विनय केडी समय कि उपलब्धता के अनुसार छोटी—छोटी यात्राएं बनाते हुए जानकारियां एकत्रित करने के काम को जारी रखा। और इन सभी यात्राओं से यह समझ में आ गया था कि आध्यात्मिक पर्यटन के साथ—साथ ग्रामीण पर्यटन की संभावनाओं पर भी काम करना होगा अन्यथा हासिल शून्य ही रहेगा। 18 अप्रैल वर्ष 2009 में आध्यात्मिक
समाज/संस्कृति
अनीता मैठाणी उसका रंग तांबे जैसा था। बाल भी लगभग तांबे जैसे रंगीन थे। पर वे बाल कम, बरगद के पेड़ से झूलती जटाएं ज्यादा लगते थे। हां, साधु बाबाओं की जटाओं की तरह आपस में लिपटे, डोरी जैसे। सिर के ऊपरी हिस्से पर एक सूती कपड़े की पगड़ी—सी हमेशा बंधी रहती थी। चेहरे से […]
भार्गव चन्दोला, देहरादून महोत्सव के अंतिम दिन सुबह आंख खुली तो ठंड का अहसास रजाई से बाहर आकर ही हुआ। नौगांव फारेस्ट गेस्ट हाउस के बाहर आये तो देखा चारों तरफ से बांज देवदार के पेड़ों के बीच सुनसान जगह पर गेस्ट हाउस बना है, आसपास का दृश्य बेहद रूमानी था मगर बांज बुरांश देवदार […]
भार्गव चंदोला 28, 29, 30 दिसंबर, 2019 उत्तरकाशी जनपद की रवांई घाटी के नौगांव में तृतीय #रवाँई_लोक_महोत्सव अगली सुबह आंख खुली तो बाहर चिड़ियों की चहकने की आवाज रजाई के अंदर कानों तक गूंजने लगी, सर्दी की ठिठुरन इतनी थी की मूहं से रजाई हटाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कुछ समय बिता तो […]
प्रकृति, पहाड़, घाटी, यमुना नदी के मनोरम दृश्यों को निहारते हुए यमुना पुल पार कर माछ भात खाने रुके, यहां पर एक बंगाली परिवार है जिसका माछ भात का स्वाद आज उस दिशा में सफर करने वाले यात्रियों की पहली पसंद बना हुआ है भार्गव चंदोला 28, 29, 30 दिसंबर, 2019 को उत्तरकाशी जनपद की […]
ललित फुलारा शहर त्योहारों को या तो भुला देते हैं या उनके मायने बदल देते हैं। किसी चीज को भूलना मतलब हमारी स्मृतियों का लोप होना। स्मृति लोप होने का मतलब, संवेदनाओं का घुट जाना, सामाजिकता का हृास हो जाना और उपभोग की संस्कृति का हिस्सा बन जाना। शहर त्योहारों को आयोजन में तब्दील कर […]
प्रदीप रावत (रवांल्टा) रवांई की समृद्ध संस्कृति को नए फलक पर ले जाने का मंच है रवांई लोक महोत्सव। इस लोक महोत्सव में रवांई की समृद्ध संस्कृति का अद्भुत समागम देखने को मिलता है। इसमें स्कूल के नन्हें कलाकारों से लेकर चोटी के कलाकारों तक हर किसी की प्रस्तुति होती है। संस्कृति के इस समागम […]
नीलम पांडेय वे घुमंतु नही थे, और ना ही बंजारे ही थे। वे तो निरपट पहाड़ी थे। मोटर तो तब उधर आती-जाती ही नहीं थी। हालांकि बाद में 1920 के आसपास मोटर गाड़ी आने लगी लेकिन शुरुआत में अधिकतर जनसामान्य मोटर गाड़ी को देखकर डरते भी थे, रामनगर से रानीखेत (आने जाने) के लिए बैलगाड़ी […]
दिनेश रावत वर्षा काल की हरियाली कितना आनंदित करती है। बात गांव, घरों के आस-पास की हो, चाहे दूर-दराज़ पहाड़ियों की। आकाश से बरसती बूंदों का स्पर्श और धरती का प्रेम, पोषण पाकर वनस्पति जगत का नन्हा-सा नन्हा पौधा भी मानो प्रकृति का श्रृंगार करने को दिन दुगुनी, रात चैगुनी कामना के साथ आतुर, विस्तार […]
ललित फुलारा युवा पत्रकार हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं। इस लेख के माध्यम से वह पहाड़ से खाली होते गांवों की पीड़ा को बयां कर रहे हैं। शहर हमें अपनी जड़ों से काट देता है. मोहपाश में जकड़ लेता है. मेरे पांव में चमचाते शहर की बेड़ियां हैं. आंगन विरान पड़ा […]
Recent Comments