‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—5 रेखा उप्रेती माकोट की आमा (नानी) को मैनें कभी नहीं देखा. देखती कैसे!! जब मेरी माँ मात्र दो-ढाई बरस की थी तभी आमा चल बसी. नानाजी ने दूसरा विवाह किया नहीं…. पर फिर भी माकोट में मेरी एक आमा थी जिसे मैंने कभी नहीं देखा… मेरा माकोट बहुत दूर था […]
संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—9 प्रकाश उप्रेती हमारे खेतों के भी अलग-अलग नाम होते हैं. ‘खेतों’ को हम ‘पटौ’ और ‘हल चलाने’ को ‘हौ बहाना’ कहते हैं. हमारे लिए पटौपन हौ बहाना ही कृषि या खेती करना था. कृषि भी क्या बस खेत बंजर न हो इसी में लगे रहते थे. हर खेत […]
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—8 प्रकाश उप्रेती ये हमारी ‘कुड़ी’ (घर) है. घर को हम कुड़ी बोलते हैं. इसका निर्माण पत्थर, लकड़ी, मिट्टी और गोबर से हुआ है. पहले गाँव पूरी तरह से प्रकृति पे ही आश्रित होते थे इसीलिए संरक्षण के लिए योजनाओं की जरूरत नहीं थी. जिसपर इंसान आश्रित हो उसे […]
रंग यात्रा भाग—2 महावीर रवांल्टा अपने दोनों गांवों में नाटक एवं रामलीला की प्रस्तुति,लेखन, अभिनय, उद्घोषणा के साथ ही पार्श्व में अनेक जिम्मेदारियों के निर्वाहन के बाद पढ़ाई के लिए उत्तरकाशी में होने के कारण मैंने वहां रंगकर्म के क्षेत्र में उतरने का मन बना लिया और पूरे आत्मविश्वास के साथ शुरुआत भी की. जिससे […]
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—4 रेखा उप्रेती छोटे थे तो किसी भी बात पर सहज विश्वास कर लेते. हवा, पानी, पेड़, पहाड़- जैसे हमारे लिए साक्षात थे वैसे ही बड़ों से सुने हुए किस्से-कहानियाँ-कहावतें भी…. उन दिनों बाँस की कलम प्रयोग में लायी जाती थी और कलम मोटी, पतली, टेड़ी-मेड़ी भले ही हो पर गाँठ […]
रंग यात्रा भाग—1 महावीर रवांल्टा जीवन में पहली बार कब मुझे रामलीला या पौराणिक नाटक देखने का अवसर मिला होगा, कैसे मुझे उनमें रुचि होने लगी, इस समय यह बता पाना मुश्किल है लेकिन मेरी स्मृति में इतना जरूर दर्ज है कि महरगांव में अपने घर के बरांडे के नीचे ओबरों से बाहर की जगह […]
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—7 प्रकाश उप्रेती मिट्टी और गोबर से लीपा, लकड़ी के फट्टों से बना ये- ‘भकार’ है. भकार (कोठार) के अंदर अमूमन मोटा अनाज रखा जाता था. इसमें तकरीबन 200 से 300 किलो अनाज आ जाता था. गाँव में अनाज का भंडारण, भकार में ही किया जाता था. साथ ही […]
पुण्यतिथि (20 मई) पर विशेष चारु तिवारी मेरी ईजा स्कूल के दो मंजिले की बड़ी सी खिड़की में बैठकर रेडियो सुनती हुई हम पर नजर रखती थी. हम अपने स्कूल के बड़े से मैदान और उससे लगे बगीचे में ‘लुक्की’ (छुपम-छुपाई) खेलते थे. जैसे ही ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम आता ईजा हमें जोर से ‘धात’ लगाती. ‘उत्तरायण,’ […]
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—6 प्रकाश उप्रेती इसको हम- जानहर, जंदरु, जांदरी कहते हैं. यह एक तरह से घरेलू चक्की है. उन दिनों बिजली तो होती नहीं थी. पानी की चक्की वालों के पास जाना पड़ता था. वो पिसे हुए का ‘भाग’ (थोड़ा आटा) भी लेते थे. इसलिए कई बार घर पर ही […]
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—3 रेखा उप्रेती टूटे हुए मूँठ वाली भारी-भरकम उस तख्ती का पूरा इतिहास तो ज्ञात नहीं, पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि पाँच भाई-बहनों को अक्षर-ज्ञान करा, जब वह मुझ तक पहुँची, तो घिस-घिसकर उसके चारों किनारे गोल हो चुके थे. पकड़ने वाली मूँठ न रहने के कारण उसके दोनों तरफ […]
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