूरी मृग के पाए जाने के स्‍थान से काफी ऊपर है. इसके मादा और बच्‍चों का मांस भारत में किसी भी मृग के मांस से अधिक स्‍वादिष्‍ट होता है. मिस्‍टर हैगसन ने एक मादा कसतूरी मृग पाला था, जो बहुत जी जंगली किस्म का था. मेरे लेप्‍चाओं ने इन मृग का पीछा किया और अनेक बांण छोड़े. ये लोग धनुष बांण रखते है पर इनका निशाना बहुत कमजोर होता है.
मैं 300 फीट नीचे यालोंग घाटी पर उतरा जहां पर रास्‍ता बहुत खराब था. स्‍फटिक ग्रेनाइट के तीखे पत्‍थर भरे पड़े थे, जिनके कारण मेरे जूते बुरी तरह फट गए थे. घाटी के नीचे काफी नुकीली बजरी और मलवा पड़ा था. जिसके कारण नदी के दोनों और सीढ़ीनुमा रास्‍ता दूर तक चला गया था.

(अंग्रेजी से अनुवाद : के.पी. सिंह)
साभार : पहाड़

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